________________
(१०४)
कारने इसी ही अध्याय में भव्यत्व०' में त्वप्रत्यय लिया है और दश अध्यायमें भी 'भव्यत्व' कहा ही है, याने शास. कार त्वप्रत्ययको स्पष्टपणेसे कहते ही हैं तो पीछे इधर क्यों न कहेंवे ? दूसरे अध्यायके पारिणामिकभावको दिखानेवाले सूत्र में श्वेताम्बरों 'जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ऐसा सूत्र मानके आदिशब्दसे असंख्यातादिप्रदेशादि लेते हैं जब दिगबरलोग 'जीवभव्याभव्यत्वानि च' ऐसा मानते हैं, यद्यपि दिगंबरलोग भी भव्यत्वादिककी तरह असंख्यप्रदेशत्वादि मी पारिणामिग है ऐसा तो मानते हैं, लोकन इधर आदिशब्दका होना नहीं मंजूर करते हैं, इधर कभी ऐसी शंका होवे के यदि इघर आदिशब्दसे
और भेद लेने हैं तो पीछे वे स्पष्ट ही क्यों नहीं कहे ? सूत्रकारने उद्देशकी वक्त भी क्यों नहीं किये, कहते समय पारिणामिकके तीन ही भेद क्यों लिए? लेकिन यह शंका नहीं करनी, शंका नहीं करनेका सबब यह है के असंख्यप्रदेशादिकभाव पारिणामिक होने पर भी असाधारण नहीं है, इससे स्पष्टशब्दसे नहीं दिखाये, और भेदकी गिनतीमें भी नहीं लिये. लोकन उनके लिये इधर सूचना भी नहीं करना यह कैसे ठीक होगा ? अंतमें से जीवके लिये जीवत्व अनादिपारिणामिक है उसी तरहसे अजीवका अज़ीवत्व भी पारिणामिक भाव अनादि है, उसको भी दिखाने के लिये आदिशब्दकी जरूरत थी.. . (६) इसी दूसरे अध्यायमें श्वेताम्बर 'पृथिव्यवनस्पतयः
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org