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द्रव्यं ऐसा जो द्रव्यका लक्षण कहा उसी स्थान पर या उसीसूत्रमें वे समावेश करके कह देते । इसके सिवाय यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो यह सूत्र ही जैनमजहबकी मान्यतासे खिलाफ है। इसका कारण यह है कि जिनेश्वरमहाराजको माननेवाले द्रव्य गुण और पर्याय ऐसे तीनों को सद् मानते हैं, और सद् द्रव्यलक्षणं ऐसा सूत्र करनेसे गुण और पर्याय दोनों असत् होजाते हैं, इतना ही नहीं, किन्तु वैमा द्रव्यका लक्षण यदि इष्ट होता तो "गुणपर्यायवद् द्रव्यं" यह सूत्र अलग क्यों करते ? मतलब यह है कि 'सद् द्रव्यलक्षणं' सूत्र न तो जैनमन्तव्यताका है, और न यह सूत्र-रचना ही अनुकूल है । श्वेतांबरी लोग तो कहते हैं कि यह सूत्र यदि उमास्वातिजीको इष्ट होता तो 'सद् द्रव्यं' इतना ही लक्षणसूत्र बस था । उदाहरणार्थ-'गुणपर्यायवद् द्रव्यं' इस सूत्र में लक्षणशब्दके प्रवेशकी जरूरत ही नहीं है. उसी प्रकार यहां पर भी लक्षणशब्द कहनेकी कुछभी जरूरत नहीं है । क्योंकि उद्देश्यविधेय. विधिसे ही लक्षणका भी भान होजाता था । इसके सिवाय. दूसरे दर्शनकार भी अपने सूत्रमें लक्षणशब्दका प्रयोग कभी भी नहीं करते हैं। तो फिर इधर लक्षणका अर्थ आजाने पर भी लक्षणशब्दका प्रयोग करना सूत्रकारको तो लाजिम नहीं है। 'उपयोगो लक्षणं' इस सूत्रमें तो लक्ष्य का निर्देश नहीं होनेसे लक्षण शब्द कहना लाजिम ही है. और इधर तो लक्ष्यकी तौर
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