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क्योंकि अभिधेयादिनिर्देशके बिना अकेला मंगलाचरण करनेका रिवाज न तो श्वेताम्बरोंके शास्त्रोंमें है । और न दिंगबरोंके शास्त्रोंमें है। जैसा शास्त्रके आदिमें मंगलाचरण होता है वैसा ही अभिधेयाधिकारिनिर्देशभी अवश्य होता ही है। और मंगलाचरण शिष्टाचारसे शास्त्रसमासिके लिये होता है, किन्तु यहां तो , " वन्दे तद्गुणलब्धये " ऐसा अखीर का पद देकर नमस्कारका फल श्रीजिनगुणके लब्धिरूप. दिखा दिया है। जिससे यह श्लोक तत्त्वार्थशास्त्र के सम्बन्ध में ही नहीं है एसा कहनके साथ २ यह भी कहते हैं कि इस श्लोकमें पेश्तर तो मोक्षमार्गका प्रणेतृत्व लिया है बादमें कर्मपर्वतोंका भेदना , तद्उपरान्त विश्वतत्त्व का ज्ञान लिया है. याने यह क्रम ही उलटा है। कर्मक्षयके बिना केवलज्ञान कैसा ? और केवलज्ञानके बिना, मोच मार्गका प्रणयन कहां ?, अतः यह श्लोक क्रमसे भी मिन्न है। इसके सिवाय इसमें विशेष्यका निर्देश्य न होनेसे यह श्लोक दूसरे ग्रन्थके, सम्बन्धमें है, एवं इस श्लोकको किसीवे इधर तत्वार्थआदिमें मंगलाचरण या और किसी इरादेसे स्थापन किया है। तत्वके जानकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायवाले इस श्लोकको श्रीमान् उमास्वातिजीमहाराजका बनाया हुआ नहीं मानते हैं।
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