________________
.
.
.
.'
क्रोध, मान, माया और लोभके अल्पत्त्रको दिखानेका है, वहां दिगम्बरी लोग अल्पादिका एक सूत्र और स्वभावमार्दवका दुसरा मानकर मूत्र व्यर्थ ही अलग २ करते हैं, और स्वा. भाविक आर्जव जो तिर्यग्योनिआयु रोकके मनुष्यायुका विधान करनेमें जाहिर है, उसको छोड देनेकी अनार्जवता दिखाते हैं। इसी तरह देवायुषमें 'सम्यक्त्वं च' ऐसा भी फजुल है, सम्य क्ववाले सब आयु बांधते ही नहीं, और सम्यक्त्ववान् देव, और नारकी भी है. वे देव नहीं होते हैं। .. छठे अध्यायमें मनुष्य आयुके बन्धका अधिकारमें श्वेताम्बरियोंने " " अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवत्वं च मानुषस्य" ऐसा एक सूत्र माना है । तब दिगम्बरियोंने उसके दो हिस्से कर " अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य"
और "स्वभावमार्दवं च” ऐसे दो सूत्र बना डाले । इस सूत्रका निष्प्रयोजन विभाग करदेना और मनुष्यपनके कारणों से सरलतारूप कारणको उडा देना यह दिगम्भरियोंको कैसे उचित मालूम हुआ होगा। इस विषयमें दिगम्बरलोग यदि अपना अभिप्राय जाहिर करेंगे तो तटस्थलोगोंको सोचनेका प्रसंग प्राप्त होगा।
सरलषनसे मनुष्यका आयुष्य बंधता है यह बात दिगम्बरियोंकोभी स्वीकार्य है, तो फिर उनलोगोंने यहां पर से"आर्जव" पद क्यों निकाल दिया ?, यदि कोई ऐसा कहे कि यह पद तो
..
.
.
.
aaja
.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org