SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५४ ) प्रदेशा धर्माधर्मयो:' और 'जीवस्य च ' ऐसे दो विभागसे दो सूत्र अलग २ मानते हैं । श्वेतांवरियोंका कहना ऐसा है कि यहाँ पर धर्मशब्द से धर्मास्तिकाय और अधर्मशब्द से अधर्मास्तिकाय लेना है, किन्तु जीवशब्दसे जीवास्तिकाय नहीं लेना अतः दोनोंका सूत्र अलग होना ही उचित है । 'जीवस्य ' ऐसे एकवचन से ही यदि एक चीज जीव 'प्रमाण' ऐसा सूत्रके द्विवचनसें दो प्रमाणकी तरह आजाय तो फिर एकशब्दको प्रयोग सूत्रमें लाना यह सूत्रकारकी खामी दिखानेवाला होता है । श्वेतांबर और दिगम्बर दोनों ही असंख्यातकी संख्या के असंख्य भेद मानते हैं, किन्तु यहां पर इसमें कौनसा असंख्यात - का भेद लेना इसका निर्णय नहीं होता है । जिससे धर्माधर्मका प्रदेशमान आदिमें ही कथन करके बादमेंही उसीके बराबर प्रदेश हरएकजीव भी कहना योग्य होगा । और धर्माधर्मके असंख्य प्रदेशका मान तो "लोकाकाशेऽवगाहः " इस सूत्र से भी निश्चित होता है । इधर यह भी सोचने का है कि यदि ' जीवस्य च ' ऐसा सूत्र अलग नहीं करना होता और चकारसे असंख्यातशब्दकी अनुवृत्ति नहीं लानी होती तो पीछे 'आकाशस्य चानन्ताः ' ऐसा सूत्र करके ' संख्येया अपि पुद्गलानां' ऐसा सूत्र करते, याने पुद्गल के प्रदेश दिखानेवाले सूत्र में 'असंख्येयाः ' यह पद करने की जरूरत ही नहीं होती. लेकिन यदि ' जीवस्य च ' यह www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy