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उसपरीषहका सद्भाव मानते हैं, सब तो मकान के सद्भाव में जैसे निर्ममत्वभाव साधु रख सक्ते हैं वैसेही तुच्छवस्त्रादिमें अच्छीतरहसे निर्ममत्वभाव क्यों नहीं रहेगा? और शय्यापरीपह और चर्यापरीपह तो वेदनीय और मोहनीयमें गिन गये है, अन्यथा मोहमें गिनत।
.. ... (१४) दिगंबरोंकी मान्यतानुसार मुनिमहाराजको कुछ भी नहीं रखना चाहिये ऐसा है तो फिर वेदर्भादितण भी कैसे रख सकेंगे?, और जब तृणका रखना ही नहीं है तो फिर उसका उपयोग ही कहांसे हो सके ? कि जिससे तृणस्पर्शनामका परीषह दिगम्बरोंकी मान्यतासे होवे । ख्याल रखना जरूरी है कि सतुषभी ब्रीहि न पके ऐसा कहकर उपकरणका निषेध किया तो फिर इधर तृणका ढेर कैसे बाधक नहीं होगा? तुप अरु तृणका स्पर्शमें गाढ आगाढका फरक मानें तपतो संसर्गमात्र बाधक नहीं है, किंतु गाढसंसर्गविशेषही बाधक है एसा मानना होगा, याने मूर्छाही नहीं के संसर्गमात्र बाधक मानना होगा असल में तो जैनमजहबसे दृष्टान्तमात्र साधक ही नहीं है।
(१५) जब साधुओंको वस्त्रादिक रखनेका ही नहीं है तो फिर वस्त्रादिकसे सत्कार होने पर भी अभिमान नहीं आने ऐसा सत्कार-परीवह सहन करनेकी उनको गुंजाइश ही नहीं है.
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