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रचना क्यों की ?, यह तीसरी शंका होगी, चौथी शंका यह भी होगी कि अध्ययनकर्ताओंको मुखपाठ करनेमें और धारण स्मरण में उपयोगी वैसी पद्यबन्ध रचना नहीं करते गद्यबन्ध रचना इधर क्यों की गई ?, इन शंकाओंके समाधान इस तरह से क्रमसर समजने चाहिए, इसको सूत्र कहने का यह सबब मालूम होता
कि प्रकरणका कार्य एकेक अंशको व्युत्पादन करनेका होता है, और इस सूत्र में सब विषयोंका प्रतिपादन है. असल तो जैसे जैमिनि आदिने अपने अपने मजहबके दर्शनसूत्र बनाये, इसीतरहसे यह श्रीस्वार्थ भी जैनमजहबका दर्शनसूत्र बनाया है, इसीसी इसको सूत्र कहा जाता है. यही समाधान विभागका नाम अध्याय तरीके रखने में और गद्यबन्धसूत्रकी रचना करने में भी समजना, क्योंकि दूसरे दर्शनशास्त्रभी अध्यायविभागसे और गद्यसूत्र से ही है, ऐसे यह सूत्रभी रचा गया है, इसी तरहसे दूसरे दशर्नशास्त्र ग्रन्थ संस्कृतभाषामें होनेसे ही यह सूत्र भी संस्कृतभाषा ही बनाया गया है. जैनीलोग अकेली प्राकृतभाषाही मान्य करते हैं. यह कहना ही बेसमझका है, क्योंकि जैनोंके स्थानांग और अनुयोगद्वारसूत्रमें ' सकया पकया चेव' इस वाक्यसे संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषा एकसरीखी मानी है. श्रीमान् तीर्थकर महाराजादिकी देशना जिस प्राकृतमें मानी है, वह प्राकृत अभी कही जाती है वैसी संस्कृतजन्य प्राकृत नहीं है, किन्तु अढारतरहकी देशी भाषासे मिश्रित अर्धमागधी प्राकृत..
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