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आदिके व्यवहार में भी शरीर ही आता है, इससे शरीर में जीवका रहना योग्य गिना जाय, तो फिर एकजीव में चार तक शरीर हो सकता है, यह कहना कैसे बनेगा १, इससे साफ है कि स्वस्वामिभावको दिखानेवाली षष्ठी विभक्ति ही इधर चाहिये ।
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( १६ ) इसी अध्याय के सूत्र ४६ में दिगम्बर 'औपपादिकं वैक्रियं' ऐसा पाठ मानते हैं. और श्वेताम्बर 'वैक्रियमोपपातिकं ' ऐसा पाठ मानते हैं. इधर दिगम्बरोंका कहना है कि औपपा दिक और औपपातिकके लिये तो ठीक ही है कि हमने त के स्थान में द कर दिया, लेकिन 'वैक्रिय' शब्दका स्थान तो तुमनें ही पलटाया है. हमारा यह कहना इससे लाजिम होगा कि सूत्रकारमहाराजने औदारिकशरीर के विषय में 'गर्भसंमूर्च्छनज़माद्यं' कहकर शरीरका आखिर में कथन किया, आगे आहारकके अधिकार में भी 'शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं' जो सूत्र. है वहां पर भी आहारकका नाम पीछे ही कहा है. इससे साफ मालूम होता है कि इधर भी सूत्रकारमहाराजने तो 'औपपादिकं वैक्रियं' ऐसा ही कहा था, लेकिन श्वेताम्बरोंने इनको पलट कर 'वैकियमोपपातिकं' ऐसा बना दिया. इस स्थान में श्वेताम्बरोंका कथन यह है कि सूत्रकारमहाराजने 'वैक्रियमीपपातिकं' ऐसा ही सूत्र बनाया है. हमने कुछ भी पलटाया नहीं है, और युक्तियुक्त भी यही पाठक्रम है. इसका सबब यह है कि औदारिक और आहारकशरीरके सूत्र स्वतंत्र हैं,
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