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________________ . तरीके माननेकी मनाई की. तब एक ओर तो स्त्रीको चारित्र नहीं होता है, ऐसा मानना पडा, और साथमें बन्ध, निर्जरा और मोक्षका संबंध जो परिणामके साथ था उसके स्थानमें मोक्षादिकका संबंध बाह्यलिंगके साथही करना पड़ा, और इसीकारणसे अन्यलिंग और गृहिलिंगसे सिद्ध होनेका उडा कर सिद्धके पन्द्रह भेद भी उडाना पडा. तदनंतर तीर्थकरकेवली गोचरीके लिये नहीं जाते हैं. और पात्रादिकके अभावसे दूसरे भी आहार, पानी लाकर नहीं दे सक्ते हैं. अतः केवली महाराज आहार नहीं करते हैं ऐसा मानना पडा, और इसीलिये इस सूत्रका ऐसा टेडा अर्थ करनेकी दिगम्बरोंको जरूरत पड़ी है। - व्याकरणके हिसाबसें 'एकेनाधिका न दश एकादश' ऐसा करना ही अयोग्य है. मध्यपदका लोप करके कर्मधारय तत्पुरुष करना होगा. नका समास दशके साथ करके अदशशब्दको जोडना होगा और ऐसा करनेसे तो अर्थक हिसाबसे आचार्य महाराजको 'नैकादश' ऐसा करना ही लाजिम है, किन्तु ऐसा अयोग्यसमास और इतना टेडा अर्थ करने पर भी दिगंबरीभाइयोंकी अर्थसिद्धि नहीं हो सक्ती है. क्योंकि परिसह २२ हैं, उनमेसे ११का निषेध करने पर भी शेष११तो रहते ही हैं, याने केवलीमहाराजाओंको११नहीं हो तो भी शेष११तो होयेंगे ही। कभी ऐसा कहा जाय कि श्वेतांबरलोग केवली. महाराजको ११. परिसह मानते हैं उस पक्षको खंडन करनेके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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