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________________ ( २८ ) ( ९ ) दिगंबरों के हिसाब से वस्त्रादिकका लेना और धारण परिभोग यह सबही परिग्रह है, अर्थात् ग्रहण ही परिग्रह है, तो फिर उनके हिसाब से तो " ग्रह" से ही विरमण मानना चाहिये, याने "परि" उपसर्ग लगानेकी क्या जरूरत थी ? • १० ) दिगंबरोकों सिवाय शरीरके दूसरा कुछ माननाही 'नहीं है तो फिर ये लोग साधुके एषणा और आदाननिक्षेपसमिति कैसे मानेगें ? क्योंकि पात्रादि नहीं रखने से उनके साधुओंकों एक ही गृहेस आहार कर लेना पडता है. जब एक गृहमें ही भोजन कर लेनेका हैं तो फिर एकगृहान्न छोडना और माधुकरी वृत्ति करना यह कैसे रहा? जब माधुकरीवृत्ति ही नहीं रहेगी तो फिर एषणासमिति कहां रहेगी ?. जिस तरह पौत्रादिक न होनेसे एषणासमिति नहीं बनसक्ती उसी तरह आदाननिक्षेपसमिति भी नहीं बन सक्ती है । क्योंकि कोई भी वस्तु उठाना या धरना उसको प्रत्युपेक्षण और प्रमार्जन 'करके उठाना या धरना उसका नाम आदाननिक्षेपसमिति ' है.. अब इधर सोचना चाहिये कि जब प्रमार्जन करनेके लिये 'न तो रजोहरणादि हैं और न उठाने धरनेकी कोई वस्तु ही है, तो फिर आदाननिक्षेप समिति उनलोगों के मजहब से कैसे बनसक्ती है ? | यथायोग्य उपकरण नहीं होने पर यदि रात्रिमें पेशाब या टट्टी जानेका मौका आजाय तो यतना किस तरहसे की जा सके ? क्योंकि लंबा और बडा रजोहरण नहीं होने से अंधेरे For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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