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क्षीणकषाययोश्च सूत्र नहीं होता तो 'शुक्ले चा०' इस सूत्रमें चकार धरनेकी क्या जरूरत थी? इतनाही नहीं, लेकिन हरएक ध्यानके अधिकारमें पेश्तर उसका भेद दिखाकर बादही उस ध्यानके मालिक दिखाये जाते हैं. जैसा खुद इधरही आतध्यान, रौद्रध्यानमें भेद दिखाकर बाद में ध्याता दिखाया. ऐसा दोनों फिरकेका सूत्रपाठ कह रहा है, तो फिर इधर शुक्लध्यानके भेदोंको दिखाये बिना ही कौन कौन किस किस भेदके ध्यानेवाले हैं यह दिखाने की क्या जरूरत थी ? इससे विवश होकर मानना पडेगा कि धर्मध्यानको ध्यानेवाली कोई व्यक्तिका इधर पेश्तरके सूत्र में निर्देश था. और वे व्यक्तियां दूसरे ध्यानको भी ध्यानेवाली है, वे दूसरी कोई नहीं, किन्तु उपशान्तमोह और क्षीणमोह ये दोनों हैं. याने मतलब यह हुआ कि कितनेक उपशान्तक्षीणमोहवाले धर्मध्यानवाले होते हैं
और कितनेक शुक्लध्यानवाले भी होते हैं. और इसी बातका दिखानेके लिये 'शुक्ले चाये' इस सूत्र में सूत्रकारने समुच्चयवाचक 'च' का प्रयोग किया है. इधर चकारका प्रयोग तो दोनों भी मंजूर करते हैं. कभी दिगम्बरोंकी तरफसे ऐसा कहाँ जाय कि इधर समुच्चयवाचक चकार है लेकिन इससे उपशान्तक्षीणमोहका समुच्चय नहीं करना है, किन्तु पेश्तरं कहा हुआं धर्मध्यान और आगे दिखाएंगे ऐसे. शुक्लध्यानके भेदद्वय ये सब पूर्वके जानकारको होते हैं. इस अर्थको दिखानेके लिए
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