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दिगम्बरलोग निंदकही बनते हैं, कितनेक ऐसा भी कहते हैं कि इधर एक + अ + दश: ऐसा समास करके एकसे अधिक ऐसे दस नहीं, इस प्रकार अर्थ करना. याने एक दस शब्द से ग्यारह लेना और बीचका जो अकार वह निषेध वाचक होनेसे ऐसा अर्थ होगा कि केवलियों में ग्यारह परीषह नहीं है, पाठकों ! सामान्यबुद्धिवाला आदमी भी यहांपर कह सकता है कि यह अर्थ शास्त्रकार की आत्माका खून करके किया गया है. क्योंकि ऐसा कूट अर्थ न तो शास्त्रकार कहते हैं, और न शास्त्रकारकी ऐसी शैली भी है. तत्त्वार्थ सूत्र में श्रीगणेश से इतिश्रीतक किसी भी स्थान पर किसी भी सूत्रमें ऐसा टेडा अर्थ नहीं किया गया है. तो फिर यहां पर ऐसा टेडा अर्थ क्यों ? चोथे अध्याय में एकादशशब्द है उसका क्या ऐसा अर्थ करते हैं १, कभी नहीं, असल बात तो यह है कि शास्त्रकारनें कोई टेडा अर्थ नहीं किया है, किन्तु इस तत्वार्थ सूत्र के कर्ता ही श्वेतांबरी आचार्य हैं और वे केवलीमहाराजको आहार माननेवाले हैं. इसलिये केवलीमहाराजको क्षुधा और पिपासा परीषद होना गिनकर श्वेतांबराचार्य श्री उमास्वातीवाचकमहाराजने सूत्र में म्यारह ही परीषद कहे हैं. दिगम्बर की. उत्पत्तिके पेश्तर यह सूत्र श्रीउमास्वातीवाचकज़ीने गुणठायेंमें परीषहका अवतार के प्रसंगसे क्यों न किया हो &
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अब इधर दिगंबरोंने पेश्तर तो उपकरणोंको उपकरण
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