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(११६) काने उनमेंसे किसीकी अनुवृत्ति आगेके सूत्र में करनेकी नहीं है, लेकिन इधर तो वैक्रियशब्दकी अनुवृत्ति आगेके 'लब्धिप्रत्पर्य च' इस -सूत्रमें करमेकी है, और सूत्रकारकी शैली ऐसी है कि विधयकी अनुवृत्ति विधेय शब्दको आखिरमें कहना और आगे ततशब्दसे परामर्श करना. जैसे 'वनिसर्गादधिगमाद्वा' । तत्प्रमाणे 'स आश्रवः । स बन्धः' इन सब सूत्रोंमें जब पेश्तरके सूत्रोंका सम्यग्दर्शन ज्ञान योग और कर्म स्वीकार रूप विधेयकी अनुवृत्ति करनी थी तो उसको आखिर में कथन करके पीछे के सूत्रमें तत्शब्द लिया, इसी तरहसे इधर भी 'वैक्रिय' को विधेयमें रक्खें तो 'लब्धिप्रत्ययं चं' वहां पर अनुवृत्ति लानेके लिये अंत्यमें उच्चारणरूप प्रयत्न करना पड़े. इससे इधर वैक्रियका उद्देश्यपना अंत्योचारणसे रख दिया. जिससे आगे अनुवृत्ति चली आवे, ऐसा नहीं करे तो 'लब्धिप्रत्ययं च' और 'तैजसमपि' इन दोनों ही सूत्रोंमें विपर्यास करना होवे. ... (१७) सूत्र ४९ में दिगम्बर आहारकशरीरके अधिकारमें प्रमत्तसंयतस्यैव' ऐसा मानते हैं. तब श्वेताम्बर 6 चतुदेशपूर्वधरस्यैव' ऐसा पाठ मानते हैं, दोनों मजहबवाले यह बात तो मंजूर कस्ते ही हैं कि यह आहारकशरीर चौदहपूर्वको धारण करनेवाले ही करते हैं, और आहारक करते वक्त आहारफार करनेवाले प्रमत्त ही संयत होते हैं. जब ऐसा
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