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________________ A इधर उसीतरहसे दशतरहका श्रमणधर्म ही मोक्षका साधक और तत्त्वभूत गिनकर दशअध्याय प्रमाण रक्खा है, और इसीसे ही कलिकालसर्वज्ञ भगवान् श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजीने प्रमाणमीमांसामें महाव्रतधर्मके हिसाबसे पांच अध्याय और दशविधयतिधर्मके लिये देश आहिक रक्खे हैं. इसतरहसे अन्य सबब भी इतरदर्शनशास्त्रकी अनुकृतिमें दे सकें, लेकिन संक्षेप करके सज्जनोंको, खुद ही सोचनेका इशारा करके बस करते हैं. . . .. (२५) ' समनस्कामनस्काः ' यह संसारी और मुक्तिके विभाग करने के बाद और बस स्थावर भेद के पेश्तर कहा है। इसकी मतलब यह होगा कि इतरदर्शनकार सभी जीवको मनसे युक्त मानते हैं और वह मन भी नित्य मानते है, इससे इधर दिखाया कि सभीको मन है भी नहीं, और मनका वियोग करके ही मुक्त आत्मा मनरहित होते हैं। यह सूत्र सामान्यविभागका होनेसे ही आगे 'संसारिगनसंस्थावरा' ऐसा और 'संज्ञिनः समनस्काः ' ऐसा पत्र कहा. अन्यथा इस समनस्का० सूत्रकी जरूरत नहीं थी. 'सीझनः समनस्काई' इतना ही बस था और संसारिणखसंस्थावराः' इस स्थानमें 'आद्यास्त्रसस्थावराः' इतना ही बस था। . . . .. . .. L . . .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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