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________________ स्थावराः' और 'तेजोवायू द्वीन्द्रियादग्रश्च त्रसा: इस तरहले अस और स्थावरका विभाग करके पृथ्वीकाय, अपकाया और वनस्पतिकाय इन तीनको स्थावर और तेउकाय, वायुकाय और पेइंद्रियआदिको स मानते हैं और इसीसे ही आगे इन्द्रियके सूत्र में 'वाय्वन्तानामेक ऐसा सूत्र मानते हैं। याने पृथ्वी कायसे लगाकर वायुकाय तकके जीवोंको एक ही स्पर्शनेन्द्रिय है, ऐसा श्वेताम्बरोंका मन्तव्य है, जब दिगम्बर लोग 'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा" . 'द्वीन्द्रित्यादयसमा और 'वनस्पत्यन्तानामेकं ऐसे क्रमसे तीन सूत्र उसके स्थानमें मानते हैं. असल में इन दोनों में इन्द्रियके विषयमें तो मन्तव्य भेद नहीं है, लेकिन त्रससंज्ञा कितनी कायको होवे और स्थावरसंज्ञा कितनी कायको होवे इसमें दोनोंका मतभेद हो जायगा. व्याकरणके हिसाबसे सोचनेसे साफ मालम होता है कि 'स्थानशीलाः स्थावराः' याने स्थिर ही रहे उसका नाम स्थावर अब पृथिवीकाय अपकाय और वनस्पतिकाय स्थिर रहनेवाले हैं, इससे इन तीनको ही स्थावर कहना अनुचित न होगा. इनमें यबपि नदीआदिके प्रवाहादि दिखनेसे यह मालम होगा कि अपकायको स्थावर. कैसे कहा जाय ऐसीशंका होगी. लेकिन स्थल के नीचेपनसे जलका.गमन है, किन्तु स्वभावसे गमन नहीं है. और दूसरे कारणों से गमन होके इस स्थावरपर नहीं मिटता है. लेकिन अनिकाय और वायुकायका को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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