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________________ ( ३२ ) : पाठकों ! असल मतलब यह है कि शीतोष्ण से लगाकर सत्कारतकके परीषह श्वेतांबरों की मान्यतानुसार ही योग्य हो सकेगें । ( १६ ) ऊपर जितने भी पॉइन्ट बतलाये गये हैं उन सब से बडा पोइन्ट " एकादश जिने" इस सूत्र में है । क्योंकि इस सूत्रमें साफ दिखाया गया है कि श्रीजिनेश्वरमहाराज याने केवली महाराजको ग्यारह परीषह होते हैं, अर्थात् क्षुधा और पिपासापरिषह केवलीमहाराजको भी होता है, लेकिन दिगं के हिसाब से केवलीमहाराज आहार पानी लेते ही नहीं हैं, तो फिर क्षुधा और पिपासाका परीषह उनको कैसे होगा ?, यदि मान लिया कि उपचारसेही क्षुधा और पिपासा - का परीषह कहा है तो स्वरूपनिरूपणके स्थान में उपचारको कौन कहेगा ? और केवली महाराजमें क्षुधापिपासापरीषहका उपचार करनेकी जरूरत भी क्यों ? तुम्हारे मतसे ही एकओर तो आहारादिकको दोषरूप गिनकर केवलज्ञानके बाद आहारादिकका अभाव दिखाना है, और दूसरीओर उपचार से आहारादिकसंभवसे ही होनेवाले क्षुधापरीषहादिक दिखाया जाता है, यह क्या पारस्परिक विरोध नहीं है? जरा इसे सोचिये!, केवलिमहाराजमें उपचारसे कोई गुणका आरोप करके स्तुतिभी करे, लेकिन दिगंबरों के हिसाब से आहारादि जैसा महा दोषका उपचार करनेसे तो हांसलमें केवली महाराजकी निंदा ही होगी, याने आहारादिकको दोष मानके केवली महाराज के ये Jain Education International . For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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