________________
तत्वार्थका होना मुनासिबही है, इन सब कारणोंको सोचते स्पष्ट मालूम होजायगा कि वाचकजीमहाराजकी यह रचना अत्यंत आवश्यक है, ऐसी छोटी कृतिसे विद्यार्थियों को तत्त्वपः दार्थों का समझना सहेल होनेसे सूत्रकारका कहा हुवा विस्तृत बयान जानने को तैयार और लायक हो जायंगें. इससे श्रीवाचकजीमहाराजने सूत्रकारकी अवज्ञा नहीं की, किन्तु सूत्रकारमहाराजकी बडीही भक्ति की है. आखिर में जो आपने कहाकि दिगंबरलोग इसी तत्वार्थको मान्य करके सूत्रोंको उडा देते हैं, तो इसमें ऐसाही कहा जायकि आगाढमिथ्यात्वका उदय होजाय और ऐसा करे उसमें श्रीवाचकजीमहाराजका क्या दोष ?, क्या ऐसा तवार्थ जैसा ग्रंथ नहीं होता तो वे दिगंबर आगाढमिथ्यात्वी नहीं होते ?, कभी नहीं, तो पीछे इस आगाढमिथ्यात्ववालेका विचार ले के वाचकजी पर दोषारोप कैसे किया जाय?, इन दिगंबर लोगको तो उत्थापकपन और विपर्यासकारित्व गले ही लगा है. उसमें कोई क्या करेगा?, देखिये ! इन लोगोंने भगवानकी मूर्तिको भी चक्षुहीन कर दी, इतनाही नहीं, बल्के पल्यंकआसनसे बैठने पर किमीभी आदमीका लिंगआदि दृश्य नहीं होता है, तवभी इन दिगंबरोंने पल्यंकासनस्थ भगवत्प्रतिमाको भी हाथके आगे लिंग लगा दिया है, असलमें भगवानका लिंग अदृश्य था, उसकोभी इनोने नहीं सोचा. दिगंबरलोग यह नहीं सोचते हैं कि जब तत्वार्थसूत्रको मंजूर करना है तो पीछे श्रीमान्
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org