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उमास्वामी नाम रखा हो तब तो ठीक मालूम होता हैं, किन्तु दिगंबरियों में प्रायः रिवाज है कि साधु और आचार्यको इलकाबके तौर पर नाम के आगे 'स्वामी' शब्द लगाया जाता है, तो फिर इससे असली नाम उमा होना और वह तो स्त्रीवाचक होन से सर्वथा असंभवित ही है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वातीका टुक नाम उमा रखकर उसके साथ स्वामी शब्द लगाया गया या शुरु से ही उमास्वामी नाम हो, किन्तु विचार करने पर इन दोनोंकी अयोग्यता हैं और प्रथम पक्ष ही ठीक जचता है । . श्वेतांवरोंके हिसाब से श्रीमान्का उमास्वाति
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वाचक
कौन ?
नाम शुरुस ही था, किन्तु जब आप दीक्षित होकर पूर्वसूत्रों याने "दृष्टिवाद" नामका जो बारवां अंग है, उसका तीसरा हिस्सा पूर्वनामक उसके पाठक हुए तब आप 'उमास्वातिवाचक' कहलाये । श्वेतांवरशास्त्रों में यह तो स्पष्ट ही ह कि 'वाचकाः पूर्वविदः' अर्थात् पूर्वशास्त्रोंको पढने विचारने एवं बांचनेवाले वाचक गिने जाते थे । इसीलिये ही तो आपने तत्त्वार्थभाष्यमे खुदका नाम उमास्वाति ही दिखाकर अपने गुरुमहाराजको ही वाचक तरीके दिखाये हैं । यद्यपि दिगंबर लोग इन उमास्वातिजीमहाराजको उच्चकोटीके तत्वज्ञानी मानते हैं, किन्तु वे पूर्वशास्त्रों के वेत्ता थे ऐसा कहने में संकोच करते हैं, और श्वेताम्बरलोम 'इदमुचैर्नागरवाचन' ऐसा भाष्यका पाठ देखकर श्रीमान्का वाचकपनाका स्वीकार करते हैं ।
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