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१. इसी तरहसे सूत्रकारभगवानने निसर्गअधिगमादि सम्यक्त्वके दश भेद दिखाये थे, तब वाचकजीने शेष आज्ञारुचिआदिभेदोंका अन्तर्भाव निसर्ग और अधिगममें किया, और इनको भेदकी तरहसे नहीं लेते हेतुकी तौरसे लिये. साथमें सूत्रकारों ने सम्यक्त्वको आत्माका स्वरूप माना था,और तत्त्वार्थको श्रद्धाको एक आस्तिक्यरूप-लिंगपनेसे ली थी. लेकिन वाचकजीये, श्रद्धाको लक्षणस्वरूपमें ली है. इसका सबब भी दार्शनिक सिद्धान्त ही है। क्योंके तर्कानुसारियोंके लिये जितना यह लक्षणादिका रास्ता अनुकूल होगा उतना वह नहीं होगा।
२ सूत्रकारोंने ज्ञान आत्माका लक्षण है ऐसा करके ज्ञानका बयान किया है, तब वाचकजीने पदार्थके अधिगमके लिये प्रमाणकी जरूरत है, और वह प्रमाण ज्ञानरूप है, इससे ज्ञानके बयानकी जरूरत गिनाई। .. ३ पत्रकारोंने उपक्रमके भेदमें या ज्ञानके दूसरे पक्षसे प्रमाणकी व्याख्या की थी. तब वाचकजीने ज्ञानका स्वरूप ही प्रमाण लेकर व्याख्या की है।
४ सूत्रकारोंने अंगोपांगमें स्मरणादिकके लिये विभाग नहीं किया था, वह इन्होंने मतिज्ञानमें स्मरणादि समावेश करके उसका परोक्षमें अन्तर्भाव स्पष्ट रूपसे दिखा।
.. ५ सूत्रकारोंने चक्षु और मनके लिए अमाप्पकारिता पर दबाव नहीं दिया था, तब वाचकजीने स्वतंत्र स्त्र बनाकर
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