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________________ ( २७ ) हिसाब से साधुको शिष्य तो बना देते हैं, लेकिन वह जब बीमार होता है तो वह गृहस्थोंको सौंप दिया जाता है, और गृहस्थलोम उस बीमारसाधुकी हिफाजत करके उसे आरोग्य करते हैं. ऐसी स्थितिमें दिगंबरों के हिसाब से वैयावच्च करना कैसे बने ? असल में विनय और भक्ति तो परस्पर साधुओंमें माननेमें हरज नहीं है, लेकिन उपकरण माननेकी फरज आ पडे इससे परस्पर पोष्यपोषकभावके नामसे वह उडा दिया, यद्यपि संयत में पोष्यपोषकभावभी हरज करने वालाही नहीं है. और वेयावच्च तो ग्रन्थकार महाराजने तीर्थकरनामकर्मके आश्रवमें और अभ्यन्तरतपमें जताया ही है । इधर तो उमास्वातिवाचकजीने तीर्थकर नामकर्मका कारण गिनाते वैयावच्चको तीर्थकरने का कारण दिखाया है और तीर्थकरनामकर्मका बांधना साधु एवं श्रावक दोनोंहाको सरीखा रखा है, याने साधुकों तीर्थकर नामकर्मबंधी मनाई नहीं की, तो ऐसी स्थिति में याने साधुको माया अच्छे साधुकी वैयावच्च और बरदास्त करनेसे तीर्थकरनाम बांधने का कहने वाले ग्रंथ-लेखक श्वेतांबर संप्रदाय के ही हो सक्ते हैं। वैसेही मुहपत्ति न होनेसे द्वादशावर्त्तवन्दन नहीं होगा और वह नहीं होने से आवश्यक प्रतिक्रमण नहीं होगा । (८) दिगंबरोंके हिसाब से कोई भी चीज साधुको रखना मना है तो फिर अदत्तादानका विरमण क्यों है, अर्थात् आदान- ग्रहणमात्रसे विरमण होना चाहिये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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