________________
( ५२ ) । (१०) चतुर्थअध्यायके अखीरके भागमें दिगम्बरोंने "लोकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषां" ऐसा सूत्र माना है. इस सूत्रको श्वेतांबर समाज मंजूर नहीं करती है, उसका सबंब यह है कि यदि श्रीमान् उमास्वातिजीमहाराजकों लोकान्तिककी स्थिति दिखानी होती तो लोकान्तिकोंका स्थान और भेद बतलाया वहांपर ही बता देते. दूसरी बात यह है कि लोकान्तिकका प्रकरण छोडकर लोकान्तिककी बात अन्यत्र उठाना, यह भी सूत्रकारकी शैलीके अनुकूल नहीं है. तीसरी वात यह है कि यदि लोकान्तिककी स्थिति ही कहनी होती तो ब्रह्मदेवलोककी स्थिति बतलाई वहां परही कह देते. चौथी बात यह है कि--" लोकान्तिकानां" ऐसा कहनेसे सभी लोकान्तिककी स्थिति आ जाती है तो फिर " सर्वेषां" इस पदकी जरूरत ही क्या थी? इन कारणोंसे स्पष्ट होता है कि यह सूत्र श्रीमान् ग्रन्थकारमहाराजका बनाया हुआ नहीं है. किन्तु किसी अल्पबुद्धिवालेने स्वकल्पनाका फलरूप यह सूत्र बनाकर श्रीमान्के सूत्रोंमें घुसेड दिया है। । [११] चतुर्थअध्यायमें देवताओंके विषय में गति शरीर आदिकी हानि उत्तरोत्तरदेवताओंमें है ऐसा दिखाने का सूत्र है जिसे दिगम्बरलोग भी स्वीकार करते हैं, किन्तु देवतामें उच्छवासआहारादिकी तारतम्यता दिखाने के लिये जो सूत्र " उछ्वासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्याः ” [ ४-२३ ]
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org