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सूत्र अलग होकर असंख्येयशब्द चकारसे अनुवृत्त किया तो फिर 'चानुकुष्टं नोत्तरत्र' ऐसा नियमसे यह असंख्येयशब्द आगे नहीं चल सक्ता है, जिससे पुद्गल के सूत्रमें असंख्येयपद कहनेकी जरूरत हुई.
शास्त्रकारकी शैली ऐसी ही है कि चशब्दसे जिसकी अनुवृत्ति लावे उसको आगे नहीं चलावे. और इसी से ही औपशमिक के दो भेद जो सम्यक्त्व और चारित्र नामके थे, उनको क्षायिकके भेदोके वक्त चशब्दसे लिया तो फिर क्षायोपशमिकके अट्ठारहभेदों में सम्यक्त्व और चारित्र ये भेद अनुवृत्ति से नहीं लाये गये, किन्तु स्पष्टशब्द से ही वहां कहे. इसी तरहसे इधर ' जीवस्य च' इससूत्र में चशब्द कहकर असंख्येयकी अनुवृत्ति की है इससे वह आगे नहीं चल सक्ता. याने पुगलसूत्र में 'असंख्येय ' पद लगानें से ही साबित होता है कि सूत्रकारनें ' जीवस्य च ' यह सूत्र किया था, और इन दिगम्बरोंनें उस सूत्रकों उडा दिया और धर्माधर्मकी साथ ही ' एकजीव कह कर मिला दिया.
(१४) फिर भी दिगम्बर लोगोंने 'सद् द्रव्यलक्षणं' ऐसा सूत्र 'भेदसंघाताभ्यां' सूत्र के बाद और 'उत्पादव्यय' इस सूत्र के पेश्तर माना है । किन्तु श्वेतांबरलोग इस सूत्रको नहीं मानते हैं। श्वेतांवरियोंका कहना ऐसा है कि यदि सूरीश्वरजीको द्रव्यके लक्षण में सत्त्वपना लेना होता तो 'गुणपर्यायवद्
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