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________________ (४८) आदिका जिकर नहीं करके भूमिरसादिकी वृद्धि, हानि और अवस्थितता कही गई है, यह कहां तक शोभा देगी.१; इसका. विचार तो अकलमंदही करसक्ते हैं । २९, ३० और ३१ वें सूत्रोंमें स्थिति दिखाई गई है. वहां पर अंतरद्वीय और भरतऐरवतकी स्थितिका जिक्र तक भी नहीं किया गया है, और महाविदेहमें संख्येयकाल कहा गया यहमी कितना अनुचित है?, क्योंकि शीर्षप्रहेलिका भी संख्येयमें है, और महाविदेहमें पूर्वकोटिसे ज्यादा आयुष्यही नहीं है। सूत्र३१ में भरतका विष्कभ तो दिखलाया है, कि तु न तो वैताव्यका नाप.दिखलाया, और न उसकी शिखरसंख्या आदि दिखाये. और न भरतके लिये दक्षिण उत्तर विभाग और मानही बतलाये गये. ये तमाम हालात देखतेही विद्वान्लोग कहते हैं कि ये सब सूत्र दिसंबरियोंनेही आचार्यमहाराजकी कृतिरूप मणि-मालामें कांच दुकडे की तरह दाखिल कर दिये हैं. और उन पंडितोंका कवन हराको भी मंजूर करना पड़ता है, आगे चलकर पंडित लोग कहते हैं कि दिगंबरियोंनेही ३२ वां सूत्र "द्विर्धातकी खंडे' ऐसा रखा है, तो इधर १० वें और ११ वें सूत्र में कहे हुए भरतादि, हिमवदादि वर्ष और वर्षधर तो धातकीखंडमें और पुष्करार्धमें दुबारा हैं यह मान सके हैं, किन्तु इन दिनभरिपों के हिसाबसे तो धातकीखंड और पुष्करार्धमें भरतका भाग द्विगुणा लेना होगा, और यह बात किसीको भी मान्य नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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