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तो जहां भी षष्ठी सप्तमी विभक्तिवाला पद करने की जरूर देखते हैं वहां पर स्पष्ट वह कह देते हैं, जैसे "तद्विशेषः ' 'तद्योनयः' इस तरह इधर भी निर्धारण के लिये 'तेषां' पद लेना ही होगा, और 'तेषां' ऐसा पद लेंगे तभी तो उन औदारिकादिशरीरों में आगे आगेका शरीर बारीक याने अल्पस्थान में रहनेवाला ऐसा अर्थ होगा. अन्यथा पेश्तरके सूत्रमें रहा हुआ 'शरीराणि' पदका इधर लगना कैसे होगा ?
(१५) सूत्र ४२ में दिगम्बरोंने 'तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः' ऐसा पाठ माना है, और श्वेताम्बरांन 'तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्या चतुर्भ्यः' ऐसा पाठ माना है. यद्यपि प्रथमाध्यायमें ऐसा ज्ञानके विकल्पों को दिखानेवाला सप्तमीवाला सूत्र हैं, लेकिन वहां तो दोनोंके सूत्रपाठ समान है, याने दोनों सप्तम्यन्त ही मानते हैं. इधर दोनोंमें परस्पर पाठभेद है इधर सोचनेका यह है कि वहां पर तो ज्ञान गुण था और गुणी आत्मा था. गुण होवे वह गुणीमें रहे, और शास्त्रकार ने भी 'द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः' ऐसा स्पष्ट कहा भी है. इससे वहां पर प्रथमाध्यायमें तो सप्तमी से निर्देश करना लाजिमी है, लेकिन जिस जगह शरीर और शरीरिका सम्बन्ध दिखाना है वहां पर सप्तमी धरना कैसे मुनासिब होगा ? दूसरा यह भी सोचनेका है कि शरीरमें जीव है कि जीवमें शरीर है ? यदि कहा जाय कि शरीर अकेलाभी पीछे ठहरता है और देखने
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