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________________ संकेतके लिये संज्ञा करते हैं. जैसे कि श्रीमान्ने आश्रवका निरूपण करनेवाले छटे अध्यायमें पेश्तर 'मनोवाकायकर्म योगः' एसा कहकर योगका स्वरूप दिखाया. बादही दूसरे सूत्रमें 'स आश्रवः' कहकर उस योगकी आश्रव संज्ञा की. उसी तरहसे इधर भी श्रीमान् आचार्यमहाराजने पहिले बन्धका स्वरूप या राति बताकर पीछे उसकी 'स बन्धः' कहकर बन्धसंज्ञा की. पेस्तरके सूत्र में बन्धका स्वरूप कहनेसे दूसरे सूत्र में तत्शब्दसे निर्देश करके ही बंधसंज्ञा करनी लाजिम होगा. इससे साफ होता है कि श्वेताम्बरोंका मानना ही यथार्थ है, और असल तत्त्वार्थका सूत्र श्वेताम्बरोंही के पास है. दिगम्बरोंने इस सूत्रको अपना है ऐसा दिखानेके लिए उलटपुलट कर दिया है. श्वेताम्बरोंका कथन है कि इतना होने पर भी श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीका भाग्य बड़ा तेज होगा कि जिससे इन दिगम्बरोंने गणधरमहाराजके बनाये हुए असली सूत्रोंको नामंजूर करके उडा दिये, इस तरहसे तत्त्वार्थसूत्र में उलटपुलट किया, लेकिन उड़ाया नहीं. क्योंकि दिगम्बरोंका यह तो मन्तव्य है ही कि श्रीमानउमास्वातिमहाराजके वक्त भगवानके आगम हाजिर थे और पीछे सर्वथा नष्ट होगये. जब भगवानके शास्त्रोंको व्युच्छेद कर देनेमें दिगम्बरोंको हर्ज नहीं हुइ, तो फिर उमास्वातिवाचकजीके तत्वार्थका व्युच्छेद कह देनेमें इन दिगम्बरोंको क्या हर्ज होती ?, दिगम्बरलोग भगवानके वचनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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