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नहीं होता है, अन्यथा एकहेतुसे साध्यकी सिद्धि होने पर अन्यहेतुओंका प्रयोग करना न्यायशास्त्र से विरुद्ध है, असल में तो यह गति अचिन्त्यस्वभावकी स्थितिसे ही है, अन्यथा अधोलौकिकग्रामोंसे सिद्धि पानेवाले में और ऊर्ध्वलोकमें सिद्धि पानेबाले में पूर्व प्रयोगादिका तारतम्य मानना होगा, जो कि किसी तरहसे इष्ट नहीं है. इसी कारण से तो पेश्तर के सूत्र में 'गच्छति' ऐसा प्रयोग रक्खा है, और इधर 'तद्गतिः यह अलग पद रक्खा है इतनाही नहीं, बल्कि पेश्तरके सूत्र में 'आलोकान्तात्, ऐसा पद लगाकर सूत्रकारने सिद्धमहाराजकी गतिका विषय शास्त्रकी अपेक्षासे वहां ही खतम किया है, अन्यथा चौथा - सूत्र अलग नहीं करते. दोनों सूत्र एकत्र करके 'तदनन्तरमाको कान्तादूर्ध्वं पूर्वप्रयोगादिम्यो गतिः' इतना ही कहना बस होता, और दाखला भी देना होता तो 'चक्रादिवत्, इतना ज्यादा लगा देते. लेकिन सूत्रकारमहाराजने अधिकारिभेद से अलग अलग सूत्र किये हैं. इसी तरहसे प्रथमाध्यायमें भी सूत्रकारमहाराजने 'निर्देशस्वामित्व ० ' सूत्र और 'सत्संख्या ' ० ये सूत्र अलग २ किये और श्रद्धानुसारि व तर्कानुसारिको ऐसा करके ही समझाये हैं, याने इधर तर्कानुसारिके लिये अलग सूत्र किया और गतिकी सिद्धि की, इससे 'तङ्गतिः' पद धरनेकी जरूरत है. ऐसा भी नहीं कहना कि जब तर्कानुसारियोंके लिये सिद्धमहाराजकी गतिकी सिद्धि के लिये हेतुकी जरूरत श्री तो
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