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________________ (११) की कृतिको श्वेताम्बरकतक तरीके दोनों ही मंजूर करते हैं, किन्तु इस तत्वार्थक विषयमें ऐसा नहीं है । श्वेताम्बर लोग इस शास्त्रको श्वेताम्बर मन्तव्य प्रतिपादन करनेवाला और दिगम्बरलोग इसको अपना मन्तव्य प्रतिपादन करनेवाला मानते हैं। श्वेताम्बरलोग इसके कर्ताको श्रीउमास्वातिजीवाचकके नामसे अपनी सम्प्रदायके आचार्य मानते हैं, तो दिगम्बरलोग इनको अपनी सम्प्रदायमें उमास्वामीआचार्यके नामसे स्वीकार करते हैं, ऐसी स्थितिमें दोनों सम्प्रदाय वाले जिस रीति से इस सूत्रसे अपना २ मन्तव्य सिद्ध करनेकी चेष्टा करते हैं उसी तरहसे अन्यके मजहबसे यह बात विरोधी है और इससे यह शास्त्र इन्हों का नहीं है ऐसा सिद्ध करनेका प्रयत्न भी करते हैं। * इस ग्रन्थविषयक चर्चा होनेका खास सम्प्रदाय कारण यह है कि इस शास्त्रकी रचना श्वेताम्बर भेट । और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायकी भिन्नता होनेके * * पेश्तर हुई है। यदि दोनों सम्प्रदायक विभक्तं होने के बाद इस ग्रन्थकी रचना होती तो यह चर्चा होती ही नहीं। दोनों सम्प्रदायकी विभक्तताके समय के विषयमें तो दोनोंही सम्प्रदायवालोंकी सरीखी मान्यता है। श्वेताम्बरलोग दिगम्बरकों उत्पनहोनेका समय श्रीवीर सं०६०९ बताते हैं, तब दिगंवरलोम श्वेताम्बरसम्प्रदायकी उत्पत्ति विक्रम स० १३६ में बताते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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