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कर्मका स्थितिबन्ध होता ही नहीं है. इससे मोहादिकका क्षय होने बाद वेदनीयादि अघाति के क्षयमें कुछ वैसे हेतुकी जरूरत नहीं रहेगी. इतना होने पर भी श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार तो मोहादिक्षयमें और कृत्स्नकर्मके क्षयमें दोनोंमें भी बन्धहेतुका अभाव और निर्जरा यह हेतु हो सकेगा. सबंब कि' बन्धहेत्वभावο' "यह अलग सूत्र बीच में रक्खा है. और अलग बीच में सूत्र होनेसे देहली दीपक आदि न्यायसे दोनों ओर लगेगा याने मोहादिक्षय से केवलज्ञान होता है, लेकिन मोहादिका क्षय तो बन्धके हेतुओंका अभाव होनेसे और निर्जरा होनेसे ही होता है, यह भी अर्थ होगा.
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दोनों फिरकेवालोंको यह बात तो मंजुर ही है कि केवलज्ञान पानेवालेको दशवें गुणठाणेसे पेश्तर ही मोहका बन्ध नाश पाता है और दशवें गुणठाणमें सत्ता में रहा हुआ भी मोहनीय कर्म नाश पा जाता है, इसी तरहसे दशमें गुणस्थानकी आखिर होते ज्ञानावरणादिके बन्धकी दशाका भी अंत होता है, और बारहवें गुणस्थान में शेष सत्ता में रहे हुए ज्ञानावरणादिघातिकर्म की सत्ता भी निर्मूल होती है. इससे मोहादिक्षय में ही यह लगाना लाजिम है. समग्रकर्मक्षयरूप मोक्ष के लिये तो केवलज्ञान होने बाद सातवेदनीयसे शेष अघातिया घातिकर्म के बन्धका कोई सबबही नहीं है, और वेदनीय आयु नाम और गोत्रकी निर्जरा हुई है. लोकं इससे घाति अघाति दोनोंके साथ बन्ध
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