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________________ . (१०) * ~* यह तत्वार्थसूत्र दोनोंही. सम्प्रदाय याने 8. शास्त्र । श्वेताम्बर और दिगम्बरमें परम मान्य है, और सम्प्रदाय । इस पर दोनोंही सम्प्रदायक विद्वानोंने विस्तृत * * एवं संकुचित विवेचन भी किया है। यद्यपि कितनेक प्रमाणपन्थाको याने न्यायसम्बन्धीग्रन्थोंको दोनो परस्पर मंजूर करते हैं, एवं टीकासे भी अलंकृत करते हैं, और प्रत्यक्षादि प्रमाणों, जीवादि विषयों तथा स्याद्वादमर्यादामें दोनोंको ऐक्यता है । इसीसे तो उनको प्रतिपादन करनेवाले युक्तिप्रधान ग्रन्थोंको दोनों ही परस्पर मानते हैं, और इसी कारणसे सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख प्रमाणशास्त्रतरीके श्रीनिशीथचूर्णिमें पाया जाता है। अष्टसहस्री पर न्यायाचार्यश्रीमान्यशोविजयजीउपाध्यायजीने टीका बनाई है। ऐसे न्यायप्रधानग्रन्थों में व्याकरणग्रन्थों की तरह विवाद न होनेसे परस्पर मान्यता रहनी कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । इसी प्रकार : तत्त्वार्थके विषयमें भी बहुत भाग ऐसा है कि दोनों सम्प्रदायपालोंको एक सरीखा मान्य है। किन्तु दूसरे ग्रन्थोंके कर्ता सम्बन्धी ऐसा कोई विवाद नहीं है जैसा इस ग्रन्थके कर्ताक विषयमें. है । अष्टसहस्री और स्याद्वादमंजरी वगैरा ग्रन्थोंको दोनों सम्प्रदायवाले अपने २ उपयोगों देते हैं, और उनके कर्ता सम्बन्धी कोई विवाद नहीं करते हैं । विनम्वरकी कृतिको दिमम्वरकृति तरीके और श्वेताम्बर - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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