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भी नहीं होता. क्योंकि तीन निकायके देवोंकी लेश्या कहनी होती तो 'पीतान्तलेश्या' इतनाही सूत्र करते, और वैमानिककी लेश्याका तो आगे ही अपवाद है. दूसरा यह भी है कि पीतान्तलेश्याः' ऐसा बहुब हिकी छायावाला पद ही नहीं रखते. किन्तु पीतान्ता लेश्याः' ऐसा साफ कहते, तीसरा यह भी है कि 'आदितः' ऐसे तम्प्रत्ययांतकी क्या जरूरत है. 'आदित्रिके' इतना कहते, या 'त्रिषु' इतना ही कहत ऐसा नहीं कहना कि आगे कर्मस्थितिके अधिकारमें सूत्रकारमहाराजने ही 'आदितस्तिसृणां ऐसा सूत्र करके कहा है,जिससे इधर आदितः। कहना क्या बुरा है ?, ऐसा न कहनेका सबब यह है कि वहां पेश्तरका सूत्र अन्तरायकर्मकी दानादि उत्तर प्रकृतिको कहता है. और वहां पर 'आदितः' पद न लगाया होता तो दानादितीनप्रकृतिकी स्थिति हो जाती. लेकिन ज्ञानावरणीयादि तीन मूलप्रकृतिका तो प्रसंग ही नहीं था, सबब वहां पर आदिताः ऐसा पद देने की जरूरत थी. अचल तो आदिशब्दकी ही इधर जरूरत नहीं थी. क्योंकि आगे वैमानिकके अपवाद शिवाय भी प्रथमोपस्थित तीनही भेद आ सकते थे. ....... . (२६) चौथ अध्यायके ४थे सूत्रमें दिगम्बर लोग 'त्रायविंशत् ऐसा पाठ त्रायस्त्रिंशदेवताके. लिये . मानते. हैं और जबरलोग 'त्रायविंश' ऐसा पाठ मानते हैं, तैंतीस देवता विस होते हैं वैसेको 'बायस्त्रिंश' नामके देव कहते हैं।
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