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सरल ज्योतिष
सम्पादक : अरुण कुमार बंसल
सहयोग आचार्य अविनाश सिंह डा. एस. सी. कुरसीजा
डा. विभूति नाथ झा
अखिल भारतीय ज्योतिष संस्था संघ
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Contents
1. Introduction to Horoscope & its Houses .....
............... .... .....
Description of Houses
2. The Predictive Astrology ...........
3-4. Introduction to Planets.
...............................................
5-6. Introduction to Signs of Zodiac
7-8. Astronomy Related to Astrology .....
Introduction to Solar System ...
........
9-10. The Calculations for Astrology ..........
............
11-12. Determination of Ascendant and Twelve Houses ...........
House Cuspal Longitude .........
....................... 13-14. Determination of Positions of Planet .. ...
15-16. Casting of Ascendant & Chalit Horoscopes .........
17-18. Determination of Dashas (Periods).. 19-20. Divisional Charts 23. Sunrise, Sunset, Entrance of Sun in a Sign, No Moon & Full Moon ...... 24. The Different Phases of Moon ............ ............................ 25-26. The Nine Planets in Different Houses ....... The Nine Planets in Different Signs
.............. 27-28. Introduction to Yogas (Planetary Combinations)................. 119 29. The Transit of Planets
.......
125
130
The Good & Bad Positions from Moon in Transit Analysis ............. 30. Sadhe Sati - Good or Bad?
............ 132
31-32. Matching of Horoscope..
............. 143
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सरल ज्योतिष
सम्पादक
अरुण कुमार बंसल
सहयोग आचार्य अविनाश सिंह डा. एस. सी. कुरसीजा डा. विभूति नाथ झा
अखिल भारतीय ज्योतिष संस्था संघ
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सर्वाधिकार
अखिल भारतीय ज्योतिष संस्था संघ
प्रथम संस्करण 2001
मूल्य 100/ रुपये
प्रकाशक
अखिल भारतीय ज्योतिष संघ (पंजी.) एच-1 / ए, हौज़ खास, नयी दिल्ली-110016 फोन : 6569200-01, 6569800-01. ईमेल- mail@futurepointindia.com
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भूमिका
देश में अखिल भारतीय ज्योतिष संस्था संघ (पंजी) का 9 मई, 2001 को निर्माण हुआ। संघ का मुख्य उद्देश्य में देश भर में एक प्रकार का उच्चस्तरीय, विश्वविद्यालयस्तर का पाठ्यक्रम चलना भी है। समय की आवश्यकता को ६ यान में रखते हुए तथा देश भर में कम्प्यूटर का प्रभाव देखते हुए विद्वानों ने पाठ्यक्रम को तैयार किया। इस पाठ्यक्रम में छात्रों की रुचि, उनकी योग्यता तथा उनकी अवस्था का पूरा विश्लेषण किया गया। ज्योतिष के विद्वानों ने इस पर विचार किया और जो सर्वसम्मति से उपयुक्त पाया गया, वह पाठ्यक्रम में रखा गया।
ज्योतिष रत्न के पाठ्क्रम के आधार पर, पाठकों की रुचि, योग्यता तथा अवस्था, देश, काल पात्र को ध्यान में रखते हुए ज्योतिष पर 'सरल ज्योतिष' का निर्माण किया गया। इस पुस्तक में ज्योतिष से संबन्धित खगोल ज्ञान, गणित, ज्योतिष फलित, गोचर, पंचांग का अध्ययन तथा कुण्डली मिलान का प्रारम्भिक ज्ञान के विषयों को लिखा गया है। जान कर पाठक जल्दी से जल्दी ज्योतिष फलित की ओर अग्रसर हो।
कम्प्यूटर की सुविधा मिलने के कारण पाठकों को गणित, खगोल आदि के गहन अध्ययन की आवश्यकता नहीं है। उसे केवल प्रारम्भिक ज्ञान की ही आवश्यकता है। इसलिए पाठ्यक्रम में गणित तथा खगोल का विषय केवल प्रारम्भिक दिया गया है। प्रत्येक पाठक ज्योतिष फलित करना चाहता है। इस रुचि को ध्यान में रखते हुए उसका कुछ विस्तार से वर्णन किया गया है। अधि क ज्ञान के लिए पाठक को आगे की कक्षाओं में भी अध्ययन करना चाहिये जैसे-ज्योतिष भूषण, ज्योतिष प्रभाकर तथा ज्योतिष शास्त्राचार्य । इन पाठक्रमों का अध्ययन करने के बाद पाठक ज्योतिष विषय में प्रारंगत हो जाता है। फिर केवल अभ्यास की ही आवश्यकता रहती है।
दिनांक 1 जुलाई 2001
स्थान -दिल्ली
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1. Introduction to Horoscope & its Houses
पाठ 1. कुण्डली एवं भाव परिचय
जन्मपत्री किसी निश्चित स्थान पर किसी निश्चित् समय के लिए आकाश का नक्शा होती है उस समय जो भचक्र की राशि पूर्व क्षितिज पर उदय होती है उसका संकेत करती है जिसे लग्न की संज्ञा दी जाती है इसे प्रथम भाव के नाम से भी जाना जाता है।
जन्मपत्री के रूपः
भारत के विभिन्न भागों में जन्मपत्री को विभिन्न रूपों से चित्रित किया जाता है जिनमें उत्तर भारतीय दक्षीण भारतीय और बंगाल विधि अधिक प्रचलित है।
चित्र नं 1 भारत के उत्तरी भाग में इसका प्रयोग किया जाता है। सबसे ऊपर मध्य भाग को लग्न अथवा प्रथम भाव की उदयीमान राशि माना जाता है और जन्म समय उदय होने वाली राशि की संख्या जैसे- उदाहरण कुण्डली में सिंह राशि के लिए 5 संख्या को लग्न में लिखा जाता है तदुपरान्त भावों की गिनती घड़ी की विपरित चाल से क्रमशः की जाती है। और राशियों के इसी क्रम में अगले भावों में क्रमशः लिखा जाता है जैसे- कि चित्र नं. 1 में दिखाया गया है।
चित्र नं. 1
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5
/
10
/
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भारत के दक्षिणी भाग में इस प्रचलित जन्मपत्री रूप चित्र नं. 2 के अनुसार है इस रूप में राशियों की स्थिति भावों में स्थिर रखी जाती हैं और जैसा कि चित्र में दिखाया गया है और ऊपर के बायें हाथ के वर्ग मीन राशि लिखी जाती है और घड़ी की चाल के क्रम में मेष वृष मिथुन आदि राशियों शेष वर्गों में लिख दी जाती है और जो लग्न स्पष्ट राशि की उस राशि वर्ग में शब्दो से लिखा जाता है और उस पर लग्न को निशान भी लगा दिया जाता है उसके पश्चात् जन्मसमय ग्रह स्पष्ट सारणी से ग्रहों की जो स्थिति होती उसके अनुसार सम्बन्धित राशि में बैठा दिया जाता है।
चित्र नं. 2
मीन
मेष
वृष मिथुन
कुम्भ
कर्क
मकर
सिंह
धनु | वृश्चिक
तुला | कन्या
चित्र नं. 3 में जन्मपत्री के रूप प्रयोग बंगाल और उसके पड़ोसी क्षेत्र में सामान्यतया किया जाता है। इस रूप में ऊपरी कोष्ठ में मेष राशि लिखी जाती है। और तदुपरान्त घड़ी की विपरीत चाल अनुसार क्रमशः कोष्ठो में वृष, मिथुन राशि आदि लिख दी जाती है जन्मसमय जो लग्न
स्पष्ट राशि होती है, उसे उस राशि वर्ग में शब्दों में लिखा जाता है और उस पर लग्न का निशान भी लगा दिया जाता है इसके पश्चात् जन्म समय ग्रह स्पष्ट सारणी से ग्रहों की जो स्थिति होती है उसके अनुसार सम्बन्धित राशि में बैठा दिया जाता है।
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चित्र नं. 3
वृष मिथुन
मेष - मीन//
कुम्भ
कर्क
मकर
लग्ना
सिंह / कन्या| तुला विश्चिक ब्रह्माण्ड को, कालपुरुष को जिस प्रकार 12 राशियों में बांटा गया है उसी प्रकार काल पुरुष को 12 भावों में भी बांटा गया है। भाव स्थिर है। प्रथम भाव को लग्न कहा जाता है। जातक के जन्म के समय पूर्व में जो राशि उदित होती है उस राशि की संख्या को लग्न या प्रथम में लिखा जाता है। उसके बाद क्रमशः उदय होने वाली राशियों को द्वितीय, तृतीय भाव में लिखा जाता है। भाव पूर्व से उत्तर पश्चिम दिशा में चलते हैं, इसको विपरीत घड़ी गति भी कह सकते हैं। वह ग्रह जो किसी भाव के कार्य को करता है उसे उस भाव का कारक ग्रह कहते हैं। भाव के कार्य को भाव का कारकत्व कहते है।
कारक ग्रह 1. प्रथम भाव 2. द्वितीय भाव 3. तृतीय भाव 4. चतुर्थ भाव 5. पंचम भाव 6. षष्ठ भाव 7. सप्तम भाव 8. अष्टम भाव 9. नवम भाव 10. दशम भाव 11. एकादश भाव 12. द्वादश भाव
तनु भाव सूर्य चन्द्र धन भाव बृहस्पति, बुध सहज भाव मंगल, शनि सुख भाव चन्द्रमा बुध, शुक्र पुत्र भाव बृहस्पति शत्रु भाव मंगल, शनि बु. कलत्र भाव शुक्र आयु भाव रंध्र शनि धर्म, भाग्य, पितृ भाव बृ. सू. कर्म भाव बु.सू.श.- वृ.मं. लाभ भाव बृहस्पति व्यय भाव शनि, शुक्र
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अन्य ज्योतिष विद्वानों ने मत के अन्य कारक भी माने हैं जैसे- प्रथम भाव का कारक सूर्य के साथ चन्द्रमा भी है। द्वितीय भाव का कारक बुध वर्णा पटुता के कारण, तृतीय भाव का शनि-आयु कारक, चतुर्थ भाव का शुक्र-वाहन का कारक, षष्ठ भाव का बुध- मामा का कारक, दशम भाव का मंगल- पराक्रम, तकनीकी शिक्षा, प्रतियोगता का कारक तथा द्वादश भाव का शुक्र सम्भोग का कारक ग्रह भी माना है। ग्रहों के कारकत्व ग्रहों को भी नैसर्गिक कुछ काम सौंपे गये हैं। उनका भी विचार करना आवश्यक है।
सूर्य
आत्मा, अहम्, सहानुभूति प्रभाव, यश, स्वास्थ्य, दाएँ नेत्र, दिन, ऊर्जा, पिता, राजा, राजनीति, चिकित्सा विज्ञान गौरव, पराक्रम का कारण है।
चन्द्रमा मन, रुचि, सम्मान, निद्रा, प्रासन्नता, माता, सत्ता, धन, यात्रा, जल का कारक है।
मंगल शक्ति, साहस, पराक्रम, प्रतियोगता, क्रोध, उत्तेजना, षडयन्त्र, शत्रु, विपक्ष विवाद, शस्त्र, सेनाध्यक्ष, युद्ध दुर्घटना जलना, घाव, भूमि, अचल सम्पत्ति छोटा भाई, चाचा के लड़के, नेता, पुलिस सर्जन, मैकेनिकल इंजीनियर का कारक है।
बुध बुद्धिमता, वाणी पटुता तर्क अभिव्यक्ति, शिक्षा, शिखण, गणित डाकिया, ज्योतिषी, लेखाकार, व्यापार, कमीशन एजेंट, प्रकाशन राजनीति में मध्यवर्ती व्यक्ति (विचोला नृत्य, नाटक, वस्तुओं का मिश्रण पत्तेवाले पेड़, मूल्यवान पत्थरों की परीक्षा मामा, मित्र सम्बन्धि आदि। बृहस्पति विवेक, बुद्धिमता, शिक्षण, शरीर की मांसलता, धार्मिक कार्य ईश्वर के प्रति निष्ठा, बड़ा भाई, पवित्र स्थान, दार्शनिकता, धार्मिक ग्रन्थों का पठन, पाठन, गुरु, अध्यापक, धन बैंक, तीना कम्पनियां , दान देना, परोपकार फलदार वृक्ष, पुत्र आदि।
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शुक्र पति/पत्नी, विवाह, रतिक्रिया, प्रम सम्बन्ध, संगीत, काव्य, इत्र सुगन्ध, घर की सजावट ऐश्वर्य, दूसरों के साथ सहयोग, फूल फूलदार वृक्ष, पौधे सौंदर्य, आखों की रोशनी, आभूषण, जलीय स्थान, सिल्कन कपड़ा, सफेद रंग, वाहन, शयन कक्ष आदि सुख सामग्री आदि । शनि आयु, दुख, रोग, मृत्यु संकट अनादर, गरीबी, आवजीवका, अनैतिक तथा अधार्मिक कार्य, विदेशी भाषा, विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा मेहनत वाले कार्य, कृषीगत व्यवसाय, लोहा, तेल, खनिज पदार्थ, कर्मचारी, सेवक नौकरियां, योरी, क्रूर कार्य, वृद्ध मन्ति, पंगुता, अंग-भंग, लोभ, लालच बिस्तरे पर पड़े रहना, चार दिवाने में बन्द रहना, जेल, हास्पीटल में पड़े रहना, वायु, जोड़ों के दर्द, कठोर वाणी आदि। राहु दादा का कारक ग्रह है। कठोर वाणी, जुआ, भ्रामक तर्क, गतिशीलता, यात्राएं, विजातीय लोग, विदेशी लोग, विष, चोरी, दुष्टता, विधवा, त्वचा की बिमारियां होठ, धार्मिक यात्राएं दर्द आदि। केतु नाना का कारक ग्रह है। दर्द, ज्वर, घाव, शत्रुओं को नुकसान पहुंचाना, तांत्रिक तन्त्र, जादू-टोना, कुत्ता, सींग वाले पशु, बहुरंगी पक्षी, मोक्ष का कारक ग्रह है। अब तक हमने इस अध्याय में भाव, भावों कारक तथा ग्रहों के कारकत्व पढ़े। इनका क्या लाभ है मानो हम चतुर्थ भाव का विश्लेषण कर रहे हैं। चतुर्थ भाव तथा चतुर्थेश पीड़ित है। चतुर्थ भाव वाहन, सुख, अचल सम्पत्ति, भूमि, शिक्षा तथा माता को दर्शाता है, किसको कष्ट होगा या किसके द्वारा कष्ट प्राप्त होगा? इसका निर्णय कारक ग्रह करता है। यदि चतुर्थ भाव तथा भावेश के साथ चन्द्रमा पीड़ित है तो माता को कष्ट, शुक्र पीड़ित है तो वाहन के द्वारा कष्ट, बुध पीड़ित है तो शिक्षा में कष्ट होता है। इस प्रकार घटना का सम्बन्ध भाव, भावेश तथा कारक ग्रह से होता है।
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Description of Houses
भावों की संज्ञाएँ हम जानते हैं कि भाव बारह होते हैं। उन भावों को विभिन्न नामों से जाना जाता है। इस अध्याय में हम उनका परिचय देंगे। जन्म कुण्डली में लग्न केन्द्र बिन्दु होता है। महर्षियों ने जीवन को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को प्राप्त करने का साधन माना है। इसलिए कुण्डली को भी धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के तीन परिराशि में बांटा है।
काम
धर्म
लग्न 5 9 भाव अर्थ
26 10 भाव
3 7 11 भाव मोक्ष
48 12 भाव केन्द्र भाव 147 7 10 भाव त्रिकोण भाव
9 भाव पणफर भाव 258
11 भाव अपोक्लिम भाव 369 12 भाव चतुरस्र भाव
8 भाव उपचय भाव 3 6 10 11 भाव अनुपचय भाव 1 2 4 5 7 8 त्रिकया दुष्ट भाव 6 8 12 भाव । पतित भाव 6 12 भाव मारक भाव
7 भाव आयु भाव 38 भाव योग कारक ग्रह
9
12 भाव
यदि कोई ग्रह केन्द्र तथा त्रिकोण का स्वामी होता है तो वह ग्रह योगकारक कहलाता है जैसे (क) वृष लग्न शनि 9 तथा 10 भाव का स्वामी (ख) तुला लग्न शनि 4 तथा 5 भाव का स्वामी
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(ग) कर्क लग्न मंगल 5 तथा 10 भाव का स्वामी (घ) सिंह लग्न मंगल 4 तथा 9 भाव का स्वामी (ड) मकर लग्न शुक्र 5 तथा 10 भाव का स्वामी (च) कुम्भ लग्न शुक्र 4 तथा 9 भाव का स्वामी केन्द्राधिपति दोष
जब कोई शुभ ग्रह जैसे बृहस्पति, शुक्र, शुभ बुध, शुभ चन्द्रमा केन्द्र का स्वामी हो तो उसमें केन्द्रधिपति दोष आ जाता है। जब शुभ ग्रह केन्द्र का स्वामी होता है तो शुभ ग्रह अपना शुभ फल देने में असमर्थ हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह अशुभ फल देता है। शुभफल नहीं देता वह सम हो जाता है। सम ग्रह जिस भाव में स्थित होता है या युति या दृष्टि बनाता है या उसकी दूसरी राशि जिस भाव में पड़ती है उसके अनुसार फल देता है। अशुभ ग्रह केन्द्र के स्वामी होकर अशुभ फल नहीं देते। वे भी सम हो जाते
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2. The Predictive Astrology
पाठ-2. ज्योतिष फलित फलित भारतीय ज्योतिष फलित का आधार ग्रह, राशियां तथा भाव है। इसलिये ग्रहों, राशियों तथा भावों की संज्ञाओं का ज्ञान आवश्यक हो जाता है। भारतीय ज्योतिष में सात ग्रह तथा दो छाया ग्रहों को स्थान प्राप्त है। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि सात ग्रह हैं तथा राहु केतु छाया ग्रह हैं। ग्रहों के गुण धर्म सूर्य-ज्योतिषीय दृष्टि से सूर्य पित प्रकृति, लम्बा, अल्प बाल, क्रूर ग्रह, तांबे जैसा रंग, राजसी, दार्शनिक, पूंजी उधार देनेवाला, दृढ़ इच्छा शक्ति, पद का प्रतीक है। ईंधन, बिजली, चर्म, ऊन सूखा अनाज, सोना, विष, औषधियाँ, चिकित्सक, राजा अधिकारी वर्ग तथा गेहू सूर्य के अधीन है। सूर्य बीजों का विकास करता है। सूर्य पिता का प्रतीक है। यह ब्रह्माण्ड की आत्मा, रागों से बचाने की शक्ति, शेर तथा भगवान शिव का भक्त है। कांटों वाले पेड़, स्वर्ण राजदूत, नेत्र का प्रतीक है। पुरुष ग्रह है। सर्य के द्वारा शासित स्थान है-खुले स्थान, पर्वत, वन प्रमुख शहर, पूजा के स्थान, न्यायालय, पूर्व दिशा, ऐसा स्थान जहां पानी न हो। शरीर के जो भाग शासित हैं- सिर, पेट, हड्डियां, हृदय, नेत्र, मस्तिष्क। सूर्य के द्वारा रोग- उच्चरक्त चाप, तीव्रज्वर, पेट तथा नेत्र संबंधी रोग, पितज बिमारियां तथा हृदय रोग देता है। जब सूर्य पीड़ित होता है तथा जलीय राशियों में स्थित होता है तो क्षय रोग, पेचिश रोग देता है। यह क्षत्रीय वर्ण, अग्नि तत्व, पुरुष लिंग तथा पूर्व दिशा का प्रतिनिधि ग्रह है। चन्द्रमा- इसका शरीर स्थूल है। घुघराले बाल, गोरा रंग तथा सुंदर आंखों
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का प्रतीक है। चन्द्रमा मन, माता, भ्रमण को रूची, रस, अस्थिर मन का कारक ग्रह है। रक्त प्रवाह का प्रतीक है। जलीय तत्व, झील, समुद्र, नदियां, कपड़ा, दूध, शहद, मोती, मीठी वस्तुएं, वषी चावल, जौ, दुर्गा देवी तथा कृषि का प्रतीक है।
शरीर के अंग रक्त नसे, मोटापा, मस्तिष्क, मन, यूरेटर, वास्ती छाती, अंडाशय तथा प्रजनन का कारक ग्रह है ।
रोग- रतिज रोग (Sexual diseases) सांस की बिमारी त्वचा की बिमारियां, अपच मन्दाग्नि आदि विमारियों का कारक ग्रह है। यह कफ तथा वायु का कारक ग्रह है।
यह वैश्य, वर्ण, जलीय तत्व, स्त्रीलिंग तथा उत्तर-पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह है।
मंगल- वलिष्ठ बाजु, पतली कमर घुंघराले तथा चमकीले बाल, अग्निमय आंखें, क्रूर प्रकृति, अस्थिर बुद्धि का कारक ग्रह है । यह स्वतन्त्र प्रकृति, दुराग्रही, साहसी युवा ग्रह है । मंगल को अशुभ ग्रह कहते हैं। यह छोटे भाई, पुरुष ग्रह, फौजी प्रकृति, कामर्स, सड़ी हुई वस्तुएं, हवाई यात्राएं, नेता तथा बुनाई को दर्शाता है। मंगल सेनाध्यक्ष है गर्म तथा अग्नि भय है, तर्क, रसोई, इंजन, अग्नि स्थलों का प्रतिनिधि है । रात्रि में काम कर वाले कर्मचारी, हत्या करने वाले, षडयन्त्र, शत्रु मजदूरों का नेता का कारक ग्रह है।
पदार्थ - तांबा, धातु, सोना, मूंगा, हथियार, भूमि, तम्बाकू, पर शासन करता है। शरीर के अंग रक्त पेशी, पित्त, मस्तिष्क, सिर, नाक, कान आदि।
रोग - रक्त संबंधी रोग, उच्च या निम्न रक्तचाप, रक्तस्राव, दुर्घटनाएं, चोरियों, अग्नि से जलना, गर्भपात आदि। इसका क्षत्रिय वर्ण, पुरुष लिंग, अग्नि तत्व, दक्षिण दिशा का प्रतिनिधि ग्रह है।
बुध
बुध यदि शुभ ग्रहों के साथ संबंधित हो तो शुभ, अशुभ ग्रहों के साथ संबंधित हो तो अशुभ होता है। इसका अपना कोई प्रभाव नहीं होता जिसके साथ होता
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है वैसा ही हो जाता है। बुध हास्य विनोद का प्रतिनिधि ग्रह है बहुत बोलता है। उसके पास विविध विषयों पर बहुत सारी सूचनाएं होती हैं। यह राजकुमार है। यह मितव्ययी, हरे वर्ण का पतला, व्यापारिक प्रकृति वाला, जनता की बात बोलने वाला यह कामर्स, स्कूल, खेल का मैदान, पार्क, जुआघर, बरबादी कर खुश होने वाला ग्रह है।
वस्तुएं
हरा चना, पन्ना, तिलहन, खाद्य तेल, पीतल, मिश्रित धातुएं क्लर्क, काव्य, शिक्षा, लेखन प्रतिभा व्यापारी का प्रतिनिधि है।
शरीर के अंग
मस्तिष्क, जिह्वा, स्नायु कंठ ग्रंथि त्वचा वाक् शक्ति
रोग
स्मरण शक्ति की हानि, त्वचा की बिमारियाँ दौरे, चेचक, कफ, बात पित, उन्माद, एवं गूंगापन। यह वैश्य वर्ण, नपुंसक, सम तत्व तथा उत्तर दिशा का प्रतिनिधि है।
बृहस्पति
निकला होता है।
I
इसकी आंखे तथा बाल भूरे कद लम्बा होता है। पेट आगे यह स्थूलकाय ऊँची और भारी आवाज का स्वामी होता है वह पुरुष वत् शुभ, पीला रंग, पुरुष ग्रह है सच्चाई, दार्शनिक प्रत्येक प्रकार के विज्ञान में रुचि रखने वाला धार्मिक भावभक्ति वादी ग्रह है। विवेक का मूल ग्रह है। यह धर्म गुरु ग्रह है। मन्त्री, सलाहकार, बैंक बीमा कम्पनियां, आकाश तत्व, धर्म गन्थ और पारे का प्रतिनिधि है । पुत्र का कारक है। वस्तुएं- धन, बैंक, पीली वस्तुएं सोना, पुखराज, चने की दाल, धार्मिक ग्रन्थ का कारक ग्रह है।
शरीर के अंग
विवेक, शक्ति, उदर, जिगर, जंघा का कारक है।
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रोग
जिगर की बिमारियां, गुर्दे की बिमारियां, जलोदर, कारवंकल, पाचन क्रिया के रोग । वसा के द्वारा उत्पन्न रोग ।
यह ब्राह्मण वर्ण, पुरुष लिंग, अग्नि तत्व तथा उत्तर-पूर्व दिशा का प्रतिनिधि है।
शुक्र
इसके काले घुंघराले बाल, विशाल शरीर, कालिमा लिए रंग, चौड़ी आंखे, सुन्दर चेहरा, नक्श का प्रतिनिधि है। शुक्राणाओं का कारक ग्रह है तथा रति का शौकिन है प्रेम सम्बन्ध आकर्षण व्यक्तित्व का स्वामी है जालीय तत्व, पत्नी, नृत्य कदो, ऐन्द्रिय सुख, वाहन, ड्रामा, अभिनय, इत्र, सुगन्धि, सजावट आखों, सिल्क, संगीत का कारक है।
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वस्तुएं
इत्र, सजावट की वस्तुएं, सिल्क संगीत वाद्य यंत्र, ऐश्वर्य के साधन वाहन का प्रतीक है। मीठी वस्तुएं
शरीर के अंग- रति क्रिया के अंग लिंग, मूलाशय, बाल, शुक्र कीटाणु, रोगमधुमेह, रतिज संबधि रोग, गुप्त रोग, यौन असमर्थता, आंखो की कमजोरी, सूंघने की शक्ति कम श्वेत प्रदर वीर्य पात आदि।
यह ब्राह्मण वर्ण, जलतत्व स्त्री लिंग तथा दक्षिण पूर्व का प्रतिनिधि है ।
शनि
जातक रूखे-सूखे बाल लम्बे बड़े अंग बड़े दांत तथा वृद्ध शरीर काला रंग का दिखता है । यह अशुभ ग्रह है । मन्द गति ग्रह है। नैतिक पतन का द्योतक है। वायु सम्बन्धि बिमारियों का प्रतिनिधि है यह दुख, निराशा तथा जुए का प्रतीक है। गन्दे स्थान, अंधेरे स्थानों का कारक ग्रह है।
वस्तुएं
लोहा, नीलम, दाह संस्कार गृहों कब्रिस्तान, जेल, बिस्तरे पर लिटाएं रखना, पुरानी बिमारियाँ लाइलाज बिमारियां, काला चना, भांग, तेल, वृद्ध अवस्था का स्वामी है।
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शरीर के अंग- दांत, वात, कलाई, पेशियां, पीठ, पैर।
रोग- सारे, पुराने, लाइलाज रोग, दांत, सांस, क्षय, वातज, गुदा के रोग, व्रण, जख्म दर्द जोड़ों का यह शूद्र वर्ण, वायु तत्व, नपुंसक तथा पश्चिमी स्वामी है।
राहु
यह छाया ग्रह है परन्तु प्राणियों पर इसका पूरा प्रभाव रहता है। यह अशुभ ग्रह है। स्त्रियोचित है। भ्रष्ट संक्रामक रोगों का प्रतीक है। यह शनि की ही तरह अशुभ है। यह स्त्रीलिंग ग्रह है। यह विदेश यात्रा का प्रतीक है। यह भौतिक वादी ग्रह है। यह षडयन्त्र कारी है। त्वचा तथा रक्त रोगों पर इसका अधिपत्य है। गोमेद इसका रत्न है।
शरीर के अंग- होठ, त्वचा, रक्तरोग, कुष्ठ रोग, श्वेत रोग, चैचक हैजा संक्रामक रोग।
केतु
यह मंगल के समान ग्रह है। अचानक होने वाली घटनाओं का कारक है। इसका रंग धुएँ के समान चितकबरा रंग है। यह आंत्रिक जोड़ो, चेचक, हैजा तथा संक्रामक रोगों का प्रतिनिधि ग्रह है। यह अशुभ ग्रह है पर धार्मिक प्रकृति का ग्रह है। साम्प्रदायिक कट्टर पन्थी, घमंडी स्वार्थी तथा तंत्र विद्या का प्रतिनिधि ग्रह है। यह भी राहु की तरह दक्षिण पश्चिम दिशा का स्वामी है। लहसुनिया इसका रत्न है।
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3-4. Introduction to Planets
पाठ- 3-4. ग्रह परिचय शुभ-पापी ग्रह चन्द्रमा, बुध, शुक्र और गुरु ये क्रम से अधिकाधिक शुभ माने गये हैं, अर्थात् चन्द्रमा से बुध, बुध से शुक्र और शुक्र से गुरु अधिक शुभ हैं। सूर्य, मंगल, शनि व राहु ये क्रम से अधिकाधिक पापी ग्रह कहे गये हैं, अर्थात् सूर्य से मंगल, मंगल से शनि और शनि से राहु अधिक पापी ग्रह हैं।
कर्क
बुध
मीन
बृहस्पति
शुक्र
उच्च-नीच ग्रह ग्रह राशि उच्चांश ग्रह राशि नीच्चांश सूर्य मेष
सूर्य तुला 10 चन्द्रमा वृष 3 चन्द्रमा वृश्चिक 3 मंगल मकर 28
मंगल बुध कन्या बृहस्पति कर्क
मकर शुक्र
कन्या 27 शनि
शनि मेष 20 राहु मिथुन 15
धनु 15 केतु धनु
केतु मिथुन 15 ग्रहों के उच्च-नीच बोध से कुण्डली का फलादेश स्पष्ट रूप से किया जा सकता है। उच्च का ग्रह शुभ फल करता है। ग्रहों की मैत्री-शत्रुता ग्रहों में पांच प्रकार की मित्रता-शत्रुता मानी गई है, अधिमित्र, मित्र, सम, शत्रु और अधिशत्रु। कुण्डली में ग्रह मित्र के गृह में स्थित हो तो शुभ और शत्रु के गृह में हो तो अशुभ फल देता है।
मीन तुला
20
राहु
15
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ग्रहों की मैत्री आदि तालिका (नैसर्गिक मैत्री)
सम ग्रह
शत्रु ग्रह
ग्रह सूर्य
मित्र ग्रह चं., म., बृ.
चन्द्रमा
शु., श., रा. रा., के. श., शु. च वृ.
मंगल
बु. श., शु., बृ., म. बु., रा., के. म. श. के. रा., श., के. बृ., म. के.
सू., चं., बृ. सू, शु. रा. सू, चं., म.
बुध
बृहस्पति
शुक्र
real low4
बु., श., रा.,
सू.. चं.
शनि
बृ. के.
बु. शु. रा. बु., शु.. श.
सू. मं. च. सू., म., चं.
राहु
real
बृ., के.
केतु
शु., श., बु.
बृ., रा.
सू., मं., चं.
तात्कालिक मैत्री
निसर्ग मैत्री के अलावा तात्कालिक मैत्री का भी विचार करना पड़ता है। दोनों मित्रामित्रता (नैसर्गिक और तात्कालिक) के आधार पर पंचधा मैत्रीचक्र बनता है। इसके द्वारा ही ग्रहों के पांच प्रकार- अधिमित्र, मित्र, सम, शत्रु या अधिशत्रु के सम्बन्ध बनते हैं। प्रत्येक ग्रह अपने से दूसरे, तीसरे, चौथे, दशवें, ग्यारहवें और बारहवें भाव में बैठे ग्रह का तात्कालिक मित्र होता है। प्रत्येक ग्रह अपने साथ वाले पांचवें, छठे, सातवें, आठवें और नवें भाव में बैठे ग्रह का तात्कालिक शत्रु होता है। नैसर्गिक और तात्कालिक मित्रामित्रता का समन्वय करके पंचधा मैत्री चक्र बनाया जाता है।
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ग्रहों का अंग - विन्यास
जिस प्रकार द्वादश राशियां काल - पुरुष का अंग मानी गई हैं अर्थात् काल पुरुष के देह में राशियों का विन्यास किया गया है, वैसे ही ग्रहों का विन्यास भी किया जाता है प्रश्नकाल गोचर अथवा जन्म समय में जब ग्रह प्रतिकूल फलदाता होता है तो वह काल पुरुष के उसी अंग में अपने अशुभ फल के कारण पीड़ा पहुंचाता है ।
काल पुरुष के सिर और मुख पर ग्रहपति व सूर्य का हृदय और कंठ पर चन्द्रमा का पेट और पीठ पर मंगल का, हाथों और पांवों पर बुध का बस्ति पर गुरु का, गुह्य स्थान पर शुक्र का तथा जांघों पर शनि का अधिकार होता है। आत्मादि
काल पुरुष की आत्मा सूर्य और मन चन्द्रमा है। मंगल बल है तो बुध वाणी । बृहस्पति सुख और ज्ञान है शुक्र कामवासना है तो शनि दुःख है ज्योतिष में सूर्य चन्द्र को राजा, गुरु-शुक्र को मन्त्री, मंगल को सेनापति, बुध को युवराज, और शनि को भृत्य कहा है।
वर्ण (रंग)
सूर्य लाल-श्याम मिले-जुले रंगों का चन्द्रमा सफेद वर्ण का मंगल लाल वर्ण का. बुध दूब की भांति हरे रंग का बृहस्पति गौर-पीत रंग का शुक्र श्वेत रंग का, शनि काले रंग का, राहु नीले रंग का तथा केतु विचित्र वर्ण का है।
उपरोक्त कथन जातक के आत्मा व मन आदि के बारे में पता देता है। इनके कारक बलवान् होंगे तो ये भी पुष्ट होंगे और यदि कारक निर्बल अवस्था में होंगे तो ये भी निर्बल होंगे। वर्ण प्रश्न में नष्ट द्रव्यादि, चोर का रंग-रूप आदि तथा कुण्डली में जातक के रंग-रूप आदि का पता ग्रह के वर्ण से चलता है।
ग्रहों की दिशा
सूर्य पूर्व दिशा का शनि पश्चिम का बुध उत्तर का मंगल दक्षिण का शुक्र अग्नि कोण का राहु केतु नैर्ऋत्य का चन्द्रमा वायव्य का और गुरु ईशान दिशा का स्वामी है।
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पूर्व
सूर्य
शुक्र
उत्तर बुध
- मंगल दक्षिण
राहु केतु
चंद्र
शनि
पश्चिम
ग्रहों की बालादि अवस्था ग्रहों के अंश एवं राशि के अनुसार इस प्रकार अवस्थाएं बनती हैं। विषम राशियां
सम राशियां मेष. मिथुन, सिंह,
वृष, कर्क, कन्या, तुला, धनु, एवं कुम्भ
वृश्चिक मकर एवंमीन (1,3,5,7,9,11)
(2,4,6,8,10,12) विषम राशियां है।
सम राशियां है।
अश
अवस्था
अश
00°00' 06°00' 06°00' 12°00' 12°00' 18°00' 18°00' 24°00' 24°00' 30°00'
बाल कुमार युवावस्था वृद्धावस्था मृतक
24°00' 18°00' 12°00' 06°00' 00°00'
30°00' 24°00' 18°00' 12°00' 06°00'
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ग्रहों की अवस्था शास्त्रकारों ने ग्रहों की दस अवस्थाएं मानी हैं, परन्तु किसी-किसी आचार्य ने नौ अवस्थाएं भी मानी हैं। मूल त्रिकोण राशि में अपनी उच्च राशि में ग्रह प्रदीप्तावस्था में होता है। अपने ग्रह में (स्वगृही) हो तो स्वस्थ, मित्र के गृह में हो तो मुदित, शुभ ग्रह के वर्ग में हो तो शान्त, दीप्त किरणों से युक्त हो तो शक्त, ग्रहों से युद्ध में पराजित हो तो पीड़ित, शत्रुक्षेत्रीय (शत्रु राशि में) हो तो दीन, पाप ग्रह के वर्ण में हो तो खल, अपनी नीच राशि में हो तो भीत और अस्त ग्रह को विकल कहा जाता है। अपने मित्र ग्रहों की राशि में स्थित ग्रहों की संज्ञा 'बाल' होती है। मूलत्रिकोण में स्थित ग्रह की संज्ञा'कुमार' है। ग्रह के अपनी उच्च राशि में स्थित होने से उसकी 'युवराज' संज्ञा होती है और शत्रु की राशि में स्थित होने से ग्रहों की संज्ञा 'वृद्ध' मानी गई है। ग्रह अपनी अवस्था के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। 'बालक' संज्ञा वाला ग्रह सुख देता है। 'कुमार' हो तो अच्छा आचरण प्रदान करता है। यौवनावस्था में राज्याधिकार दिलाता है और वृद्धावस्था में हो तो ऋण या रोग आदि देता
है।
ग्रहों के सम्बन्ध
ग्रहों के चार प्रकार के सम्बन्ध माने हैं। किसी-किसी आचार्य ने पांच प्रकार के सम्बन्ध भी कहे हैं। 1. दो ग्रहों में परस्पर राशि परिवर्तन का योग हो, अर्थात् 'क' ग्रह 'ख' ग्रह की राशि में बैठा हो और 'ख' ग्रह 'क' ग्रह की राशि में बैठा हो तो यह अति उत्तम सम्बन्ध होता है।
2. जब दो ग्रह परस्पर एक-दूसरे को देख रहे हों अर्थात् 'क' ग्रह 'ख' ग्रह हो देख रहा हो और 'ख' ग्रह 'क' ग्रह को देख रहा हो तो यह मध्यम सम्बन्ध माना जाता है। 3. दोनों ग्रहों में से एक ग्रह दूसरे की राशि में बैठा हो और दोनों में से एक-दूसरे ग्रह को देखता हो तो यह तीसरा सम्बन्ध माना जाता है।
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4. दोनों ग्रह एक ही राशि में संयुक्त होकर बैठे हों तो यह चौथे प्रकार का सम्बन्ध होता है और अधम कहा गया है। 5. जब दो ग्रह एक-दूसरे से त्रिकोण (पांचवें-नवें) स्थान पर स्थित हों तो यह मतान्तर से पांचवां सम्बन्ध होता है। ग्रहों की दृष्टि सभी ग्रह अपने स्थान से सातवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं लेकिन मंगल अपने स्थान से चौथे और आठवें स्थान को, गुरु अपने स्थान से पांचवें और नवें स्थान को व शनि अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है। कुछ प्राचीन आचार्यों ने राहु केतु की दृष्टि को भी मान्यता दी है, लेकिन महर्षि पराशर ने इनकी कोई दृष्टि नहीं मानी है। अन्य आचार्यों के मत से राहु अपने स्थान से सातवें, पांचवें और नवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है। ऐसे ही केतु की भी दृष्टि होती है। प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को एक पाद दृष्टि से, पांचवें और नवें को दो पाद दृष्टि से तथा चौथे और आठवें स्थान को तीन पाद दृष्टि से देखता है। सूर्य और मंगल की ऊर्ध्व दृष्टि है, बुध और शुक्र की तिरछी, चन्द्रमा और गुरु की बराबर (सम) तथा राहु और शनि की नीची दृष्टि है। भावों के स्थिर कारक ग्रह सूर्य लग्न, धर्म और कर्म भाव का, चंद्रमा सुख भाव का, मंगल सहज और शत्रु भाव का, बुध सुख और कर्म भाव का, गुरु धन, पुत्र, धर्म, कर्म और आय भाव का, शुक्र स्त्री भाव का, शनि शत्रु, मृत्यु, कर्म और व्यय भाव का कारक ग्रह है।
आत्मादि चर कारक सूर्यादि नौ ग्रहों में जो ग्रह स्पष्ट तुल्य अंशों में अधिक हो, अर्थात् अधिक अंश वाला हो, वह आत्मकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह अमात्यकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह भ्रातृकारक, उससे कम अंशों वाला मातृकारक, उससे कम
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अंशों वाला पितृकारक, उससे कम अंशों वाला पुत्रकारक, उससे कम अंशों वाला जातिकारक तथा उससे कम अंशों वाला स्त्रीकारक कहा गया है। ग्रहों के लोक
पूर्व में जातक किस लोक में था और मृत्यु के पश्चात् कहां जायेगा आदि विचार के लिए ग्रहों के लोक का उपयोग होता है। स्वर्ग का अधिपति गुरु, पितृलोक के शुक्र और चन्द्रमा, पाताललोक का बुध, मृत्युलोक के मंगल और सूर्य तथा नरक का अधिपति शनि है।
ग्रह मैत्री ग्रहों के बलाबल का निर्णय करने के लिए पंचधा मैत्री चक्र बनाया जाता है। पंचधा मैत्री का आधार है निसर्ग मैत्री एवं तात्कालिक मैत्री। तात्कालिक मैत्री जन्मकुण्डली के आधार पर तै की जाती है। ग्रहों की पांच प्रकार की स्थिति को बतलाने वाला चक्र पंचधा मैत्री चक्र कहलाता है। अतिमित्र-मित्र-सम-शत्रु एवं अतिशत्रु। नीचे मैत्री चक्र दिया जा रहा है।
निसर्ग मैत्री चक्र नाम ग्रह मित्र
सम शत्रु चं., म., बृ.
शु., श., रा.
सूर्य
चन्द्र
म., बृ.. शु.. श.
रा.
मंगल
बुध
सू., चं., मं
श., रा.
बु., शु.
बृहस्पति शुक्र शनि
बु., शु., रा. बु., शु., श.
Jhalroll
सू., चं., मं. सू., चं., म.
राहु
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निसर्ग मैत्री चक्र में• सूर्य के चं. मं. बृ. मित्र, बु. सम एवं शु. श. रा. शत्रु हैं। • चन्द्र के सू. बु. मित्र, मं. बृ. शु. श. सम एवं रा. शत्रु हैं। • मंगल के चं. सू. बृ. मित्र, शु श. सम एवं बु. रा. शत्रु हैं। • बुध के सू. शु. रा. मित्र, श. मं. सम एवं चं. बृ. शत्रु हैं। • बृहस्पति के सू. चं. मं मित्र, श. रा. सम एवं बु. शू. शत्रु हैं। • शुक्र के बु. श. रा. मित्र, बृ. सम एवं सू. च. म. शत्रु हैं। • शनि के बु. शु. रा. मित्र, बृ. सम एवं सू. चं. शत्रु हैं। • राहु के बु. शु. श. मित्र, बृ. सम एवं सू. चं. म. शत्रु हैं। तात्कालिक मैत्री:- ग्रह अपने स्थान्न से दूसरे, तीसरे, चौथे, दशवें, ग्यारहवें एवं बारहवें स्थान में स्थित ग्रह को अपना तात्कालिक मित्र समझता है तथा स्थानगत ग्रह को शत्रु। निसर्ग मैत्री और तात्कालिक मैत्री के आधार पर पंचधा मैत्री चक्र बनाया जाता है। पंचधा मैत्री चक्र में पांच प्रकार की स्थितियां होती हैं अतिमित्र, मित्र, सम, शत्रु, अतिशत्रु। जब कोई ग्रह निसर्ग मैत्री में भी मित्र और तात्कालिक स्थिति में भी मित्र हो तो पंचधा मैत्री में वह अतिमित्र होता है। निसर्ग मैत्री में सम
और तात्कालिक मैत्री में शत्रु हो तो शत्रु माना जाता है। निसर्ग मैत्री में शत्रु हो तथा तात्कालिक स्थिति में भी शत्रु हो तो अतिशत्रु माना जाता है। आगे हम उदाहरण कुण्डली का पंचधा मैत्री चक्र बनाते हैं।
___ पंचधा मैत्री चक्र
अतिशत्रु
ग्रह अतिमित्र मित्र सम शत्रु सूर्य मं.. -- शु..श..च. बु. चन्द्र -- बृ.म.श..शु. --- सू..बु. मंगल सू.चं.
बृ..बु..रा. श. बुध शु.
सू,रा.,बृ. -- बृहस्पति सू., चं.
म.,बु. श. शुक्र बु.रा.
श..सू.म.चं. बृ. शनि बु.रा.
शु..सू..चं. बृ. राहु शु..श.
बु.मं. बृ.
श.मं.
।
।
।
सू..चं.
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पंचधा मैत्री के आधार पर ग्रहों का सप्त वर्गी बल साधन किया जाता है। पंचधा मैत्री के अनुसार अतिमित्र के ग्रह में ग्रह का बल 22 कला30 विकला होगा। मित्र के घर में 15 कला बल सम के स्थान में 7 कला 30 विकला. शत्र के स्थान में 3 कला 45 विकला अतिशत्रु के स्थान में 1 कला 52 विकला बल, अपने ही भाव में 30 कला बल, मूल त्रिकोण राशि में 45 कला बल और उच्चराशि में 60 कला बल मिलता है।
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5-6. Introduction to Signs ofZodiac
भारम्भ स्वामी
शुक्र
पाठ-5-6. राशि परिचय भारतीय ज्योतिष में भचक्र का प्रथम बिन्दु अश्विनी नक्षत्र से लिया जाता है। इस प्रथम बिन्दु से भचक्र को 12 भागों में बांटा जाता है। इस प्रकार प्रत्येक राशि का कोणीय मान 30° होता है। 12 राशियों के नाम और उसके स्वामी (वे ग्रह जिन्हें इन राशियों का स्वामी कहा जाता है) निम्नलिखित है। # अंग्रेजी हिन्दी चिह्न राशि आरम्भ स्वामी 1 ARIES मेष
+ मंगल 2 TAURUS वृष ४ 3 GEMINI मिथुन I 60+ बुध । 4 CANCER कर्क : 90°+ चन्द्रमा 5 IEO सिंह
120+ सूर्य । 6 VIRGO कन्या mm 150+ बुध 7 LIBRA तुला - 180+ शुक्र 8 SCORPIO वृश्चिक m.
मंगल 9 SAGITTARIUS धनु - 240+ बृहस्पति 10 CAPRICORN मकर 8 270+ शनि । 11 AQUARIUS कुम्भ
300+ शनि 12 PISCES मीन
330+ बृहस्पति
210+
राशियों के गुण धर्म
मेष
रत्नों के रखने का स्थान, धातु, अग्नि, खनिज पदार्थ, रक्त (लाल) वर्ण, पाप राशि अच्छी व्यावहारिकता, मिलनसार, तुनुक मिजाज, झूठ बोलना, पृष्ठोदय, पुरुष, क्रूर राशि, अग्नि तत्व, रजो गुण, दिनबली होती है।
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वृष
वन अथवा खेत, जहां पशु बान्धे जाते हैं जलपूर्ण खेत जहां धान पैदा होती है। शुभ राशि, स्त्रि राशि, क्षमाशील, चौड़ी जांघे, बड़ा चेहरा, तुनुक मिज़ाज जब किसी बात पर क्रोधित हो जाए, व्यापारी वर्ग पृष्ठोदय तथा रात्री बली होती है। मिथुन जहां नर्तक, संगीतकार, कलाकार, वेश्याएं रहती है, उनका प्रतिनिधित्व करती है। शयनकक्ष, मनोरंजन करना, ताश खेलना आदि स्थानों की स्वामी है। यह उभयोदय राशि, धुंघराले बाल, काले ओष्ठ, अन्य व्यक्तियों को समझने में चतुर, उन्नत नाक, संगीत में रूची, गृह कार्य में रूची, पतली लम्बी उंगलियां, मध्य दिन में बली रहती है।
कर्क
जलीय खेत जहां धान पैदा होता है। कुएं तालाब, नदी के किनारे जहां पौधों को अधिकता होती है, स्थानों की स्थायी है। चलने में तेज धन का शौकीन, शुभ राशि, मिलनसार प्रकृति निःस्वार्थ, दूसरों के लिए बलिदान करने वाला जातक होता है। सिंह घने वनों के स्थान, पर्वत, टीले, किले, दिन बली शीर्षोदय, निवास-गुफाएं लम्बे गाल, चौड़े चेहरा, क्रूर राशि, पुरुष राशि, दिन बली होती है। कन्या स्त्रि राशि, मनोरंजन के स्थान, चारागाह, शुभ राशि, मध्यम कद शीर्षोदय राशि, पौधों वाली भूमि, कन्धों तथा भुजाओं का झुकना सच्चा दयालुता, काले बाल, अच्छी मानसिक योग्यता, विधि अनुसार कार्य करने वाला, तर्कशील होती है।
तुला
व्यापारी, दुकान, अनाज का स्थान व्यापारी का घर, वर्ण काला, मध्यम कद शीर्षोदय, व्यापारिक स्थान जवानी में पतला शरीर परन्तु मोटापे की ओर झुकाव, गोलचेहरा, पाप राशि का होता है।
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वृश्चिक छेद या बिल वाला स्थान, विष, शीर्षोदय राशि चौड़ी, फैली हुई आंखें तथा छाती। बाल्यावस्था में बिमार क्रूर कामों में रूची, साहसी, सहनशक्ति, प्रबन्धक, शुभ राशि होती है।
धनु वह स्थान जहां घोड़े, हाथी या रथ (मोटर कार) रखे जाते हैं। राजा का निवास, पाप राशि, पुरुष राशि, दिन बली, पृष्ठोदय, लम्बोत्तरा चेहरा और गर्दन कान तथा नाक बड़े, अत्यधिक उदार अच्छे दिल वाला, भौतिक संस्कृति को पसंद करने वाला, यात्रा-पसंद, उंची आवाज आदि लक्षण के होते हैं।
मकर
जलीय स्थान, बहुत मात्रा में पानी वाले स्थान, नदी के किनारे, पृष्ठोदय राशि, निचले अंगों में कमजोरी, बलवान होते हैं।
कुम्भ
वे स्थान जहां पानी सूख जाता है। जहां शराब बनता है, जहां पक्षी रहते हैं। जहां घड़े रखे जाते हैं। पाप राशि, दिन बली, शीर्षोदय, देखने में सुंदर, प्रतिभावान, क्षमाशील स्वभाव का होता है। मीन
धार्मिक, पवित्र स्थान, पवित्र नदियों का स्थान, मंदिर, तीर्थ स्थान, समुद्र आदि स्थान कद छोटा, उभयोदय सुगठित शरीर, पत्नी को चाहने वाला, शिक्षित विद्वान, कम बोलने वाला होता है। राशियों की प्रकृति
चर- चर स्थिर एवं द्विस्वभाव होता है। मेष, कर्क, तुला, मकर को चर कहते
स्थिर-वृष, सिंह, वृश्चिक, कुम्भ को स्थिर कहते हैं। द्विस्वभाव- मिथुन, कन्या, धनु, मीन को द्विस्वभाव कहते हैं। तत्व- अग्नि, पृथ्वी, वायु एवं जल होता है।
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अग्नि-मेष, सिंह एवं धनु अग्नि तत्त्व वाला होता है। पृथ्वी-वृष, कन्या एवं मकर पृथ्वी तत्त्व वाला होता है। वायु- मिथुन, तुला एवं कुम्भ वायु तत्त्व वाला होता है। जल- कर्क, वृश्चिक एवं मीन जल तत्त्व वाला होता है। लिंग पुरुष लिंग-मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धन एवं कुम्भ राशि पुरुष होता है। स्त्री लिंग- वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर एवं मीन राशि स्त्री होती है।
प्रकृति
पित, वायु, मिश्रित एवं कफ प्रकृति होती है। पित- मेष, सिंह एवं धन पित संज्ञक होता है। वायु-वृष, कन्या एवं मकर वायु संज्ञक होता है। मिश्रित- मिथुन, तुला एवं कुम्भ मिश्रित संज्ञक होता है। कफ- कर्क, वृश्चिक एवं मीन कफ संज्ञक होता है।
वर्ण
क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं ब्राह्मण वर्ण होता है। क्षत्रिय-मेष, सिंह, धन (अधिकारी वर्ग) वैश्य-वृष, कन्या, मकर (व्यापारी वर्ग)
शुद्र- मिथुन, तुला, कुम्भ (कर्मचारी वर्ग)
ब्राह्मण-कर्क, वृश्चिक, मीन (अध्यापक, प्रचारक, समाजसुधारक वर्ग) जल राशियां- कर्क, वृश्चिक, मकर, मीन जल पर निर्भर राशियां- वृष, मिथुन, कन्या, कुम्भ जलहीन राशियां- मेष, सिंह, तुला, धनु
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दिशाएं
पूर्व - मेष, सिंह, धनु
दक्षिण- वृष, कन्या, मकर
पश्चिम- मिथुन, तुला, कुम्भ
उत्तर- कर्क, वृश्चिक, मीन
दिन बली और रात्रि बली राशियां
दिन बली सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुम्भ, मीन रात्रि बली मेष, वृष, मिथुन, कर्क, धनु, मकर
-
-
द्विपाद, चतुष्पाद आदि राशियां
द्विपाद - मिथुन, कन्या, तुला, कुम्भ तथा धनु का पूर्वोत्तर भाग
चतुष्याद- मेष, वृष, सिंह, धनु का उत्तरोतर भाग तथा मकर का पूर्वोत्तर
भाग ।
जलीय-कर्क, मीन, मकर का उत्तरोत्तर भाग कीट वृश्चिक
(अपवाद कुछ विद्वान ज्योतिषी कुम्भ को भी जलीय राशि तथा कर्क को कीट राशि मानते हैं।)
द्विपद राशियां लग्न के मध्य भाग में बलवान होती है। चतुष्पद राशियां दशम भाव में, जलीय राशियां चतुर्थ भाव में तथा कीट राशियां सप्तम भाव में बली होती है।
द्विपद राशियां दिन बली, चतुष्पद राशियां रात्रि के समय बली तथा कीट राशियां सूर्य निकलने के समय या सूर्य अस्त होने के समय बली होती है।
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2.
वृष
राशियों के द्वारा काल पुरुष के अंगों का प्रतिनिधित्व क्र. राशियां शरीर के अंग 1. मेष
सिर
आंखें, चेहरा, गर्दन, मुंह के अन्दर का भाग, 3. मिथुन भुजाएं, छाती के ऊपर का भाग, कान कंधे। 4. कर्क हृदय, फेफड़े (छाती के अन्दर का भाग) स्तन पेट का
ऊपरी भाग 5. सिंह
छाती के नीचे का भाग नाभी से ऊपर का भाग 6. कन्या कमर, कूल्हे, नाभी के नीचे का भाग, आंते, मूत्राशय के
ऊपर का भाग 7. तुला मूत्राशय, नाभी के पीछे का भाग 8. वृश्चिक
गुदा द्वार, लिंग
जांघे 10. मकर दोनों घुटने तथा पीठ 11. कुम्भ कान, घुटने से नीचे का भाग, पिंडलियां 12. मीन
आंखें, पैर
9. धनु
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7-8. Astronomy Related to Astrology
पाठ- 7-8. ज्योतिष सम्बन्धित खगोल शास्त्र
खगोल शास्त्र वह विज्ञान है जिसमें ब्रह्माण्ड में स्थित विभिन्न ग्रहों तथा अन्य पिण्डों का विस्तार से अध्ययन किया जाता है। हम इस अध्याय में केवल ज्योतिष से सम्बन्धित विषयों का ही अध्ययन करेंगे।
सबसे आरम्भ में भारतीय तथा पाश्चात्य मत में भिन्नता का अध्ययन संक्षित में करेंगे।
पाश्चात्य मत से ब्रह्माण्ड का निर्माण 200 करोड़ वर्ष पूर्व एक महा विस्फोट (Big-bang) से हुआ। भारतीय मत से ग्रहों एवं अन्य महत्वपूर्ण बिन्दुओं की सृष्टि के आरम्भ होने से अन्त तक, कुल परिभ्रमण की संख्याओ का अनुमान किया गया।
2. पाश्चात्य मत में खगोलीय गणनाएं सूर्य को केन्द्र मान कर की जाती है। भारतीय मत में खगोलीय गणनाएं पृथ्वी को केन्द्र मान कर की जाती है।
3. पाश्चात्य मत में खगोलीय गणनाएं चलायमान बिन्दु से की जाती है। बसंत संपात के समय सूर्य नक्षत्र मंडल जहां होता है उसे मेष राशि का प्रथम बिन्दु मान लेते है जो प्रत्येक वर्ष 50"-52" खिसक जाता है। इसलिए उसे चलायमान बिन्दु कहते है। भारतीय मत में खगोलीय गणनाएं एक स्थिर बिन्दु से करते हैं जो मेष राशि (अश्विनी नक्षत्र) का प्रारम्भिक बिन्दु है। स्थिर एवं चलायमान मेष राशि के बिन्दु के बीच को कोणीय दूरी को अयनांश कहते हैं जो 1.1.2001 को 23-52' है।
4. पाश्चात्य मत में दिन की गणना पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूमने के अनुसार की जाती है जब कि भारतीय पद्धति में दिन की गणना सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक की जाती है मास की गणना चन्द्रमा के पृथ्वी के चारो ओर परिभ्रमण पर आधारित है तथा चन्द्रमा को कलाओं के अनुसार है। एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक के समय को एक चन्द्र मास कहते है।
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तीस दिन को सावन मास कहते है तथा सूर्य के अश्विनी के प्रथम बिन्दु से पुनः उस बिन्दु पर दुबारा आने तक को सौर वर्ष कहते हैं। भारतीय पद्धति में स्थानीय समय को मान्यता दी जाती है। जब कि पाश्चात्य पद्धति में मानक समय का व्यवहार किया जाता है। 5. भारतीय पद्धति में खगोलशास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र एक-दूसरे के भिन्न अंग है। दोनों का विकास साथ-साथ हुआ। पाश्चात्य पद्धति में खगोल शास्त्र का विकास एक भौतिक विज्ञान की भाँति हुआ। 6. भारतीय पद्धति में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रह तथा पिण्डों के अलावा उनकी गति, पात (nodes) भदोच्च बिन्दु, युति बिन्दु भाद्री आदि उपग्रहों का भी विस्तार से अध्ययन हुआ है। जब कि पाश्चात्य पद्धति में ऐसा कुछ भी नहीं
है।
परिभाषाएं
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क
-
|
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चित्र 1
भौगोलिक विषुवत् रेखा या भू-मध्य रेखा-चित्र 1 में गोल को पृथ्वी मान ले तो ग एवं घ पृथ्वी के दो ध्रुव है। बृहत् वृत कल ख वह काल्पनिक भौगोलिक विषुवत् रेखा या भू–मध्य रेखा है। भू-मध्य रेखा वह बृहत् वृत है जो पृथ्वी के चारों ओर इसके अक्ष (धूरी) जिसके चारों ओर पृथ्वी घूमती है। पर लम्बवत् है। पृथ्वी का अक्ष वस्तुतः उत्तरी ध्रुव ग तथा दक्षिणी ध्रुव घ को मिलाने वाली रेखा ही है। भू-मध्य रेखा इस पर समकोण बनाती है।
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भौगोलिक मध्याह्न रेखा
पृथ्वी पर भौगोलिक ध्रुवों ग एवं घ को मिलाने वाली रेखा को भौगोलिक मध्याह्नन रेखा कहते है । यह मध्याह्नन रेखा भू-मध्य रेखा को 90° के कोण पर काटती है।
मानक मध्याह्नन रेखा - पृथ्वी के ध्रुवो को मिलाने वाली काल्पनिक रेखा जो ग्रीनवीय से होकर गुजरती है उसे सर्वसम्मति से मानक मध्याहन रेखा (Principal Meindian) माना गया है।
भौगोलिक देशान्तर
क
य
ग
ल
घ
व
र
ख
चित्र 2
मान लिया जाय कि चित्र 2 में ग. य. घ मुख्य मध्याहन रेखा है जो भू-मध्य रेखा को य बिन्दु पर काटती है। तथा एक अन्य मध्याह्न रेखा जो भूमध्य रेखा को बिन्दु र पर काटती है। इन दो मध्याह्नन रेखाओं के भू-मध्य रेखा पर काटने वाले बिन्दुओं य, र द्वारा पृथ्वी के केन्द्र ल पर जो कोण य, ल, र बनेगा वह मध्याह्नन रेखा ग, र, घ का देशांतर कहा जाएगा। यदि मध्याह्नन रेखा मानक मध्याह्नन रेखा (ग्रीनबीच ) से पूर्व में है तो उसे पूर्वी देशांन्तर कहेंगे यदि पश्चिम में स्थित है तो उसे पश्चिमी देशान्तर कहेंगे ।
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भौगोलिक अक्षांश
चित्र 2 में मध्याहन रेखा ग, र, घ पर व एक बिन्दु है यदि व को केन्द्र ल से मिलाया जाए तो व, ल, र एक कोण होगा। इस कोण को अक्षांश कहते है। तथा व का अक्षांश कहलाएगा। भू-मध्य रेखा पर अक्षांश 0° होगा। उत्तरी गोलार्ध (भू-मध्य रेखा से उत्तरी ध्रुव का भाग) में जो स्थान होगा उसको उत्तरी अक्षांश एवं जो स्थान दक्षिणी गोलार्ध में होगा उसे दक्षिणी अक्षांश कहा जाएगा। एक ही मध्याहन रेखा पर विभिन्न स्थानों का देशान्तर तो एक ही होगा परन्तु अक्षांश भिन्न होगा। इसी प्रकार एक ही अक्षांश पर स्थित देशान्तर भिन्न-भिन्न होंगे।
अक्षांश रेखा वास्तव में पृथ्वी की सतह पर वे काल्पनिक वृत है जो भू-मध्य रेखा (बृहत वृत) के समान्तर होते हैं 90° उत्तरी अक्षांश उत्तरी ध्रुव तथा 90° दक्षिणी अक्षांश दक्षिणी ध्रुव है। इसको (Latitude) भी कहते हैं। देशान्तर रेखा वास्तव में पृथ्वी की सतह पर वे काल्पनिक वृत है जो पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुव में से होकर गुजरते हैं। एक देशान्तर रेखा दूसरे देशान्तर रेखा से 4 मिनट का अन्तर दर्शाता है। इसको (Longitude) भी कहते हैं।
अक्षांश तथा देशान्तर पृथ्वी पर स्थित किसी भी स्थान को दर्शाते हैं।
इसी प्रकार ब्रह्माण्ड में स्थित किसी ग्रह की स्थिति को भी नापा जाता है। खगोलीय ध्रुव- पृथ्वी के अक्ष को (उत्तरी ध्रुव को तथा दक्षिणी ध्रुव को) यदि अनंत तक ब्रह्माण्ड में बढ़ा दिया जाय तो ब्रह्माण्ड के जिस भाग उत्तरी ध्रुव मिलेगा। उसे खगोलीय उत्तरी ध्रुव तथा जिस बिन्दु पर दक्षिणी ध्रुव मिलेगा। उसे खगोलीय दक्षिणी ध्रुव कहेंगे।
खगोलीय विषुवत् वृत(Glistial equator)
खगोलीय विषुवत वृत ब्रह्माण्ड का वह वृहत वृत है जिसका तल खगोलीय ध्रुवों को मिलाने वाली रेखा को समकोण पर काटता है।
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क्रांति वृत
वृत है।
नक्षत्र मंडल में सूर्य जिस पथ पर भ्रमण करता हुआ दिखाई पड़ता है उसे क्रांतिपथ या क्रान्ति वृत कहते है ग घ क्रान्ति । क्रांति वृत का तल विषुवत् वृत के तल के साथ 23° 28' का कोण बनाता है ।
90
क
घ
र
230-28'
भचक्र
भचक्र आकाश में वह काल्पनिक पट्टी है जो क्रांति वृत के 9° उत्तर 9° दक्षिण तक फैली हुई है जैसे य, र
खगोलीय अक्षांश
'इसे विक्षेप या शर भी कहते हैं । ब्रह्माण्ड में स्थित किसी भी पिण्ड या ग्रह की स्थिति जानने के लिये ग्रह से क्रांति वृत पर लम्बवत् चाप खींचा जाता है। उस चाप की कोणीय दूरी को खगोलीय अक्षांश कहते हैं ।
घ
चित्र 3
ख
चित्र 4
माना कि प एक आकाशीय पिण्ड है। ग, घ क्रान्ति वृत है । पिण्ड से लम्बवत् द फ क्रान्तिवृत पर चाप डाला प, ल, फ कोण खगोलीय अक्षांश कहलाता
है ।
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भोगांश
किसी भी आकाशीय पिण्ड का भोगांश, उसका क्रांति वृत पर मेष से प्रथम बिन्दु से कोणीय दूरी होती है।
क्रांति
किसी भी आकाशीय पिण्ड से विषुवत् वृत पर जो लम्बवत् चाप डाला जाएगा उसके द्वारा पृथ्वी के केन्द्र पर जो कोण बनेगा उस कोण को पिंड की क्रांति कहते है।
विषुवांश
आकाशीय पिण्ड से विषुवत् वृत पर लम्बवत् चाप जिस बिन्दु पर मिलता है उस बिन्दु की विषुवत् वृत पर स्थित (सायन) मेष के प्रथम बिन्दु (वसंत संपात बिन्दु) से जो कोणीय दूरी होती है उसे उस पिण्ड का विषुवांश कहते है।
सूर्य की क्रांति में परिवर्तन
वंसत संपात (लगभग 21 मार्च) को सूर्य की क्रान्ति शून्य होती है क्योंकि उस दिन सूर्य विषुवत् वृत पर आ जाता है चित्र 5 में ल बिन्दु बंसत संपात को दर्शाता है। यह बिन्दु सायन पद्धति में ... का प्रथम बिन्दु (शून्य भोगांश बिन्दु) कहलाता है।
40
क
22 दिसम्बर
23 सितम्बर
ल 21मार्च
14 21जून
ख
विषुवत् वृत
चित्र 5
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सूर्य की क्रांति ल बिन्दु से दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती है और घ बिन्दु (21 जून के लगभग) अधिकतम होती है। यहां सूर्य की क्रांति 28°-30' (30°) होती है। इस बिन्दु को ग्रीष्म संपात या दक्षिणायन संपात भी कहते है। इसके बाद सूर्य की क्रांति घटने लगती है। पुनः 23 सितम्बर के लगभग शून्य हो जाती है क्योंकि सूर्य पनुः विषुवत् वृत पर होता है। यहां से सूर्य की क्रांति दक्षिण दिशा में पनुः बढ़ने लगती है और बिन्दु ग पर (22 दिसम्बर के लगभग) अधिकतम हो जाती है। यहां से सूर्य उत्तरायण हो जाता है यहां से सूर्य की क्रांति पुनः घटने लगती है और 21 मार्च को बिन्दु ल पर शून्य हो जाती है। इस प्रकार सूर्य का एक वर्ष हो जाता है।
ग, ल, घ बिन्दु तक सूर्य का घूमना उत्तरायण तथा घ, र, ग वृत पर घूमना दक्षिणायन कहलाता है। इसी वृत पर भ्रमण के कारण ही ग्रीष्म ऋतु 21 मार्च से आरम्भ शरद् ऋतु 23 सितम्बर से आरम्भ होती है।
ऋतु परिवर्तन सूर्य के भ्रमण के कारण होता है। वास्तव में सूर्य स्थिर है और पृथ्वी भ्रमण कर रही है। परन्तु हम पृथ्वी पर खड़े हो कर जब सूर्य को देखते हैं तो सूर्य भ्रमण करता हुआ प्रतीत होता है।
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Introduction to Solar System
सौर मंडल का परिचय
तारे
तारे स्वतः चमकने वाले आकाशीय पिण्ड हैं। सूर्य एक तारा है। तारे स्थिर हैं। नक्षत्र-मण्डल तारों के समूहों से बना है।
ग्रह
वह आकाशीय पिण्ड है जो सूर्य के चारों ओर भ्रमण करते है। स्थिर तारे टिमटिमाते रहते है जबकि ग्रहों की चमक एक समान रहती है।
चन्द्रमा
एक आकाशीय पिण्ड है जो पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। इसलिए इसे उपग्रह भी कहते हैं। पृथ्वी के अलावा और ग्रहों के भी उपग्रह है।
सौर-मंडल
यह सूर्य, ग्रहों, उपग्रहों, घूमकेतु, उल्का, लघुग्रहों तथा ग्रहों की धूल कण एवं गैसीय कणों से बना है। हमारे सौर मंडल ब्रह्मण्ड का एक छोटा भाग है। इस सौर-मण्डल में हम रहते है। हमारा सौर मंडल सूर्य के इर्द-गिर्द केन्द्रित है। सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। हमारे सौर-मंगडल में अभी तक नौ ग्रहों का पता लगा है। भारतीय पद्धति में केवल पांच ग्रहों को ही माना है। सूर्य से दूरी के क्रम से ज्ञात ग्रहों के नाम इस प्रकार है। 1. बुध 2. शुक्र 3. पृथ्वी 4. मंगल 5. बृहस्पति 6. शनि 7. यूरिनस 8. नेप्चून 9. प्लूटो सूर्य एक तारा है तथा चन्द्रमा उपग्रह भारतीय ज्योतिष पद्धति में बुध, शुक्र मंगल, बृहस्पति तथा शनि ग्रहों को हो मान्यता दी है। वास्तव में (Planet) प्लानेट का हिन्दी रूपान्तर ग्रह उचित नहीं क्योंकि भारतीय पद्धति उसको ग्रह मानती है जिसका प्रभाव हम ग्रहण करते हैं या जिसका अस्तित्व हमें प्रभावित
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करता है। इसलिये भारतीय पद्धति ने सूर्य चन्द्रमा, राहु तथा केतु को भी ग्रह माना है। राहु तथा केतु को भी ग्रह माना है। जबकि राहु तथा केतु का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं। यह हम जानते हैं कि पृथ्वी सूर्य का तथा चन्द्रमा पृथ्वी का परिभ्रमण करती है।
.
.
बध
मंगल
बृहस्पति
शनि, यूरिनस, नेप्चून, प्लूटो
चित्र 7
केतु
अवरोही पाथ
ही पा) पृथ्वी का वृत
क
/
चन्द्रमा का वृत
चित्र 8
जहां दोनों वृत एक-दूसरे को काटते हैं उन बिन्दुओं को राहु तथा केतु कहते हैं। चित्र 8 में क, ख राहु तथा केतु है।
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आन्तरिक ग्रह वे ग्रह हैं जो सूर्य एवं पृथ्वी के मध्य स्थित है। वे हैं बुध तथा शुक्र।
बाह्य ग्रह वे गह हैं जो सूर्य तथा पृथ्वी दोनों से बाहर है। वे ग्रह हैं मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेप्चून तथा प्लूटो। यूरेनस, नेप्चून तथा प्लूटो को भारतीय मनीषियों ने जातक ग्रन्थों में कोई स्थान नहीं दिया। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि भारतीय मनीषियों को इसके बारे में पता नहीं था भारतीय मनीषियों ने इनका वर्णन अरूण, वरुण तथा यम क्रमशः के नाम से किया है। परन्तु इनका अस्तित्व पृथ्वी से बहुत दूर होने के कारण तथा सूर्य की परिक्रमा इतने अधिक वर्षा में पूरा करते हैं कि जातक का जीवन ही पूरा हो जाता है जैसे प्लूटो सूर्य की परिक्रमा 248 वर्ष में पूरा करता है। नेप्चून सूर्य को परिक्रमा 164.8 वर्ष में पूरी करता है। इसलिए जातक के जीवन में इन ग्रहों का अधिक महत्व नहीं है। सप्ताह के दिनों के नामकरण की योजना
भारतीय ज्योतिष में सात ग्रहों को स्थान दिया सूर्य, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि इन्हीं ग्रहों के नाम से सप्ताह के सात दिन रखे गये। और दिनों का नामकरण किया गया। भारतीय ज्योतिष वैज्ञानिक त्थयों पर आधारित होने के कारण नाम करण का क्रम भी मन चाहा नहीं अपितु गणित के नियमों पर आधारित है।
+
لها
चित्र 9
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भारतीय ज्योतिष में दिन-रात को 24 बराबर भागों में बांटा गया है जिन्हें होरा कहते हैं। दिन सूर्य निकलने से पुनः सूर्य निकलने तक रहता है। एक होरा एक घण्टे के बराबर होती है। दिन का नाम उस दिन के प्रथम होरा के स्वामी के आधार पर रखा गया है। होरा के स्वामी ग्रहों के आधार पर है। चन्द्रमा सबसे तीव्र गति ग्रह है तथा शनि सबसे भद्र गति ग्रह है। यदि इन ग्रहों को गति के क्रम से एक वृत में लिखे तो चित्र 9 बन जाएगा। सूर्य हमारा केन्द्र होने के कारण सूर्य से गिनना आरम्भ करे तो 25वीं होरा चन्द्र पर आएगी। इसलिये दूसरे दिन का नाम चन्द्रवार सोमवार रखा गया। अब चन्द्रमा से गिनना आरम्भ करे तो 25 वीं होरा मंगल पर पड़ेगी। इसलिए तीसरे दिन का नाम मंगलवार रखा गया। इसी क्रम से चौथा दिन बुधवार, 5 दिन बृहस्पतिवार, 6 दिन शुक्रवार तथा सातवां दिन शनिवार रखा गया।
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9-10. The Calculations for Astrology
पाठ - 9-10. गणित
हम यह जानते हैं कि सूर्य से ही समय, दिन एवं रात तथा ऋतुओं का निर्माण हुआ पौराणिक हिन्दु दिन सूर्योदय से पुनः सूर्योदय तक मानते हैं। जब सूर्य सिर पर होता है तो स्थानीय दो पहर होती है। पृथ्वी एक समतल तत्व नहीं है। अपितु नारंगी की तरह गोल है। और अपनी धूरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है। इससे सिद्ध होता है। कि पूर्व के देशों में सूर्य पहले दिखाई देगा। पश्चिम के देशों में बाद में दिखाई देगा, इस प्रकार सब स्थानों पर सूर्योदय का समय अलग-अलग होगा।
स्थानीय समय ऊपर हम देख चुके हैं कि पूर्व के देशों में सूर्य पहले दिखाई देगा तथा पश्चिम के देशों में बाद में दिखाई देगा। इसलिए प्रत्येक स्थान का स्थानीय समय भिन्न होता है। परन्तु समय के व्यतीत होने की दर में समानता लाने के लिए तथा जटिल गणितीय संगणना से बचने के लिये "स्थानीय औसत समय"(L.M.T.) (Local Mean Time) का मान लिया जाता है। यह समय किसी भी स्थान के अक्षांश और देशान्तर पर निर्भर करता है। ज्योतिष में हम सबसे पहले, दिए हुए समय को स्थानीय औसत समय में बदलते हैं।
मानक समय
किसी स्थान से देश बड़ा होता है। परन्तु आने-जाने की सुविधाओं के विस्तार के कारण तथा संचार साधनों के विकास के कारण देश एक ईकाई हो गया है। डाक, तार टेलीफोन आदि संचार साधनों से देश जुड़ गया है। यातायात के साधनों के विकास के कारण प्रत्येक शहर दूसरे से जुड़ गया है। इसलिए देश के समय की आवश्यकता का अनुभव किया गया जिसमें प्रत्येक शहर का समय एक हो। सन् 1906 ई. में यह निर्णय लिया गया कि 82°-30' पूर्व देशान्तर को भारत का मानक मध्याहन रेखा के रूप में लिया जाएगा। यह भारत का मानक समय है। हवाई जहाज, डाक, रेल आदि सभी इस समय का ही प्रयोग करते हैं। आज तो हमारी घड़िया भी इसी समय के अनुसार चलती
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है। स्थानीय समय की कल्पना समाप्त प्राय हो गई है। इसलिये ज्योतिष में मानक समय से स्थानीय समय निकाला जाता है। ग्रीनविच औसत समय आज देश ही नहीं सारा संसार एक हो गया है। इसलिये अन्तर्राष्ट्रीय मामलो में भी एक मानक समय की आवश्यकता को अनुभव किया गया। जिससे विश्व के सभी देशों द्वारा उसका हवाला दिया जा सके। ग्रीनविच के मध्य में से गुजरने वाली मध्याह्नन देखा को शून्य मान लिया गया और अन्य देशों को इसके अनुसार मानक समय दिये गये।
समय का रूपान्तरण हमने देखा है कि पृथ्वी 24 घन्टे में 360° घूम लेती है इस प्रकार 360° = 24 घण्टे 360° = 24X60 मिनट 1° = 24X60 = 4 मिनट
360
इस सिद्धान्त का प्रयोग करके एक स्थान के समय को दूसरे स्थान के समय में परिवर्तित कर सकते हैं। हमे केवल याद रखना होगा कि जो देश ग्रीनविच के पूर्व में स्थित है उनमें ग्रीनविच के समय में जोड़ा (+) जाता है तथा जो देश ग्रीनविच के पश्चिम में स्थित है उनमें ग्रीनविच के समय में से घटया (-) जाता है।
उदाहरण भारत की मानक मध्याह रेखा का देशान्तर 82°-30' पूर्व है तो मानक समय क्या होगा? 1° = 4 मिनट 82°-30 = 82X4+30X4 सेकॅण्ड
= 328 मि. + 120 सेकॅण्ड = 330 मिनट = 5 घंटे 30 मिनट
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भारत क्योंकि ग्रीनविच से पूर्व में स्थित है इसलिए ग्रीनविच के समय में 5 घंटे 30 मिनट जोड़े जाएंगे।
यदि ग्रीनविच में समय 6–00 है तो भारत में 6-00+5-30 = 11घंटे 30 मिनट का समय होगा । यदि गीनविच के समय 10 घंटे 30 मिनट है तो भारत में 16 घंटे का समय होगा, अर्थात सायं 4 बजे ।
स्थानीय औसत समय शुद्धि
यह समय को वह अवधि है जिसे किसी देश के मानक समय से उस स्थान के स्थानीय औसत समय को मालूम करने के लिये प्रयोग किया जाता है। यदि स्थानीय औसत शुद्धि या तो मानक समय में (+) जोड़ी जाती है या (-) घटाई जाती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि स्थान मानक स्थान से पूर्व में है तो मानक समय में अन्तर को जोड़ा जाएगा। यदि स्थान मानक स्थान से पश्चिम में स्थित है तो मानक समय में से अन्तर को घटाया जाएगा। उदाहरण ले कि भारत का मानक स्थान 82°30 ' है। दिल्ली का देशान्तर 772-13' है। दिल्ली मानक स्थान से पश्चिम स्थित है तो अन्तर घटाया जाएगा।
80°30° −77°13' = 5°17' मि0
1° = 4 मिनट
5°17 = 05X4 + 17x4 सैकॅण्ड
= 20 मि. + 68 सैकॅण्ड 21 मि0 8 सैकॅण्ड
अब यदि भारतीय औसत मानक समय में से 21 मि. 8 सैकॅण्ड घटा दिये जाएंगे तो दिल्ली का स्थानीय समय निकल आएगा । जैसे घड़ी में शाम के 5 घ. 30 मि. है तो दिल्ली का स्थानीय समय = शाम के ( 5घं. 30मि.) - (0-21 मि. 8 सै.)
5 घं. 30 मि. 00से. (-) 21 मि. 08 से.
5 घं. 08 मि. 52 से.
इस प्रकार किसी स्थान का मानक समय से स्थानीय औसत समय निकाला जा सकता है।
48
=
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11-12. Determination of Ascendant and Twelve Houses
पाठ - 11-12. लग्न साधन एवं द्वादश भाव स्पष्ट
कुण्डली निर्माण में सबसे पहले लग्न साधन करना पड़ता है। जैसा कि हम बता चुके हैं कि किसी भी कुण्डली के निर्माण में तीन चीजों की जानकारी चाहिए। वे हैं, जन्मसमय, जन्मस्थान व जन्म तारीख। लग्न की परिभाषा- जन्म समय किसी निश्चित स्थान के पूर्वी क्षितिज पर राशि चक्र की जो राशि उदित हो रही होती है वह लग्न कहलाता है।
लग्न साधन- लग्न साधन के लिए हमें सम्पात्कीय समय की आवश्यकता होती है।
पृथ्वी अपनी धूरी पर एक चक्र पूरा करने में 24 घंटे लेती हैं। लेकिन यही पृथ्वी का चक्र जब किसी निश्चित तारे के सन्दर्भ में पूरा होता है तो 24 घंटे से 3 मिनट 56 सेकेण्ड कम लगते हैं। इस प्रकार जो समय बनता है उसे सम्पात्कीय समय कहते हैं। लग्न निकालने के लिए हम Tables of Ascendants नामक पुस्तक में दी हुई तालिकाओं की सहायता लेंगे।
Tables of Ascendants की सहायता से पहले सम्पात्कीय समय निकला जाएगा। सम्पात्कीय समय निकालने के लिए पृ. सं. 2 पर दी हुई तालिका की सहायता लेंगे यह प्रतिदिन का सम्पात्कीय समय दोपहर के 12 बजे स्थानीय समयानुसार सन् 1900 का बताती है। पृ. न. 4 पर दी हुई तालिका-2 वर्ष अनुसार तालिका-1 मे जो संस्कार होगा वह बताती है।
पृ. 5 पर दी हुई तालिका-3 सम्पात्कीय समय के स्थानीय संस्कार बताती है- तालिका 4 स्थानीय समय में सम्पात्कीय संस्कार बताती है।
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सम्पात्कीय समय साधन के उदाहरण
जातक का जन्म तारीख 01.02.1969
समय- 20.40 घंटे
स्थान- (दिल्ली) प्र. सं. 2 के तालिका - 1 अनुसार तारीख 1.02.1900 दोपहर 12 बजे स्थानीय समय अनुसार सम्पात्कीय समय
20घं 44 मि. 02 सै. वर्ष संस्कार 1969 (पृ. सं. 4 के तालीका–2 अनुसार) (+) 1 मि. 9 सै. .. ता. 1.2.1969 दोपहर 12 बजे स्थानीय समय अनुसार सम्पात्कीय समय हुआ = 20 घ. 45 मि. 11सै. स्थानीय संस्कार (पृ.सं. 5 तालिका 3 अनुसार) = (+) 00 मि. 3 सै. :. ता. 12.1969 दोपहर 12 बजे स्थानीय समय अनुसार दिल्ली में सम्पात्कीय समय हुआ
20 घं. 45 मि. 14 सै.
(i)दिल्ली का रेखांश- 77°13' भारतीय मध्य रेखांश 82°30' दिल्ली का मध्य रेखांश से अन्तर = 82°30'- 77°13' = 52.17' स्थानीय समय संस्कार = 59.17X 4 मि. = 21 मि. 08 सै. जन्म समय = 20 घं. 40 मि. 00सै. भारतीय मानक समय स्थानीय समय संस्कार (-) 21.08 क्योंकि दिल्ली रेखांश मध्य रेखांश से पश्चिम अर्थात कम है इसलिए स्थानीय संस्कार घटाया जायेगा। दिल्ली का स्थानीय समय = 20 घं. 18 मि. 52 सै. हुआ।
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क्योंकि ता. 01.02.1969 दिल्ली में सम्पात्कीय समय का गणित दोपहर के 12 बजे स्थानीय समय अनुसार दिया गया है इसलिए जातक का जन्म दोपहर 12 बजे से कितना पहले या बाद में स्थानीय समय अनुसार हुआ, ज्ञात करना होगा। जातक का जन्म स्थानीय समय अनुसार
20घं. 18मि. 52सै. दोपहर 12 बजे स्थानीय समय से जन्म समय तक का अन्तर
- 12 घं. 00मि. 00 सै.
= 8 घं. 18मि. 52 सै. ..जातक का जन्म स्थानीय समय अनुसार दोपहर 12 बजे के 08 घं. 18 मि. 52 सै. बाद में हुआ। इस अन्तर में सम्पात्कीय संस्कार कर इस अन्तर को सम्पात्कीय अन्तर में बदलेंगे। दोपहर से जन्म समय तक का अन्तर =
8घं. 18मि. 52सै. 8 घं. के लिए संस्कार
01मि. 19सै. 18 मि. के लिए संस्कार
=(+) 00मि. 03सै. 52 सै. के लिए संस्कार
=(+) 00मि. 00सै. दोपहर से जन्म समय तक सम्पातकीय अन्तर
8 घं. 20 मि. 14सै.
= (+)
अर्थात् जातक का जन्म सम्पातकीय समय अनुसार घं. 20 मि. 14 सै. दोपहर 12 बजे के बाद हुआ। इसलिए दोपहर 12 बजे के सम्पातकीय समय में 8 घं. 20 मि. 14 सै. जोड़ दिये जायेंगे। (नोट: यदि जन्म दोपहर 12 बजे के सम्पातकीय काल से पहले हुआ होता तो यही अन्तर घटाना होता।) .. सम्पातकीय समय दी गई जन्म तारीख मानक समय और स्थान अनुसार
20घं. 45मि.14 सै.i) 12 बजे स्थानीय समय से जन्म समय तक का अन्तर (सम्पातकीय)
08घं. 20मि.14सै. ii) 29घं. 05मि. 28सै.
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क्योंकि घड़ी का मान 24 से अधिक नहीं होता। इसलिए 24 घ घटायेंगे (-) 24घं. 00मि. 00सै. :.01.02.1969, 20घं. 40मि. दिल्ली का सम्पातकीय समय
05घं. 05मि. 28सै. सम्पातकीय समय अनुसार लग्न साधन Table of Ascandant में स्थानीय अक्षांश अनुसार दी गई तालिका से किया जागेगा पृ. सं. 9 से लेकर पृ. सं. 80 तक दी गई तालिका 0° अक्षांश से 60° उतर तक में आने वाले सभी स्थानों के लिए उपर्युक्त है निकाले गये सम्पातकीय समय दिल्ली का है इसलिए दिल्ली के अक्षांश वाली तालिका के पृष्ठ पर देखे गये दिल्ली का अक्षांश 28°39' उतर है यह पृ. सं. 48 पर अंकित हैं इस तालिका में सम्पातकीय समय अनुसार लग्न के उदित राशि, अंश, कला दिये गये हैं। उदाहरण अनुसार निकाला गया सम्पातकीय समय 05 घं. 05 मि. 28 सै. है। यह तालिका अनुसार 05 घं. 4 मि. से 05 घं. 8मि. के मध्य आता है इसलिए तालिका अनुसार 05घं. 4 मि. सम्पातकीय समय अनुसार उदित लग्न
= 4रा 24° 41' इसी तरह तालिका अनुसार 05 घं. 8 मि. " " = 4रा 25° 33' .. 4 मि. में राशि चक्र की चाल में अन्तर = 52'
लग्न मि.
= 52 = 13
4 इसी तरह 1 मि. या 60 सै. = 13'
13' X28' = 64"
28 सै.
"
60
05 घं. 4 मि. सम्पातकीय समय अनुसार उदित लग्न
= 4रा 24° 41'00" 1 मि. लग्न की चाल
= 00° 13'00" 28 सै. लग्न की चाल
= 00° 06'04" ____05 घं. 5 मि. 28 सै. सम्पातकीय समय
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अनुसार उदित लग्न= 4रा 25° 00'04" हुआ। इस लग्न में अयनांश संस्कार कर लग्न स्पष्ट हो जायेगा । प्र. सं. 6 पर दी गई अयनांश संस्कार तालिका (Ayanamsa Correction table) वर्ष अनुसार है। सम्पातकीय समय अनुसार लग्न उदित = 4रा 25° 00'04" अक्षांश संस्कार (1969)
___= (-) 0° 26'00" :. लग्न स्पष्ट दिये गये जन्म तारीख मानक समय और स्थान अनुसार = 4रा 24° 34 04' अर्थात सिंह राशि जन्म समय पूर्वी क्षितिज पर 24° 34'04"उदित हो रही थी।
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House Cuspal Longitude
दशम भाव एवं भाव स्पष्ट
दशम भाव- किसी निर्धारित समय पर उस स्थान की मध्याह्न रेखा (मध्य आकाश या मध्यविन्दु) क्रान्तिवृत्त को जिस विन्दु पर काटती है उस विन्दु को दशमभाव कहते हैं। दशम भाव का विषुवांश उस समय का सम्पात् समय होता है इसे प्रायः विषुवांश मध्य आकाश भी कहते हैं।
इस प्रकार दशम भाव स्पष्ट करेंगे दशम भाव के लिए प्र. स. 8 पर दी गई तालिका अनुसार गणित करेंगे यह तालिका सभी स्थानों अर्थात पृथ्वी के सभी शहरों के लिए एक ही होती है।
इस तालिका का प्रयोग उसी तरह करेंगे जैसे लग्न स्पष्ट के लिए किया गया
जन्म समय सम्पातकीय समय 05 घं. 5 मि. 28 सै.
तालिका अनुसार 05 घं. 4 मि. सम्पातकीय
समय अनुसार उदित दशम भाव
= 1रा. 24° 7
05घं. 8 मि.
"
=1रा 25°2
4 मि. में राशि चक्र की चाल
= 0° 55'
1 मि. में राशि चक्र की चाल
=
13', 45"
इसी तरह 1 मि. या 60 सै. =
_____55'
1 मि. में चाल
= 13' 45"
55x28
385
= 6 25
1 सै. 28 सै.
4360
28 सै. में चाल = 6' 25"
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28 सै.
05 घं. 4 मि. 0 सै. सम्पातकीय समय
अनुसार उदित दशम भाव = 1रा 24° 07 00" 1 मि. दशम की चाल
13 45"
06'25" 05 घं. 5 मि. 28 सै. सम्पातकीय समय अनुसार दशम भाव उदित = 1रा 24°27 10" अयनांश संस्कार के बाद सम्पातकीय समय अनुसार दशम भाव = 1रा. 24° 27' 10" अयनांश संस्कार
= (-) 00° 26'00"
दशम भाव स्पष्ट
= 1रा. 24° 01' 10" जन्म समय सम्पातकीय समय अनुसार दशम भाव स्पष्ट तुला राशि 25° 23' 38" पर उदित हो रहा था। निकाले गये लग्न स्पष्ट दशम भाव स्पष्ट क्रमशः प्रथम भाव और दशम भाव के मध्य का रेखांश है इसी प्रकार जन्म कुण्डली के सभी बारह भावों के मध्य रेखांश निकाले जायेंगे इसके साथ-साथ बारहें भावों के (सन्धि) प्रारम्भिक रेखांश भी निकालना आवश्यक है जिससे हर भाव की लम्बाई और भाव मध्य उदित राशि का ज्ञात होगा। बारह भावों का गणित इस प्रकार किया जायेगा दशव भाव से प्रथम भाव तक प्रथम भाव मध्यम रेखांश- दशम भाव मध्यम रेखांश : 6 (अर्थात लग्न स्पष्ट)
(दशम भाव स्पष्ट) 4रा 24° 34'04" -1 रा 24°1' 10" = 3 रा 0° 32 54"
= 90° 32° 54"
= 15°5 29" षष्ठांश प्राप्त हुआ है।
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नोट- छ: से भाग देनें का कारण यह है कि दशम भाव से लग्न तक तीन भाव मध्य और तीन भाव सन्धि (प्रारम्भ ) पड़ते है ।
प्राप्त हुए षष्ठांश के दशम भाव के मध्य रेखांश में बारी-बारी जोड़ते जाने से क्रमशः अगले भावों के भाव मध्य व सन्धि रेखांश प्राप्त हो जायेंगे।
दशम भाव मध्य रेखांश
1 रा 24°
150
9o
दशम एवं ग्यारहवें भाव सन्धि रेखांश
ग्यारवां भाव मध्य रेखांश
ग्यारहवां एवं बारहवों भाव सन्धि रेखांश
बारहवां भाव मध्य रेखांश
बारहवां एवं प्रथम भाव सन्धि रेखांश
चतुर्थ भाव मध्य रेखांश
56
=
+
(+)
11
=
||
||
=
=
=
2रा
6 राशि
15°
2रा 24°
15°
09o
150
=
उरा
उरा
24°
15°
= 4रा 24°
4रा 09o
15°
29"
35"
29"
प्रथम भाव मध्य रेखांश
4"
अब प्राप्त हुए स्पष्ट भाव मध्य रेखांश और भाव सन्धि रेखांश में 6 राशि जोड़ देने से भाव के सामने वाले भाव मध्य और भाव सन्धि रेखांश स्पष्ट हो जायेंगे।
जैसे:
• दशम भाव का मध्य रेखांश
1 रा 24°
1'
7रा 24°
5'
06'
1812 12 13 12 2018 ल
05'
12'
05'
17'
05'
23'
05'
05'
34'
10"
29"
39"
29"
8"
01'
29"
37"
29"
06"
10"
1' 10"
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चतुर्थ और पंचम भाव का सन्धि रेखांश
ग्यारहवां भाव मध्य रेखांश
10वां और 11वें भाव का सन्धि रेखांश
.
पंचम और छठे भाव का सन्धि रेखांश
12वें भाव का मध्य रेखांश
.
छठे भाव का मध्य रेखांश
12वें और प्रथम भाव का सन्धि रेखांश
=
पंचम भाव का मध्य रेखांश
11वां और 12 वें भाव का सन्धि रेखांश =
+
छठे और सप्तम भाव का सन्धि रेखांश
प्रथम भाव का मध्य रेखांश
+
=
=
+
=
=
=
+
=
=
+
=
=
+
2रा.
=
6रा.
रा
09o
2रा 24°
6रा.
09o
ठरा 24°
उरा
09o
6रा.
9 9°
उरा 24°
6रा.
9रा 24°
4रा 9o
6रा.
06'
06'
12'
12'
17'
17'
23'
23o
28'
39"
28'
34'
39"
08"
8"
37"
37"
06"
6"
35"
10 रा 9o
4रा 24°
6रा.
10 रा 24° 34' 04"
35"
4"
सप्तम भाव का मध्य रेखांश
इसी प्रकार प्रथम भाव के मध्य रेखांश से चतुर्थ भाव के मध्य रेखांश के अन्तर को लेकर प्रथम, द्वितीय तृतीय चतुर्थ भावों के भाव मध्य और भाव
सन्धि रेखांश ज्ञात करेंगे।
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जैसेचतुर्थ भाव का मध्य रेखांश प्रथम भाव का मध्य रेखांश
= = =
7रा 4रा 2रा
24° 24° 29°
01' 10" 34_04" 27' 06"
अन्तर
षष्ठांश ज्ञात करने के लिए छ: भाग देंगे
2रा 29° 27 6"
89° 27
6" - = 14°54' 31" षष्ठांश प्राप्त हुआ।
प्राप्त हुए षष्ठांश को प्रथम भाव मध्य रेखांश में बारी-बारी जोड़े जाने से क्रमशः अगले भावो के भाव मध्य व सन्धि रेखांश प्राप्त हो जायेंगे। प्रथम भाव मध्य रेखांश -
4रा 24° 34' 04"
____14°54' 31" प्रथम और द्वितीय भाव सन्धी
5रा 09 28' 35"
14°54' 31"
द्वितीय भाव मध्य
द्वितीय और तृतीय भाव सन्धि
तृतीय भाव मध्य
5रा 24° 23 06"
54' 31" ____ 17' 37" ___54' 31"
12 08"
___54' 31" 7रा 09° 06' 39"
14°54' 31" 7रा 24°01' 10"
तृतीय चतुर्थ भाव सन्धि
चतुर्थ भाव मध्य
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• प्रथम भाव मध्य रेखांश
सप्तम भाव मध्य
• प्रथम और द्वितीय भाव सन्धि
सप्तम और अष्टम भाव सन्धि
द्वितीय भाव मध्य
अष्टम भाव मध्य
द्वितीय और तृतीय भाव सन्धि
.
अष्टम और नवम भाव सन्धि तृतीय भाव मध्य
तृतीय और चतुर्थ भाव सन्धि
नवम और दशम भाव सन्धि
चतुर्थ भाव मध्य
•
दशम भाव मध्य
(+)
=
(+)
=
(+)
=
=
(+)
=
F
=
4रा
(+)
6रा
10 रा
=
5रा
6 रा
(+) 6रा
5रा
6रा
11रा 24° 23'
6रा
9o
(+) 6RT.
रा
9o
6रा 24°
6रा
रा 09o
11रा 9°
24°
24°
24°
6रा
9o
1 रा
1 रा 09o
रा 24°
34'
24°
34'
28'
23'
28' 35
17'
17'
12'
04"
06'
04"
35"
06"
06"
37"
37"
08"
39"
06' 39"
01'
10"
01' 10"
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भाव स्पष्ट तालिका
भाव
भाव सन्धि
भाव मध्य
04रा 09° 28° 35" 05रा 09° 28 35" 06रा 09° 17 37" 07रा 09° 06 39" 08रा 09° 06' 39" 09रा 09° 17 37" 10रा 09° 28' 35" 11रा 09° 28 35" 00रा 09° 17 37" 01रा 09° 06' 39" 02रा 09° 06' 39" 03रा 09° 17 37"
04रा 24° 34'04" 05रा 24° 23° 06" 00रा 24° 12 08" 07रा 24°01' 10" 08रा 24° 12 08" 09रा 24° 23'06" 10रा 24° 34'04" 11रा 24° 23'06" 00रा 24° 12'08" 01रा 24° 01' 10" 02रा 24° 12' 08" 03रा 24° 23'06"
12.
अब प्राप्त हुए स्पष्ट भाव मध्य और सन्धि रेखांश में 6 राशि जोड़ देने से भाव के सामने वाले भाव मध्य और सन्धि रेखांश स्पष्ट हो जायेंगे। जैसे हमने दशम से प्रथम भावों के रेखांशों में 6 राशि जोड़ी है उसी तरह से यह भी प्रथम से चतुर्थ भावों में 6 राशि जोड़ेंगे।
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13-14. Determination of Positions of Planet
पाठ- 13-14. ग्रह स्पष्ट
कुण्डली निर्माण के इस पाठ में नवग्रहों स्पष्ट अर्थात् रेखांश निकालने की विधि बतायेंगे। नवग्रहों की जन्म समय राशि चक्र में क्या स्थिति थी अर्थात् किस राशि में कितने अंशो पर भ्रमण कर रहे थे ग्रह स्पष्ट से जाना जाता है इसके लिए हम Ephemeris का प्रयोग करेंगे।
N. C. Lehri द्वारा बनाई गई Condened Ephemeris में ग्रहों की स्थिति अर्थात् रेखांश प्रातः 5:30 बजे तालिका के रूप में बारहों महीनों की दी गई है जिस वर्ष में जातक का जन्म हो उस वर्ष के ग्रह स्थिति की तालिका खोलकर जन्म समय तक का गणित किया जा सकता है ऐसी तालिका पंचांग में भी उपलब्ध रहती है।
उदाहरण:
भाव स्पष्ट के गणित के आगे जैसा कि हमने जन्म तारीख 1.2.1969 जन्म समय 20.40 स्थान दिल्ली के अनुसार भाव स्पष्ट किये थे अब ग्रह स्पष्ट करेंगे।
Condened Ephemeris में वर्ष 1969 की तालिका पृ. सं. 58, 59, 60, 6162, पर दी गई है पू. सं. 58 में चन्द्र के स्पष्ट रेखांश प्रातः 5:30 बजे के दिये गये हैं। तालिका में तारीख और माह की अनुसार गणित करेंगे।
चन्द्र के स्पष्ट रेखांश प्रातः 5:30 बजे 02.2.1969 को = 3रा 13° 28'
01.2.1969 को = 3रा 1°16'
"
24 घंटो में (एक दिन में ) चंद्र की चाल = 12°.12' हमने यहां 1 फरवरी और 2 फरवरी को प्रातःकाल चन्द्र की स्थिति
इसलिए ली क्योंकि जन्म समय इन दोनों स्थिति का भीतर हुआ है अर्थात् 1 फरवरी प्रातः 5:30 से 2 फरवरी प्रातः 5:30 के मध्य है ।
क्योंकि जन्म 1 फरवरी प्रातः 5:30 बजे के बाद हुआ है इसलिए यह जानना आवश्यक है कि जन्म प्रातः 5:30 बजे के कितने घंटों बाद हुआ अर्थात् दिये गये समय में से 5 घं. 30 मि. घटा देंगे।
जन्म समय
घं.
मि.
20
40
5
30
61
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अर्थात् जन्म = 15घं. 10मि. प्रातः 5घं. 30 मि. के पश्चात् हुआ। इसलिए चन्द्र की 15घं. 10 मि. में क्या चाल रही यह निकालना होगा। 24घंटे में चन्द्र की चाल = 12°12' 1 " " = 12° 12'X 15 घं. 10 मि. 15 घं. 10मि.
24घं.
= 7°43' इस सूत्र को संक्षिप्त करने के लिए हम पीछे दी गई लौग तालिका की सहायता लेंगे। लौग द्वारा किसी भी सूत्र का संक्षिप्त करने के लिए यह नियम है कि गुण की जाने वाली संख्याओं की लौग संख्या आप में जोड़ी जाती है और भाग वाली संख्याए आप में घटाई जाती है। इस प्रकार तालिका में देखने से लौग
12° 14' + लौग 15घं. 10 मि.-लौग 24घं. लौग तालिका की संख्या 0.2938 + 0.1993 - 0 योग = 0.4931 यह योग संख्या लौग तालिका में कितने अंशो और कला पर है इसे तालिका में देखेंगे अगर पूर्ण संख्या व प्राप्त हो तो इस संख्या के निकटतम् संख्या पर अंश और कला को लेंगे। जैसे की 0-4930 संख्या की निकट संख्या तालिका से 0-4928 इसलिए इस संख्या के अंश और कला ही जो 7°43' है पूरे सूत्र का संक्षेप हुआ यही चन्द्र की 15घं. 10मि. की चाल है। प्रातःकाल 5घं. 30 मि. पर चन्द्र के रेखांश में 15घं. 10 मि. के चन्द्र की चाल जोड़ देने से चन्द्र स्पष्ट हो जायेगा। प्रातःकाल 5घं. 30मि. पर चन्द्र के स्पष्ट रेखांश 1.2.1969 = 3रा 01°16' 15घं. 10मि. में चन्द्र की चाल
= 7°43'
चन्द्र स्पष्ट
= 3रा 8°59' इसी प्रकार सभी ग्रहों के रेखांश ज्ञात किये जायेंगे। Condened Ephemeris में नवग्रहों के प्रातः 5:30 बजे के रेखांश प्रतिदिन के देकर दो दिन के अन्तराल में दिये है अर्थात् यदि 1तारीख के रेखांश के बाद 3 तारीख का रेखांश दिया गया है इसलिए इसका गणित करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि जो रेखांशो का अन्तर आयेगा वह 48 घंटे का होगा 24 घंटे का अन्तर उससे आधा होगा। चन्द्र स्पष्ट की तरह शेष ग्रहों का स्पष्टीकरण भी हम वैसे ही करेंगे।
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सूर्य
राहु
1° 2
1.2.1969,8 घं. 40 सायः पर नव ग्रह स्पष्ट का गणित | ग्रह रेखांश
मंगल बुध
शुक्र शनि प्रातः 5:30 A.M. 2.2.1969
|9रा19°333 रा13° 28' | 6रा25°13' |9रा11°30 5रा12°23' | 11रा6'23' | 11रा26°53' |11रा7°50' 1.2.1969
3रा1°16' 9रा12°38
(1.2.1969) 31.1.1969 9रा17°31' | 6रा24°11'
5रा12°27' |11रा 4°26 | 11रा26°44 11रा6°50' (01.3.1969) 24घंटे की चाल
|12° 12 (-) 1°8
(-) 10.00 (चन्द्र और बुध की)
28 दिनों का अन्तर 48घंटे की चाल शेष 2° 2'
(-) 0° 4' |1° 57 09 अन्य ग्रहों की अन्य ग्रहों के
12° 14' 0° 31 (-) 1° 8' (-) 0° 2' |0° 58 0 4 (-)0°224घं. का | 24घंटे की चाल
अन्तर 24घंटे की चाल का लौ 11.3730 0.2938 | 1.6670 1.3258 2.8573 1.3949 2.5563 |2.8573 15घं. 10 मि. 10.1993 0.1993 0.1993 0.1993 | 0.1993 0.1993 | 0.1993 0.1993 कुल योग
1.5723 10.4931 | 1.8663 1.5258 3.0566 1.5942 2.7556 3.0566 लौग तालिका में | 1.5786 J0.4928 1.8573 1.5249 3.1584 1.5902 2.8573 |3.1584
की संख्या के नि.सं. | 15घ. 10मि. की चाल |0°38 17°43 10 20 -0° 43 1 01 10° 37 10 2 1 0 1'
ग्रहों के प्रातः . 9रा18°32'3रा 1°16' | 6रा24°42' |9रा12°38' |5रा12°25' | 11रा5°24 | 11रा26°48' |11रा7°50' 5घ.30मि. के रेखांश ग्रह के स्पष्ट रेखांश
201. | 20घं. 40 मि. पर रा 19°10' 3रा 8°59' | Sरा 25°2' | 9रा 11°55' | 5रा 12°24° | 11रा 6°1 | 11726°50' 11रा 749
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ग्रह स्पष्ट की तालिका
राशि
अंश
ग्रह सूर्य
- 09रा 19° 10'
मकर
19° 10
चन्द्र
- 03रा 08°59'
कर्क
09° 00'
मंगल
- 06रा 25°02'
तुला
25° 02'
बुध
-09रा 11°55'
मकर
11°55'
गुरु
- 05रा 12°24'
12° 24
- 11रा 06°01'
शुक्र शनि
कन्या मीन मीन मीन
- 11रा 26° 50
06°01' 26° 50 07° 49
राहु
- 11रा 07°49
केतु
- 05रा 07°49'
कन्या
07° 49
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15-16. Casting of Ascendant & Chalit Horoscopes
पाठ- 15-16. लग्न एवं चलित कुण्डली बनाना
जन्मपत्री की चित्रित करने के लिए कई तारीके हैं लेकिन उत्तर भारतीय चित्रित तारीका सबसे अधिक प्रचिलत है इस तारीख में एक वर्ग या आयताकार के आमने-सामने के कोनों को एक सीधी रेखा से मिलाया जाता है फिर इस आयताकार की चारो भुजाओं के मध्य विन्दु को आपस में इस प्रकार मिलाते हैं कि वह वर्ग बना लें जैसा कि चित्र में दिखाया गया है।
2
/
12
3X
AV 10
/
6
इस प्रकार इस चित्र में 12 खाने बने इन बारह कोष्टकों की बारह भाव कहा जाता है और ऊपर भाव प्रथम भाव कहलाता है और विपरीत घड़ी की चाल से प्रथम, द्वितीय, तृतीय ......द्वादश भाव होते हैं।
प्रथम भाव को लग्न कहते हैं जो लग्न स्पष्ट किया जाता है उस राशि की संख्या प्रथम भाव में लगाकर शेष भावों में विपरीत घड़ी चाल से सभी राशियों को रखा जाता है उपरान्त सभी ग्रहों की कुण्डली में ग्रह स्पष्ट की गई राशियों पर लगाकर कुण्डली तैयार हो जाती है। उदाहरण- कुण्डली से किये गये गणित में लग्न 4रा 24° 34'04" स्पष्ट हुआ अर्थात 4 राशि पूरी हो चुकी थी और पंचमी राशि चल रही थी पांचवी राशि राशि चक्र की सिंह राशि होती है इसलिए लग्न सिंह हुआ और क्रमशः राशियों की संख्या कुण्डली भावों में आ जायेंगी और ग्रहों के ग्रह स्पष्ट की राशि में लगा देंगे। लग्न स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट सारणी से जन्म कुण्डली इस प्रकार बनेगी।
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जन्म लग्न कुण्डली
गु. के.
/
च. 4
5
सू. बु.
V/शु. रा.श. ।
भाव चक्र व भाव चलित
जन्म लग्न कुण्डली में ग्रहों की स्थिति राशि अनुसार लिखी जाती है। भाव चलित कुण्डली में ग्रहों की स्थिति भाव के विस्तार अनुसार लिखी जाती है। भाव स्पष्ट सारणी अनुसार भावों का विस्तार पता चलता है भाव सन्धि भाव के प्रारम्भिक और अन्तिम रेखांश बताती है जिससे भाव का विस्तार मालूम होता है भाव मध्य भाव के मध्य में रेखांश को बताती भाव चलित कुण्डली अंकित करने में सबसे पहले भावों में राशियों की संख्या भाव मध्य के अनुसार लगाई जायेगी जैसे प्रथम भाव मध्य रेखांश 4 24° 34'04" है अर्थात् प्रथम भाव में सिंह राशि की संख्या लगाई जायेगी द्वितीय भाव मध्य रेखांश 5 24° 23 6" है अर्थात द्वितीय भाव में कन्या राशि की संख्या लगाई जायेगी इसी तरह सभी भाव के भाव मध्य रेखांश अनुसार द्वादश भावों में राशि अंकित की जाती है।
चलित कुण्डली
म.62
के
X3 च.
wX
9X शु. 11X / सू. ब. 1/12 श.
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66
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(नोट:- कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किन्हीं दो भावो में भाव मध्य रेखांश पर एक ही राशि आ रही हो उस स्थिति में दोनों भावों में संख्या एक ही लगेगी।) तदुपरान्त ग्रह स्पष्ट सारणी से ग्रह के रेखांश अनुसार जिस भाव में ग्रह आ रहा होगा उस भाव में ग्रह को लिखा जायेगा जैसे- सूर्य रेखांश 9' 19° 10' हैं और लग्न कुण्डली में यह षष्ठ भाव में अंकित किया गया है अब हम षष्ठ भाव का विस्तार भाव स्पष्ट सारणी से देखेंगे भाव षष्ठ का प्रारम्भिक रेखांश 99° 1737" हैं और षष्ठ भाव समाप्रि रेखांश 109° 28' 35 " अर्थात षष्ठभाव का विस्तार 9o9°17'37' से 109°28′ 35 तक है सूर्य का रेखांश 95 10° 10 षष्ठ भाव के विस्तार के अन्दर ही है इसलिए सूर्य को भाव चलित में षष्ठ भाव में ही अंकित किया जायेगा ।
इस तरह शुक्र के रेखांश 11'6' 1' है जो लग्न कुण्डली में अष्टम भाव में अंकित हैं और अष्टम भाव का विस्तार 119° 28'35" से 09°17' 37" तक शुक्र का रेखांश इस विस्तार में नहीं आता अर्थात् सप्तम् भाव के विस्तार में है सप्तम भाव विस्तार 109° 28'35" से 119° 28'35" है इसलिए शुक्र भाव चलित कुण्डली में सप्तम भाव में अंकित किया जायेगा इसी तरह सभी ग्रहों के भाव के विस्तार अनुसार लिखा जायेगा यह भावो में ग्रहों का सही चित्रण होगा अर्थात जिस भाव के विस्तार में ग्रह रहता है उसी भाव को प्रभावित कर वही का फल देता
है ।
इस प्रकार देखा जाए तो भाव चलित ही जन्म समय का सही आकाशीय नक्शा चित्र है इसी अनुसार फल करना चाहिए।
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17-18. Determination of Dashas (Periods)
पाठ- 17-18. दशा साधन विधि
भारतीय ज्योतिष में घटनाओं के घटने के समय की बताने के लिए अर्थात् घटना किस समय घटेगी जानने के लिए दशा पद्धति प्रचलित है सबसे प्रचलित और प्रभावी दशा विंशोत्तरी दशा है।
सभी ग्रहों की महादशाओं का जोड़ 120 वर्ष होता है। हमारे महर्षियों ने (प्राकृति आचार-विचार के अनुसार ) जीवन आयु 120 वर्ष मानी है।
महा दशा की गणना करने के लिए जन्म कालीन चन्द्रमा की स्थिति के आधार माना जाता है । चन्द्र जन्म समय जिस राशि में रहता है वह जातक की जातकीय राशि होती है चन्द्र जिस नक्षत्र में रहता है वह जातक का नक्षत्र होता है। नक्षत्र का जो स्वामी ग्रह होता है उसी की दशा जन्म समय मानी जाती है।
सूर्यादि नवग्रहों की महादशा अवधि इस प्रकार है:
सूर्य- 6 वर्ष, चन्द्र- 10 वर्ष, मंगल- 7 वर्ष, राहु 18 वर्ष, गुरु- 16 वर्ष, शनि - 19 वर्ष, बुध- 17 वर्ष, केतु - 7 वर्ष, शुक्र- 20 वर्ष अवधि मानी गई है! महादशाओं का क्रम भी इसी नक्षत्र क्रम से ही रहता है अर्थात् सूर्य के बाद, चन्द्र के बाद मंगल फिर राहु, गुरू, शनि, बुध केतु और शुक्र अन्तर दशा इसी महादशा अवधि के अनुपात में उसी क्रम में ही रहती है जिस क्रम में महादशा चलती है ।
जन्म समय महादशा की शेष अवधि निकालने की गणना इस प्रकार करेंगे।
जिस नक्षत्र में जातक का जन्म होता है उस नक्षत्र के भोगांश पर दशा की शेष अवधि निश्चित की जाती है एक नक्षत्र का मान 13° 20' अर्थात 800 कला होता है।
उपरोक्त उदाहरण में चक्र स्पष्ट 3रा 9°00' है नक्षत्र तालिका के अनुसार चन्द्र पुष्य नक्षत्र में हुआ पुष्य नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि है इस लिए जन्म समय जातक की शनि की दशा होगी। पुष्य नक्षत्र 3रा 3° 20 से प्रारम्भ होकर उरा
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16° 40' तक रहता है अगर देखा जाये तो चन्द्र के पुष्य नक्षत्र से निकलने के लिए 7° 40' और भ्रमण करना होगा अर्थात शेष नक्षत्र भोग 460 कला हुआ।
नक्षत्र समाप्ति अंश- 3रा 16° 40' नक्षत्र भोगांश- 3रा 9°00' शेष नक्षत्र अंश = 7°40' = 460' कला पुष्य नक्षत्र का स्वामी शनि होता है अर्थात् जन्म समय शनि की दशा रहेगी क्योंकि शनि को 19 वर्ष की अवधि दी है जो एक नक्षत्र मान के बराबर है जो 800 कला है और जितना चक्र का नक्षत्र भोग शेष रह गया अनुरूप दशा शेष रहेगी।
800 कला में शनि की अवधि = 19 वर्ष
= 19x460 460' कला
= 800
= 10 वर्ष 11 माह 3 दिन नोट:- एफेमेरीज की पिछले पृष्ठों में दी गई विशोतरी दशा भोग्य की तालिका दी गई है उसकी सहायता से भी आप दशा शेष निकाल सकते हैं। अब जो जन्म तारीख दे रखी हो उसमें शेष अवधि जोड़ देने से शेष रही दशा का समाप्ति काल आ जायेगा। उपरान्त क्रम से दशाओं की अवधि को जोड़ते जाएं और दशा का समाप्ति का जान लें। उपरोक्त उदाहरण में जन्म 1.2.1969 का है और शनि की शेष दशा 10 वर्ष 11 मास 3 दिन शेष रही है इसलिए मैं जन्म तारीख शनि के शेष वर्ष जोड़ दें।
वर्ष मास दिन जन्म तारीख =
1969 02 01 शनि दशा शेष वर्ष = 10. 11. 03 शनि दशा समाप्ति काल = 1980 01. बुध दशा अवधि =
17 00. 00 क्रम से समाप्ति काल 1997 01. केतु दशा अवधि =
07. 0000
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समाप्ति काल = शुक्र दशा अवधि = समाप्ति काल = सूर्य दशा अवधि = समाप्ति काल = चन्द्र दशा अवधि = समाप्ति काल = मंगल दशा अविध = समाप्ति काल =
2030. 01. 04 20.0000 2024 01. 04 06. 00 2030_01. 100000 2040 01. 04 07 0000 2047 01. 04
अन्तर्दशा साधन विधि महा दशा साधन के पश्चात् अन्तर्दशा साधन किया जाता है। महा दशा का समय दीर्घकालिक होने के कारण विभाजित कर लिया जता है। महादशा काल में सभी ग्रह अपना-अपना महादशा में फल देने की बजाय दूसरे ग्रह की अन्तर्दशा आने पर देता है। अन्तर्दशा निकालने का सूत्र है कि जिस ग्रह की महादशा हो उसके दशा वर्ष को जिस ग्रह की अन्तर्दशा निकालनी हो के दशावर्षों से गुणा करके 120 से भाग दे देना चाहिएसूत्र = महादशा वर्ष x जिस ग्रह की अन्तर्दशा निकालनी हो उसके दशा वर्ष
120 जैसे सूर्य महादशा में चन्द्र की अन्तर्दशा निकालनी है तोसूर्य महादशा वर्ष x चन्द्र महादशा वर्ष
120 अर्थात = 6x 10
__120 = 6 मास चन्द्र अन्तर्दशा
इसी प्रकार सभी ग्रहों की अन्तर्दशा निकाल लेनी चाहिए। आगे सुविधा के लिए अन्तर्दशा सारिणी दी जा रही है।
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ग्रह सू. चं. मं.
बृ. श. बु.
के.
वर्ष 0 0 0 0 0 0 0 0
मास 3 6
दिन 18
ग्रह
वर्ष
10
विंशोत्तरी महादशा में अन्तर्दशा
सूर्य महादशा में अन्तर्दशा
0 0
7
0 6
4
6
चं. मं. रा. बृ.. श.
1
रा.
4
10 9
24
मास 4 0 11
दिन 27 18
चन्द्र महादशा में अन्तर्दशा
1
7
1
1
6 9
11
7
18 12 6 6 0
बु.
11
1
ग्रह मं. रा. बृ.श.
बु.
वर्ष 0 1 0 1 0 0
7
10
के.
4
0
8
4
के. शु.
दिन 0 0 0 0 0 0 0 0 0
भौम महादशा में अन्तर्दशा
1
2
शु.
1
6
0
शु. सू.
1 0
4
सू. चं
0 0
7
27 6 0 6 0
मास
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राहु महादशा में अन्तर्दशा
ग्रह रा. बृ. श. बु. वर्ष 2 2 2 2 मास 8 4 10 6
के. 1 0
शु. सू. 3 0 0 10
चं 1 6
मं । 1 0
दिन 12
24 6
18
180
240
18
अन्तर दशा साधन विधि भी उसी अनुपात में है जिस अनुपात में दशा की अवधि दी गई है।
इसके लिए एफेमेरीज में दी गई अन्तर्दशा तालिका की सहायता से लेंगे। शनि की महादशा भोग्यकाल 10 वर्ष 11 माह 3 दिन शेष रह गये थे अर्थात् शनि की 19 वर्ष की महा दशा के 8 वर्ष 0 माह 27 दिन जन्म समय बीत चुके
थे।
अगर हम एफेमेरीज में विंशोतरी अन्तर्दशा तालिका में शनि महादशा में देखें तो 9 वर्ष 11 माह 21 दिन में शनि में शुक्र का अन्तर समाप्त हो जाता है। जन्म समय शनि महादशा 8 वर्ष 0 माह 27 दिन वितेगी अर्थात् जन्म समय शनि की महादशा में शुक्र का अन्तर चल रहा था अगर 9 वर्ष 11 माह 21 दिन में से बीती शनि की दशा अर्थात 8 वर्ष 0 माह 21 दिन घटा दें तो शेष 1 वर्ष 10 माह 24 दिन रहे जायेंगे जो शनि की महादशा में शुक्र की अन्तर दशा का शेष भोग्य काल है।
इस भोग्य काल की जन्म तारीख में जोड़ देने से शनि में शुक्र का अन्तर का समाप्ति काल आ जायेगा।
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19-20. Divisional Charts
पाठ- 19-20. वर्ग विचार
जन्मकुण्डली में विभिन्न विषयों के फलादेश करने के लिए हमें लग्न के स्थूलमान को सूक्ष्मस्तर तक पहुँचाने हेतु वर्ग साधन करते हैं। जन्मकुण्डली के विभिन्न वर्ग होते हैं। वर्गों में मुख्य रूप से दशवर्ग ही महत्वपूर्ण है। जिनमें- लग्न, होरा, द्रेष्काण, सप्तमांश नवमांश, दशमांश, द्वादशांश, षोडशांश,त्रिशांश और षठ्यांश है। होरा-यह लग्न कुण्डली का 1/2 भाग होता हैं, इससे जातक की सम्पन्न्ता का विचार किया जाता है। इसका प्रत्येक भाग का मान 15' होता है। विषम राशि
सम राशि
1, 3, 5, 7, 9, 11 0 से 15' = सिंह 15 से 30' = कर्क
2, 4, 6, 8, 10, 12 0 से 15' = कर्क 15 से 30 = सिंह
द्रेष्काण - यह लग्न कुण्डली का 1/3 भाग है। इससे जातक के भाई बहनों के बारे में जाना जाता है प्रत्येक भाग का मान 10° होता है।
द्रेष्काण तालिका अंश राशि, । मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चिक धनु मकर कुम्भ मीन
0°से10° 10°से20°
1 5
2 3 6 7
4 8
5 9
6 10
7 11
8 12
9 1
10 2
11 12 3 4
20°से30°
9
10 11
12
1
2
3
4
5
6
7
8
नवांश- यह लग्न कुण्डली का 1/9 वां भाग है। इससे जातक के जीवन साथी के बारे में जाना जाता है। प्रत्येक भाग का मान 3920' होता है।
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नवांश तालिका
अंश- 0°00'39206°40° 10°00' 13°20 16°4020°00 23°20 26°40" राशि 3°20' 6°40' 10°00' 13920' 16°40* 20°00 23°20' 26°40* 30°00 | मेष 1 2 3 4 5 6 7 8 9 वष 10 11 12 1 2 3 4 5 6 मिथुन 7 8 9 10 11 12 1 2 3 कर्क 4 5 6 7 8 9 10 11 12 सिंह 1 2 3 4 5 6 7 8 9 कन्या 10 11 12 1 2 3 4 5 6 तुला 7 8 9 10 11 12 1 2 3 वृश्चिक 4 5 6 7 8 9 10 11 12 धन 1 2 3 4 5 6 7 8 9 मकर 10 11 12 1 2 3 4 5 6 कुम्भ 7 8 9 10 11 12 1 2 3 मीन 4 5 6 7 8 9 10 11 12 सप्तांश- यह कुण्डली का 1/7 वां भाग है। इससेजातक के पुत्र पौत्रादि के बारे में जाना जाता है। प्रत्येक भाग का मान 4°17'8" होता है।
- Norm a Non n - Non
सप्तांश तालिका
25°4251" 30°00'00"
अंश - 0°00' 4°17'8' 8°34'17" 12°5125" 17°08'34' 21°25°43' राशि 4°17'8' 8°3417" 1251'25" 17834" 21°25°43' 25°42°51" मेष 1 2 3 4 5 6 वृष 8 9 10 11 12 1 मिथुन 3 4 5 6 7 8 कर्क 10 11 12 1 2 3 सिंह 5 6 7 8 9 10 कन्या 12 1 2 3 4 तुला 789 1011 वृश्चिक 2 3 4 5 6 धनु 9 10 11 12 1 मकर 4 5 6 7 8 9 कुम्भ 11 12 1 2 3 4 मीन 6 7 8 9 10 11
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दशमांश- यह लग्न कुण्डली का 1/10 वां भाग है। इससे जातक के व्यवसाय के विषय में जाना जाता है। प्रत्येक भाग का मान 3° होता है।
दशमांश तालिका अंश _ °00' 3°00' 6°00' 9°00' 12°00' 15°00' 18°00' 21°00 24°00' 27°001 राशि ||3°00' 6°00' 9°00 12°00' 15°00' 18°00' 21°00' 24°00' 27°00' 30°00' मेष 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 वृष 10 11 12 1 2 3 4 5 6 7 मिथुन 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 कर्क 12 1 2 3 4 5 6 7 8 9 |सिंह 5 6 7 8 9 10 11 12 1 2 कन्या 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 तुला 7 8 9 10 11 12 1 2 3 4 वृश्चिक 4 5 6 7 8 9 10 11 12 1 धनु 9 10 11 12 1 2 3 4 5 6 मकर 6 7 8 9 10 11 12 1 2 3 कुम्भ 11 12 1 2 3 4 5 6 7 8 मीन 8 9 10 11 12 1 2 3 4 5 द्वादशांश- यह लग्न कुण्डली का 1/12 वां भाग है। इससे माता-पिता का हर प्रकार विचार किया जाता है। प्रत्येक भाग का मान 2°30' होता है।
द्वादशांश तालिका अंश 0°00'2°30 5°00' 7°30° 10°00' 12°3015°00 17°30 20°00'22°30 25°00 27030 राशि| 2°305°00 7°30 10°00 12°30 15°00 17°30 20°00 22°30 25°00' 27°50 3000 मेष 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 वृष 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 मिथुन 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 1 2 कर्क 4 5 6 7 8 9 10 11 12 1 2 3 सिंह 5 6 7 8 9 10 11 12 1 2 3 4 कन्या 6 7 8 9 10 11 12 1 2 3 4 5 तुला 7 8 9 10 11 12 1 2 3 4 5 6 वृश्चिक8 9 10 11 12 1 2 3 4 5 6 7 धनु 9 10 11 12 1 2 3 4 5 6 7 8 मकर 10 11 12 1 2 3 4 5 6 7 8 9 कुम्भ 11 12 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 मीन 12 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
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द्रेष्काण
सू.ब.
/
श.
रा.
7
1
षोडशांश- यह लग्न कुण्डली का 1/16 वां । भाग होता है। इससे जातक के वाहनादि सुखों के बारे में जाना जाता है। प्रत्येक भाग का मान 1°52'30 होता है। त्रिंशांश- यह लग्न कुण्डली का 1/30 वां भाग होता है। इससे जातक का अभीष्ट विचार किया जाता है। प्रत्येक भाग का मान 1° होता
मं.3X
10 ग.
OX AA
4X
षट्यांश- यह लग्न कुण्डली का 1/60 वां भाग होता है। इससे जातक का सर्वांगीण (सभी विषयों पर) विचार किया जाता है। प्रत्येक भाग का मान 30' होता है।
सप्तांश
नवांश
शु.12X108 सू.
7 रा.
का
5
शु.
ANGA
M
क
बु .
बु.1 ग
दशमांश
द्वादशांश
सू. 12
3 रा/
X11
बुध,शु.
/AlA
10 रा
5सू.
|
म
11
X9बु.
كي
9के.
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21-22. Ephemeris
पाठ-21-22.पंचाग
पंचाग ज्ञान
व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेता है। उसके माता पिता बंधु-बांधव उसके अधीन नहीं होते। उस समय की कुण्डली को जातक जीवन भर प्रभावित पाता है तथा उसके अनुसार कार्य करने पर सफलता प्राप्त करता है। यदि कोई अन्य कार्य शुभ समय में किया जाए तो क्या उस समय का प्रभाव उस कार्य पर नहीं होगा? अवश्य होगा। इसलिए कार्यारंभ के मुहूर्त का महत्व बढ़ जाता है। मुहूर्त निकाल कर कार्य आरम्भ करने को बुद्धिमानी से किया कार्य भी कह सकते हैं। इसमें हमें अपनी मनमानी नहीं की अपितु प्रकृति के प्रबन्धकों का, ग्रहों का ध्यान रख कर कार्य आरम्भ कर रहे हैं। इसलिए मुहूर्त का महत्व सब ज्योतिष ग्रन्थों तथा भारतीय संस्कृति के प्रतीक ग्रन्थों जैसे महाभारत तथा रामायण में स्पष्ट शब्दों में मिलता है। महाभारत में महाभारत का युद्ध मुहूर्त निकाल कर लड़ा गया है। इसलिए मुहूर्त का बहुत महत्व है। इसलिए भारतीय संस्कृति को माननेवाले प्रत्येक कार्य को आरम्भ करने से पहले किसी योग्य तथा अनुभवी ज्योतिषी से कार्य आरम्भ करने का मुहूर्त निकलवाते हैं।
मुहूर्त मुहूर्त निकालने के लिये योग्य ज्योतिषी को वार, तिथि, नक्षत्र, योग तथा करण आदि की आवश्यकता होती है। प्रत्येक ज्योतिषी को इनको निकालना सम्भव नहीं होता। इसलिये बाजार में पंचांग मिलते हैं। बाजार में कई प्रकार के पंचाग मिलते हैं। प्रत्येक पंचांग अलग अलग जगह से प्रकाशित होता है। इसलिए उनके गणित का आधार भी अलग-अलग होता है। इसलिए जातक को चाहिये कि वे पंचांग उस स्थान का या उस पास के स्थान का खरीदना चाहिये जहां जातक रहता हो।
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पंचांग
पंचांग में प्रत्येक दिन के 5-30 प्रातः के ग्रह स्पष्ट के अंश दिये होते हैं जिससे उस दिन के किसी भी समय के ग्रह स्पष्ट निकाले जा सकते हैं तथा कुण्डली बनाई जा सकती है। पंचांग में स्थान विशेष से लग्न भी दिये होते हैं जिससे किसी भी समय का उस दिन का लग्न निकाला जा सकता है। पंचांग का अर्थ होता है पांच+अंग अर्थात मुहूर्त निकालने के लिए जिन पांच अंगों की आवश्यकता पड़ती है वे पांचों अंग पंचांग में स्पष्ट किये होते है। अंग 1. वार 2. तिथि 3. नक्षत्र 4. योग 5. करण।
हम यह जानते हैं कि वार के नाम का आधार, सूर्योदय के समय उदित होरा होती है। वह उस दिन का स्वामी होता है। शुभ कार्य कर ग्रहों के दिनों में करना पसन्द नहीं करते। इसलिये शुभ वारों का चयन किया जाता है।
हमारे मनीषियों ने हजारों वर्षों के अध्ययन तथा अनुभव के आधार पर पाया कि कुछ वार कुछ विशेष तिथि पर शुभ फल नहीं देते। इसलिये विशेष दिन, विशेष तिथि पर शुभ कार्य करना मना कर दिया। जैसे रविवार को पंचम तिथि तथा द्वादशी, सोमवार को षष्ठी तिथि तथा एकादशी, मंगलवार को सप्तमी तथा दशमी आदि शुभ कार्य के लिये माना है। ये कुयोग के नाम से जानी जाती है। विशेष वार को विशेष नक्षत्र होने पर शुभ कार्य नहीं किया जाता। जैसे यदि सोमवार को मृगशिरा नक्षत्र हो तो शुभ कार्यों में विघ्न पड़ता है। इसी प्रकार वार, तिथि तथा नक्षत्र से बनने वाले भी कुयोगों का हमारे मनीषियों ने वर्णन किया है। यह सारा विवरण हमें पंचांग में किया कराया मिल जाता है। ज्योतिषी का समय, वह परिश्रम बच जाता है। इसलिये प्रत्येक ज्योतिषी के पास उस वर्ष का पंचांग होता है जिस वार तथा वर्ष का वह शुभ मुहूर्त निकालना चाहता है। शुभ मुहूर्त में किये गये काम में सफलता व समृद्धि प्राप्त होती है। यह पहले ही लिखा जा चुका है कि ज्योतिष को तीन स्कंधों में बांटा गया है। प्रस्तत पुस्तक को अधिक लोकोपयोगी बनाने के लिए इसमें फलित को विशेष महत्त्व न देकर गणित के प्रत्येक अंग का दिग्दर्शन कराने की चेष्टा की गई
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है। यह सत्य है कि फलित का पूर्ववर्ती गणित है, किन्तु साधारण पाठकों के लिए गणित ज्योतिष इतना अनिवार्य नहीं है। साधारण जन प्रामाणिक ज्योतिर्विदों द्वारा बनाये गये पंचांगों से फलित सम्बन्धी गणित के सिद्धान्तों द्वारा अपने शुभाशुभ को जान सकता है। जन साधारण जो ज्योतिष के गूढ़ गणित का ज्ञाता नहीं है- के लिए पंचांग एक अनिवार्य वस्तु है। इसमें पांच अंग होने से इसे पंचांग कहा जाता है। ये पांच अंग हैं-तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण । वस्तुतः पंचांग भारतीय शैली का कलैण्डर है। एक विद्वान् ने पंचांग के बारे में कहा--
चतुरङ्ग बलौ येतो जगतिं वशमानयेत्।
अहं पंचाङ्ग बलवान्! आकाशं वशमानय ।। अर्थात्- पंचांग ने एक बार अपना महत्त्व बतलाते हुए उद्घोषणा की कि राजा तो बेचारा चतुरंग (चार अंग- हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल सैना) के द्वारा धरती के लोगों को ही जीत सकता है, वश में कर सकता है, लेकिन मैं पंचांग इतना बलवान् (शक्तिशाली) हूँ कि आकाश में स्थित नक्षत्रों को भी वश में कर लेता हूं। अर्थात् उनकी जानकारी दे कर लोगों को उनके अनिष्ट प्रभाव से बचा सकता हूँ। तिथि सर्वप्रथम पंचांग में तिथि दी रहती है। चन्द्रमा की एक कला को तिथि कहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा के अन्तरांशों पर तिथि का मान (तिथि के प्रारम्भ होने से लेकर उसके समाप्ति पर्यन्त) निकाला जाता है। सूर्य और चन्द्रमा के परिभ्रमण में प्रतिदिन 12 अंशों का अन्तर रहता है, यह अन्तरांशों का मध्यम मान है। एक मास में 30 तिथियां होती हैं और दो पक्ष होते हैं। पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की पन्द्रह तिथियां कृष्ण पक्ष की और अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की पन्द्रह तिथियां शुक्ल पक्ष की कहलाती हैं। चंद्रमा – सूर्य = तिथि
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वार वार का मान चौबीस घंटे या साठ घटी का होता है। सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक के समय को वार कहते हैं। सूर्योदय के समय जिस ग्रह की होरा होती है। उस दिन उसी ग्रह के नाम का वार रहता है। पृथ्वी से ग्रहों की दूरी अनुसार लिखा जाए तो इस प्रकार लिखेंगे। शनि, गुरु, मङ्गल, रवि, शुक्र, बुध और चंद्रमा ये ग्रह पृथ्वी से क्रमशः दूर शनि सबसे दूर, बृहस्पति उससे निकट मंगल उससे भी निकट है। इसीप्रकार अन्य ग्रहों को समझें। एक दिन में 24 होराएं होती हैं। एक-एक घंटे की एक-एक होरा होती है। अर्थात् घंटे का दूसरा नाम होरा है। प्रत्येक होरा का स्वामी अधः कक्षाक्रम से एक-एक ग्रह होता है। हमारे ऋषि मुनियों की दृष्टि सृष्ट्यारंभ में सबसे पहले सूर्य पर पड़ी, इसलिए पहली (1) होरा का स्वामी सूर्य को माना जाता है। अतएव पहले वार का नाम आदित्यवार या रविवार है। तत्पश्चात् उस दिन की 2 री होरा का नाम स्वामी उसके पासवाला शुक्र, 3री का बुध, 4थी का चंद्रमा, 5वीं का शनि, 6ठी का गुरु, 7वीं का मंगल, 8वीं का रवि, 9वीं का शुक्र, 10वीं का बुध, 11वीं का चंद्रमा, 12वीं का शनि, 13वीं का गुरु, 14वीं का मंगल, 15वीं का रवि, 16वीं का शुक्र, 17वीं का बुध, 18वीं का चंद्रमा, 19वीं का शनि, 20वीं का बृहस्पति, 21वीं का मंगल, 22वीं का रवि, 23वीं का शुक्र और 24वीं का बुध स्वामी होता है। पश्चात् दूसरे दिन की पहली होरा का स्वामी चंद्रमा पड़ता है, अतः दूसरा वार सोमवार या चंद्रवार माना जाता है। इसीतरह तीसरे दिन की पहली होरा का स्वामी मंगल चौथे दिन की पहली होरा का स्वामी बुध, पांचवें दिन की पहली होरा का स्वामी गुरु, छठे दिन की पहली होरा का स्वामी शुक्र एवं सातवें दिन की पहली होरा का स्वामी शनि होता है। इसलिए क्रमशः रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि ये वार माने जाते हैं।
नक्षत्र
अनेक ताराओं के विशिष्ट आकृतिवाले पुंज को 'नक्षत्र' कहते हैं। आकाश में जो असंख्य तारक मण्डल विभिन्न रूपों और आकारों में दिखलाई पड़ते हैं, वे ही नक्षत्र कहे जाते हैं। ज्योतिष में ये नक्षत्र विशिष्ट स्थान रखते हैं। आकाश मण्डल में इन समस्त तारक-पूंजों को ज्योतिष शास्त्र ने 27 भागों में बांट दिया
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है और प्रत्येक भाग का अलग से नामकरण कर दिया है। इन नक्षत्रों को और सूक्ष्मता से समझाने के लिए इनके चार-चार भाग और कर दिए गये हैं जो कि 'चरण' के नाम से जाने जाते हैं। कुछ ज्योतिर्विद 27 की बजाये 28 नक्षत्र मानते हैं, किन्तु नक्षत्र तो 27 ही हैं, 28वां नक्षत्र अभिजित् तो उत्तराषाढ़ा की अन्तिम 15 घटियां तथा श्रवण की प्रथम चार घटियों को मिलाकर 19 घटी मान का होता है, इसलिए इसे अलग से नहीं माना जाता। नक्षत्र के नाम 1.अश्विनी, 2.भरणी, 3.कृत्तिका, 4.रोहिणी, 5.मृगशिरा, 6.आर्द्रा, 7.पुनर्वसु, 8.पुष्य, 9.आश्लेषा, 10.मघा, 11.पूर्वफाल्गुनी, 12.उत्तरफाल्गुनी, 13.हस्त, 14.चित्रा, 15. स्वाति, 16.विशाखा, 17.अनुराधा, 18.ज्येष्ठा, 19.मूल, 20.पूर्वाषाढ़ा, 21.उत्तराषाढ़ा, 22.श्रवण, 23.धनिष्ठा, 24.शतभिषा, 25.पूर्वभाद्रपद, 26.उत्तरभाद्रपद, 27.रेवती।
नक्षत्रों के स्वामी देवता तथा ग्रह
राहु
बुध
केतु
शुक्र
क्र.नक्षत्र न.स्वामी देवता क्र. नक्षत्रन.स्वामी देवता 1. अश्विनी अ.कुमार केतु 15. स्वाती पवन 2. भरणी काल शुक्र 16. विशाखा शुक्राग्नि बृहस्पति 3. कृत्तिका अग्नि सूर्य 17. अनुराधा मित्र शनि 4. रोहिणी ब्रह्मा चंद्रमा 18. ज्येष्ठा इन्द्र 5. मृगशिरा चंद्रमा मंगल 19. मूल निऋति 6. आर्द्रा रुद्र राहु 20. पू.आ जल 7. पुनर्वसु अदिति बृहस्पति 21. उ.आ. विश्वेदेव सूर्य 8. पुष्य बृहस्पति शनि 22. श्रवण विष्णु चंद्रमा 9. आश्लेषा सर्प बुध 23. धनिष्ठा वसु
मंगल 10. मघा पितर केतु 24. शतभिषा वरूण 11.पू.फा. भग शुक्र 25. पू.भा. अजैकपाद । बृहस्पति 12.उ.फा. अर्यमा सूर्य 26. उ.भा. अहिर्बुध्न्य शनि 13. हस्त सूर्य चंद्रमा 27. रेवती पूषा बुध 14.चित्रा विश्वकर्मा मंगल 28. अभिजित ब्रह्मा केतु
राहु
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नक्षत्रों की संज्ञा
ज्योतिष में नक्षत्रों को मूल, पंचक, ध्रुव, चर, मिश्र, अधोमुख, ऊर्ध्वमुख, दग्ध व तिर्यङमुख आदि के नामों से जाना जाता है। मूल संज्ञक- ज्येष्ठा, आश्लेषा, रेवती, मूल, मघा, अश्विनी ये नक्षत्र मूल संज्ञक है। पंचक संज्ञक-धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्र, उत्तराभाद्र और रेवती इन नक्षत्रों में पंचक दोष माना जाता है। ध्रुव संज्ञक - उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद व रोहिणी ध्रुवसंज्ञक
चर संज्ञक- स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा चर या चल संज्ञक
मिश्र संज्ञक- विशाखा और कृतिका मिश्र संज्ञक है। अधोमुख संज्ञक- मूल, आश्लेषा, विशाखा, कृतिका, पूर्वफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वभाद्रपद, भरणी और मघा अधोमुख संज्ञक है। उर्ध्व संज्ञक- आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा उर्ध्वमुख संज्ञक है। दग्ध संज्ञक- रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मंगलवार को उत्तराषाढ़, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पति वार को उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार को ज्येष्ठा एवं शनिवार को रेवती दग्धसंज्ञक है। तिर्यङमुख संज्ञक अनुराधा, हस्त, स्वाती, पुनर्वसु, ज्येष्ठा और अश्विनी तिर्यङमुख संज्ञक है। उग्र संज्ञक – पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वफाल्गुनी, मघा व भरणी उग्र संज्ञक है। लघु संज्ञक - हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित, क्षिप्र या लघु संज्ञक हैं। मृदु संज्ञक- मृगशिरा, रेवती, चित्रा और अनुराधा मृदु या मैत्र संज्ञक है। तीक्ष्ण संज्ञक- मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा और आश्लेषा तीक्ष्ण या दारूण संज्ञक है।
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नक्षत्रों के चरण
प्रत्येक नक्षत्र को चार भागों में विभाजित किया गया है। नक्षत्र के एक भाग को चरण कहते हैं। हर चरण का एक अक्षर नियत कर दिया गया है। इस प्रकार एक नक्षत्र में चार अक्षर होते हैं। नामकरण करते समय ज्योतिषी देखता है कि बच्चे का जन्म अमुक नक्षत्र के अमुक चरण में हुआ है, उस चरण का अक्षर अमुक है, अतः बच्चे का नाम का प्रथम अक्षर भी वही रहेगा ।
क.सं.
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10.
1 2 3 4 5 6 2
11.
12.
13.
14.
15.
16.
17
18.
19.
20.
नक्षत्र का नाम
अश्विनी
भरणी
कृत्तिका
रोहिणी
मृगशिरा
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पूर्वफाल्गुनी
उत्तरफाल्गुनी
हस्त
चित्रा
स्वाति
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल पूर्वाषाढ़ा
चरणाक्षर
चू, चे, चो, ला
ली, लू, ले, लो
आ ई, उ, ए
ओ, वा, वी, वू
ये वो का, की
·
"
.
कू, घ, ङ, छ
के को हा ही
.
1
हू, हे, हो, डा
डी, डू, डे, डो
·
मा, मी, मू मे मो, टा, टी, टू
टे, टो, पा,
पी
पू, ष, ण, ठ
पे, पो रा री
"
रू, रे, रो, ता
"
ती
तू
ना, नी, नू, ने
नो, या, यी, यू
ये, यो, भा,
भी
भू, धा, फा, ढा
ते तो
"
83
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Most ki sex
उत्तराषाढ़ा
भे, भो, जा, जी श्रवण
खी, खू, खे, खो धनिष्ठा
गा, गी , गू, गे शतभिषा
गो, सा, सी, सू पूर्व भाद्रपद
से , सो, दादी उत्तरभाद्र
दू, थ, झ, ण रेवती
दे, दो, चा, ची राशि नक्षत्र न.सं. चरण न.प्रा.अंश समाप्तअंश विंशोत्तरीस्वामी
मेष
अश्विनी भरणी कृतिका
00°00 13920' 26°40"
13°20' 26°40' 30°00'
केतु शुक्र
सूर्य
वृष
कृत्तिका रोहिणी मृगशिरा
00°00' 10°00' 23°20'
10°00' 23°20 30°00'
सूर्य चन्द्र मंगल
5
2
मिथुन मृगशिरा
आर्द्रा पुनर्वसु
64
00°00' 06°40 20°00'
06°40' 20°00' 30°00'
मंगल राहु बृहस्पति
7
1
बृहस्पति
पुनर्वसु पुष्य आश्लेषा
8
4
00°00' 03920' 16°40
शनि
03°20' 16°40'
30°00' 13°20' 26°40' 30°000
बुध केतु
00°00' 13920' 26°40'
सिंह मघा 104
पूर्वफाल्गुनी 11
उ.फाल्गुनी 12 कन्या उ.फाल्गुनी 12 हस्त 134
14 2 तुला चित्रा
00°00' 10°00' 23°20' 00°00'
10°00' 23°20' 30°00' 06°40'
सूर्य चन्द्र मंगल मंगल
चित्रा
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वृश्चिक विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
धनु
मकर
स्वाती
विशाखा
कुम्भ
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उत्तराषाढ़ा
उत्तराषाढ़ा श्रवणा
धनिष्ठा
धनिष्ठा
शतभिषा
पूर्वभाद्र
मीन पूर्वभाद्र
उत्तरभाद्र
रेवती
15
16
16
17
18
19
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
20
21
21
22
23
25
25
26
27
4
3
1
4
4
4
4
1
3
4
2
2
4
3
1
4
4
06°40'
20°00'
00°00'
3°20'
16°40'
00°00'
13°20'
26°40'
00°00'
10°00'
23°20'
00°00'
06°40'
20°00'
ooloo
03°20'
16°40'
योग
20°00'
30°00'
3°20'
16°40'
30°00'
13°20'
26°40'
30°00'
राहु
बृहस्पति
बृहस्पति
शनि
बुध
3°20'
16°40'
30°00'
केतु
शुक्र
सूर्य
10°00' सूर्य
23°20' चन्द्र
30°00' मंगल
06°40' मंगल
20°00'
30°00'
राहु
बृहस्पति
बृहस्पति
शनि
बुध
योग दो प्रकार के होते हैं - नैसर्गिक तथा तात्कालिक ।
नैसर्गिक योगों का एक ही क्रम रहता है परन्तु तात्कालिक योग तिथि वार एवं नक्षत्र के विशेष संगम से बनते हैं। पंचांग में योग नैसर्गिक योग होते हैं, उसे विषकम्म आदि योग कहते हैं।
चन्द्रमा और सूर्य दोनों मिलकर जब आठ सौ कलाएं चल चुकते हैं तो एक 'योग' बीतता है। दूसरी प्रकार इसे हम यों कह सकते हैं कि योग वास्तव में चन्द्रमा और सूर्य की यात्रा की सम्मिलित दूरी पार करने का एक नाप है। योग शब्द का अर्थ होता है जोड़। यहां भी यह शब्द चन्द्रमा और सूर्य की यात्रा की दूरी के जोड़ का द्योतक है।
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योग कुल सत्ताईस हैं। अश्विनी नक्षत्र से जब चन्द्रमा और सूर्य दोनों मिलकर आठ सौ कलाएं चल चुकते हैं तो एक योग बीतता है। इस प्रकार 21,600 कलाएं अश्विनी से चल चुकने पर 27 योग बीतते हैं। चन्द्रमा और सूर्य की 360 अंशों (12 राशियों) की कलात्मक यात्रा को सत्ताईस भागों में विभाजित कर लिया गया है तथा उन भागों का नामकरण कर लिया गया है। 'योग' नक्षत्र की भांति कोई तारा समूह नहीं होता बल्कि निश्चित दूरी का एक विभाजित माप है।
योगों के नाम
1.विष्कम्भ,
2. प्रीति, 3. आयुष्मान, 4.सौभाग्य,
5.शोभन, 6. अतिगण्ड, 7. सुकर्मा,
8.धृति,
9.शूल, 10. गण्ड,
11.वृद्धि, 12.ध्रुव, 13.व्याघात,
14.हर्षण, 15.वज, 16.सिद्धि,
17.व्यतिपात, 18.वरीयान, 19.परिध,
20.शिव, 21.सिद्ध, 22. साध्य,
23.शुभ, 24. शुक्ल, 25.ब्रह्मा,
26.ऐन्द्र, 27.वैधृति। योगों के स्वामी यम, विष्णु, चन्द्रमा, ब्रह्मा, बृहस्पति, चन्द्रमा, इन्द्र, जल, सर्प, अग्नि, सूर्य, भूमि, वायु, भग, वरुण, गणेश, रुद्र, कुबेर, मित्र, कार्तिकेय, सावित्री, लक्ष्मी, पार्वती, अश्विनीकुमार, पितर और दिति क्रमशः योगों के स्वामी हैं।
करण
तिथि के आधे भाग को करण कहा जाता है, अर्थात् एक तिथि में दो करण होते
हैं।
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करणों के नाम
1.बव, 2.बालव, 3. कौलव, 4. तैत्तिल, 5.गर, 6.वणिज, 7.विष्टि, 8.शकुनि, 9.चतुष्पद, 10.नाग, 11.किंस्तुघ्न। बव, शकुनि, कौलव, तैत्तिल, गर, वणिज एवं विष्टि करणों की संज्ञा चर है जबकि शकुनि चतुष्पद, नाग एवं किंस्तुघ्न करणों की संज्ञा 'स्थिर' होती है। करणों के स्वामी बव का इन्द्र, बालव का ब्रह्मा, कौलव का सूर्य, तैत्तिल का सूर्य, गर का पृथ्वी, वणिज का लक्ष्मी, विष्टि का यम, शकुनि का कलयुग, चतुष्पद का रुद्र, नाग का सर्प एवं किंस्तुघ्न करण का स्वामी वायु है।
तिथ्यानुसार करण चक्र
तिथि
| कृष्णपक्ष
उत्तरार्द्ध | 1 | बालव कौलव
पूर्वार्द्ध
तैत्तिल
गर
तैत्तिल
तिथि शुक्लपक्ष
| पूर्वार्द्ध उत्तरार्द्ध | किंस्तुघ्न बव बालव कौलव
गर वणिज
विष्टि बव
बालव कौलव
तैत्तिल गर वणिज विष्टि बव बालव
कौलव तैत्तिल गर वणिज विष्टि
बालव कौलव तैत्तिल गर वणिज विष्टि
वणिज | बव
कौलव 6 | गर
विष्टि बालव तैत्तिल
वणिज 11 | बव
कौलव गर
विष्टि 30 | चतुष्पाद
विष्टि बालव तैत्तिल वणिज बव कौलव गर विष्टि बालव तैत्तिल वणिज शकुनि नाग
बव
बव
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23. Sunrise, Sunset, Entrance of Sun in a Sign, No Moon & Full Moon
पाठ-23.सूर्योदय, सूर्यास्त, संक्रान्ति, अमावस्या तथा पूर्णिमा विचार सूर्य उदय किसी निश्चित जगह के पूर्वी क्षितिज (Eartern HariZon) पर जिस समय सूर्य सर्व प्रथम उदय होता दिखता है वह सूर्योदय का समय होता है। सूर्य बिम्ब के ऊपरी हिस्से से निचले हिस्से तक उदय होने में लगभग 6 मिनट का अन्तर होता है। जब सूर्य के बिम्ब का मध्य भाग निश्चित जगह के पूर्वी क्षितिज में होता है (वह क्षण) उस जगह के लिए सूर्योदय समय माना जाता है। सूर्य अस्त इसी तरह किसी निश्चत जगह के लिए पश्चिमी क्षितिज पर जब सूर्य के बिम्ब का मध्य भाग रहता है। वह समय उस जगह के लिए सूर्यास्त का समय माना जाता है। सूर्योदय और सूर्यास्त साधन विधि एफिमेरीज में दिए गए समानुपात आंकड़ो से विधि के द्वारा सूर्योदय-सूर्यास्त के समय की संगणना इस प्रकार करें। 1. सूर्योदय-सूर्योस्त विभिन्न स्थानों पर उनके अंक्षाश अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। जिस स्थान का सूर्योदय सूर्यास्त जानना है उस स्थान का अक्षांश नोट करें। 2. (Indain Exphemerier) के पृष्ट नं. 94.95 पर दी गई सूर्योदय– सूर्यास्त तालिका अनुसार उन दो तारीखों को चुनिए जिनमें वह तारीख आती हो जिसका सूर्योदय सूर्यास्त निकालना है इससे दो ऐसे अक्षांशो को चुनिए जिसमें उस स्थान का अक्षांश आता हो जिस निश्चित स्थान का सूर्यास्त–सूर्योदय निकालना है। 3. समानुपात विधि द्वारा सूर्योदय और सूर्यास्त के समय ज्ञान करें यह समय सूर्य के बिम्ब के ऊपरी भाग के दिखाई देने का औसत समय होगा। सूर्योदय के समय में 3 मिनट जोड़ देने से सूर्य बिम्ब का माध्य भाग सूर्योदय का स्थानीय समय ज्ञात होगा इसी से सूर्यास्त में 3 मिनट घटाना दे जो उपलधि होगी वह सूर्य बिम्ब का माध्य भाग सूर्यास्त का स्थानीय समय होगा। 4.सूर्योदय-सूर्यास्त का भारतीय मानक समय निकालने के लिए निश्चित स्थान के लिए समय संस्कार करें।
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उदाहरण 21 जून 2001 को दिल्ली का सूर्यादय ज्ञात करें ? दिल्ली का अक्षांश = 28° 39' उत्तर = 20°+8°39' = 20°+8°.65° भारतीय समय संस्कार = + 21मि. 08 सै. दिल्ली का अक्षांश 28°39' तालिका में जिन दो अक्षांशो में आता है वह है 20° से 30° उत्तर सूर्योदय-सूर्यास्त 21 जून 2001 का सूर्योदय– सूर्यास्त अक्षांश, 2039' पर इस तरह निकालेंगे।
सूर्योदय अक्षांश
+20° +30°
अन्तर 21 जून 521m 4.59m -22m सूर्योदय का स्थानीय समय ___ = 5121(-) (865°x22m)
= 5121m_1903
= 5'02m मानक समय संस्कार
+ 21M.08 सूर्योदय (ऊपरी हिस्सा
= 5123.08 (भारतीय मानक समय) सूर्य बिम्ब का मध्य भाव उदय के लिए 3 मिनट जोडे अर्थात 5 23m 08 (+)3m = (51 26m 08')
सूर्यास्त
अक्षांश ___ +20° +30°
अन्तर 21 जून 18'42m
+22m सूर्यास्त का स्थानीय समय = 18*42m (+) (865°x22m)
18" 42m +19.03
= 1901m,os मानक समय संस्कार
(+) 21mo8 सूर्यास्त (ऊपरी हिस्सा
= 194 22m.08
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(भारतीय मानक समय) सूर्य बिम्ब का मध्य भाव अस्त के लिए 3 मिनट घटाएं अर्थात् 191 22m 08 (-)3m = (19h 19m 08) भारतीय ज्योतिष में सूर्य संक्रान्ति, अमावस्या तथा पूर्णिमा का विशेष महत्व है। सूर्य संक्रान्ति के आधार पर मास का फल देखा जाता है। अंग्रेजी तारीखों के आधार पर सूर्य संक्रान्ति (सूर्य का दूसरी राशि में प्रवेश) लगभग इस दिन होती
है।
मेष में सूर्य प्रवेश 13 या 14 अप्रैल वृष में सूर्य प्रवेश 14 या 15 मई मिथुन में सूर्य प्रवेश 15 जून कर्क में सूर्य प्रवेश 16 या 17 जुलाई सिंह में सूर्य प्रवेश 16 या 17 अगस्त कन्या में सूर्य प्रवेश 17 अक्तूवर तुला में सूर्य प्रवेश 17 सितम्बर वृश्चिक में सूर्य प्रवेश 15 या 16 नवम्बर धनु में सूर्य प्रवेश 16 दिसम्बर मकर में सूर्य प्रवेश 13 या 14 जनवरी कुम्भ में सूर्य प्रवेश 12 फरवरी मीन में सूर्य प्रवेश 14 मार्च अंग्रेजी मास 30 या 31 दिन के होते हैं तथा फरवरी 28 या 29 दिन की होती है इसलिये एक दिन आगे या पीछे हो सकता है। हमारे पंचांगों में सक्रांति का दिन और समय दिया होता है। उनके द्वारा हम निश्चित प्रकार से जान सकते है। जब सूर्य चन्द्रमा के ऊपर से गोचर करता है तो उसे प्रथम भाव मानते हैं। इस प्रकार मोटे-मोटे प्रकार से निम्न फल हो सकता है। सूर्य का प्रथम भाव में गोचर जातक को परिश्रम करवाता है, धन खर्च करवाता है, जातक क्रोधिक रहता है। यात्रा करवाता है। द्वितीय भाव में गोचर- धन नाश, सुख नाश, जिद्दी तथा लोगों के द्वार धोखा खाता है।
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तृतीय भाव में गोचर- स्थान प्राप्ति धन संग्रह से हर्ष, शुभ समाचार प्राप्त हो, शत्रु का नाश हो। चतुर्थ भाव में गोचर- रोग, सुख नाश पंचम भाव में गोचर- क्रोध, मन दुखी, रोग षष्ठ भाव में गोचर- रोगों का नाश, शत्रु का नाश सप्तम भाव में गोचर-यात्रा, पेट या गुदा में पीड़ा सम्मान हानि, मन दुखी अष्टम भाव में गोचर- रोग, मन दुःखी, कलह, राजा या अधिकारी से भय उनकी नाराजगी का भय नवम भाव में गोचर- अपने प्रिय लोगों से बिछोह, उद्योग में असफलता, मन दुःखी, कष्ट दशम भाव में गोचर- कार्य सिद्धि, मन में हर्ष, उत्साह एकादश भाव में गोचर- स्थान प्राप्ति, मान-सम्मान प्राप्ति धनलाभ, रोग से छुटकारा, मन प्रसन्न द्वादश भाव में गोचर- क्लेश धन की वर्बादी, रोग दोस्त दुश्मनी करें। यह स्थूल फल दिया गया है। पूर्णफल तो जन्मकुण्डली में सूर्य की स्थिति तथा दशान्तर दशा पर निर्भर करता है। यह फल भाव के कारक के आधार पर तथा सूर्य के शुभाशुभ स्थानों को ध्यान में रखकर दिया गया है। यह सूर्य संक्रान्ति के आधार पर है। सूर्य संक्राति का नक्षत्र से गोचर विचार जिस दिन संक्राति हो उस दिन चन्द्रमा का नक्षत्र लिख ले तथा जन्म के समय जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा है उसको भी लिख ले। उसे जन्म नक्षत्र कहते है। संक्राति के दिन जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा था उससे लेकर जन्म नक्षत्र तक गिने। तथा संख्या में एक जोड़ें यदि संख्या 1,2,3 में से कोई हो तो यात्रा, रास्ता चलना पड़े। 4,5,6,7,8,9 में से कोई हो तो - भोग, सुख 10,11,12 में से कोई हो तो - कष्ट 13,14,15,16,17,18 में से कोई हो तो- नवीन वस्त्र या वस्तु की प्राप्ति 19,20,21 में से कोई हो तो - हानि 22,23,24,25,26,27 में से कोई हो तो- धन की प्राप्ति होती है।
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माना किसी का जन्म नक्षत्र भरणी है तथा संक्राति के दिन चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र पर है। ज्येष्ठा से भरणी तक गिनने पर 12 नक्षत्र आये 12 में एक जोड़ा तो 13 नक्षत्र हुए। 13 नक्षत्र का नवीन वस्त्र या वस्तु की प्राप्ति है। अर्थात् जातक को उस मास में नवीन वस्त्र या अन्य कोई वस्तु प्राप्त होगी। हम इसमें एक की संख्या इस कारण जोड़ते है कोई इसमें अभिजित् नक्षत्र को भी गिनते हैं। नक्षत्रों का परिचय जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर होता है उसे (1) जन्म नक्षत्र कहते है। जन्म नक्षत्र से दसवां नक्षत्र (2) कर्म नक्षत्र कहलाता है। उन्नीसवां नक्षत्र (3) आधान नक्षत्र, तीसरा, नक्षत्र (6) वध तथा वाईसवां नक्षत्र (7) वेनाशिक नक्षत्र कहलाता है, यदि इन सात नक्षत्रों का वेध हो तो कष्ट या मृत्यु का भय रहता है। यदि साथ में कोई अन्य शुभ ग्रह हो तो केवल हानि होती है। इस वेध को हम सप्त शलाका के द्वारा देखते है जो निम्न प्रकार से बनाई जाती है।
उत्तर
धनिष्ठा शतभिषापू0भा उ०भा० रेवती अश्विनी भरणी
श्रवण
और कृतिका
रोहिणी
अभिजित् उषा সুOO
मृगशिर
पश्चिम
आर्द्रा
AAAAM पुनर्वसु
ज्येष्ठा अनुराधा
पुष्य
आश्लेषा
विशाखा स्वाती चित्रा हस्त उ०फा० पू०फा0 मघा
दक्षिण
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सात रेखाएं आड़ी तथा सात रेखाएं इनको काटती हुई खड़ी खीचिये जैसे चित्र में दिखाया गया है। पूर्वोत्तर दिशा से आरम्भ कर कृतिका आदि अट्ठाइस (अभिजित् सहित) नक्षत्रों के नाम लिखेंगे। तो ऊपर वाला चित्र तैयार हो जाएगा। अब यदि जन्म नक्षत्र पर से आरम्भ करे और जन्म नक्षत्र पर 1 अंक लिखे और क्रम से सत्ताईस तक की गिनती लिखें तथा अभिजित् पर 21 (अ) लिखे। फिर गोचर में जो ग्रह जिस नक्षत्र पर हो उसको लिख डालें। यदि जन्म नक्षत्र का सूर्य से वेध हो तो कष्ट हो या मृत्यु भय हो, दसवें नक्षत्र का वेध हो तो धन नाश, उन्नीसवे नक्षत्र का वेध हो तो चिन्त तथा कष्ट आदि। इसी प्रकार यदि अन्य ऊपर बताए गए 7 नक्षत्रो में से किसी का वेध हो तो जातक को कष्ट होता है। धन नाश होता है। इस प्रकार सूर्य से मास का फल, चन्द्र से दिन का फल, शनि से वर्ष का फल, आदि जान सकते हैं। समय को जान कर उसका उपाय कर सकते है।
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24. The Different Phases of Moon
पाठ-24. चन्द्रमा की कलाएं
चन्द्रमा की तीन मुख्य विशेषताएं है। चन्द्रमा प्रकाश हीन उपग्रह है (2) पृथ्वी के चारों ओर परिभ्रमण करता है। (3) इसका भ्रमण पथ (कक्षा) क्रांति वृत से लगभग 5° का कोण बनाती है।
सूर्य की किरण
लाइन
सूर्य की किरणें 4
आट
.
--
--
XDX
स/अ
।
सूर्य की किरणें
चंद्र का भ्रमण मार्ग
6
अ
लि
असा
/ल
चित्र 10
यदि हम यह मान कर चले कि सूर्य की किरणें चन्द्रमा पर लम्बवत् पड़ती है तो जिस भाग पर किरणें पड़ेगी वह भाग प्रकाशित होगा। जिस भाग पर किरणे नहीं पड़ेगा वह भाग अप्रकाशित होगा, जैसे चित्र 10 में काला भाग दिखाया गया है। अब पृथ्वी पर खड़े होकर जब चन्द्रमा को देखेंगे तो चन्द्रमा हमें चित्र में सादा भाग में दिखने की तरह दिखेगा। पूर्णिमा के दिन पूरा चन्द्रमा प्रकाशवान दिखाई पड़ता है। जैसे चित्र में नम्बर 1 अमावस्या के दिन चन्द्रमा न. 5 की तरह दिखाई देगा। इसलिये चन्द्रमा के परिभमण को कृष्ण पक्ष, जब चन्द्रमा की कलाएं कम होती जाती है तथा शुक्ल पक्ष, जब चन्द्रमा की कलाएं बढ़ती जाती हैं के रूप में दिखाया गया है।
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ग्रहण सूर्य एक तारा है तथा सौर मंडल में एक मात्र प्रकाशित आकाशीय पिण्ड है। सौर मंडल में अन्य ग्रह सूर्य से पड़ने वाले प्रकाश को परावर्तित करते हैं। प्रत्येक माह का अपना अपना गुरुत्वाकर्षण बल होता है जिसके प्रभाव से सब ग्रह एक-दूसरे से हुए हैं।
चन्द्र ग्रहण
ख सूर्य की किरणें ,
सूर्य
चित्र 11
चन्द्रमा का पथ चन्द्रमा जब आकश में भ्रमण करते हुए पृथ्वी को छाया वाले मार्ग से गुजरता है तब चन्द्र ग्रहण लगता है देखो चित्र 11 ऐसा तभी होगा जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा तीनों लगभग एक सीधी रेखा में आएंगे। चन्द्रमा की कक्षा (वृत) क्रांति वृत पर लगभग 5° का कोण बनाती है इसलिए जब-जब तीनों एक सीध में आते हैं तो चन्द्रमा क्रांति तल के पास हो भी सकता है नहीं भी हो सकता। इसलिए चन्द्रमा एक सीधे में हो भी सकता है और नहीं भी। जब पूर्णमा के दिन चन्द्रमा पृथ्वी तथा सूर्य के सीध में होता है तो चन्द्र ग्रहण लगता है। यदि एक सीध में नहीं होता तो चन्द्र ग्रहण नहीं लगता। चन्द्र ग्रहण तभी लगता है जब पूर्णमा वाले दिन सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा एक सीध में हो तथा चन्द्रमा ठीक या लगभग राहु या केतु बिन्दु पर भी हो। जब चन्द्रमा का पूरा बिम्ब पृथ्वी की छाया में आता है तो पूर्ण चन्द्र ग्रहण होता है। जब विम्ब का कुछ भाग छाया में आता है तो आंशिक चन्द्र ग्रहण होता है। ऊपर चित्र 11 में सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्र एक सीध में पूर्णिमा के दिन दिखाएं गए हैं। शंकु, अबद को काला दिखाया गया है क्योंकि इसमें सूर्य की किरणे बिल्कुल नहीं आ रही।
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शंकु अदग तथा ब, घ, द हल्के काले रंग में दिखाया गया है क्योंकि यहां सूर्य की किरणें आंशिक रूप में पड़ रही है। जब चन्द्रमा पूर्ण काला छाया वाले भाग में से गुजरता है तो पूर्ण चन्द्र ग्रहण लगता है। चन्द्र ग्रहण की पूरी अवधि कभी भी 1 घण्टा 45 मिनट से अधिक नहीं होती। इस पूरी अवधि में चन्द्रमा गहरी छाया के क्षेत्र से गुजर रहा होता है। सूर्य ग्रहण जब सूर्य तथा पृथ्वी के मध्य चन्द्रमा सीधी रेखा में आता है तब सूर्य ग्रहण लगता है। यह अमावस्या को होता है। तथा चन्द्रमा राहु या केतु बिन्दु के पास होगा।
अ
ये
-
पृथ्वी
चन्द्रमा
चित्र 12
सूर्य ग्रहण के भी वहीं कारण है जो चन्द्र ग्रहण के हैं। इसमें केवल चन्द्रमा सूर्य तथा पृथ्वी के मध्य स्थित होता है। पूर्ण सूर्य ग्रहण में सूर्य का पूरा बिम्ब दिखाई नहीं पड़ता। आंशिक सूर्य ग्रहण में सूर्य का कुछ भाग दिखाई पड़ता है। एक तीसरी प्रकार का भी सूर्य ग्रहण होता है जिसको बलयाकार सूर्य ग्रहण (Annutar solar Elipoe) कहते हैं। यह सूर्य ग्रहण उस समय होता है जब चन्द्रमा पृथ्वी से अधिक दूरी पर होता है तथा सूर्य पृथ्वी से निकटतम् दूरी (Perihelion) पर होता है। अन्य शर्ते वहीं रहती है। वलयाकार सूर्य ग्रहण इसलिये होता है क्योंकि चन्द्रमा का आमासीय कोणी व्यास सूर्य के कोणीय व्यास से कम है। जिसके कारण चन्द्रमा सूर्य को पूर्ण रूपेण ढ़क पाने में असमर्थ होता है। चन्द्रमा केवल सूर्य के केन्द्र को ही ढक पाता है जिससे सूर्य के किनारे दिखाई पड़ते हैं और सूर्य एक हीरे की अंगूठी की तरह दिखाई पड़ता है। देखे चित्र 12
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25-26. The Nine Planets in Different Houses
पाठ-25-26. द्वादश भावों में रहने वाले नवग्रहों का फल
सूर्य
1. लग्न (प्रथम) में सूर्य हो तो जातक स्वाभिमानी, चंचल, कृशदेही, प्रवासी उन्नत नासिका, विशाल ललाटवाला, पित्त-वातरोगी, शूरवीर, अस्थिर सम्पत्तिवाला एवं अल्पकेशी होता है। 2. द्वितीय भाव में सूर्य हो तो जातक भाग्यवान्, सम्पत्तिवान्, मुखरोगी, झगड़ालू, नेत्रकर्णदन्तरोगी, राजभीरु, घरेलू जीवन दुःखी एवं स्त्री के लिए कुटुम्बियों से झगड़ने वाला होता है। 3. तृतीय भाव में सूर्य हो तो जातक, सरकार से सम्मान प्राप्त, कवि, भाई और सम्बन्धियों के कारण दुःखी, पराक्रमी, प्रतापशाली, लब्धप्रतिष्ठ एवं बलवान् होता
4. चतुर्थभाव में सूर्य हो तो जातक परमसुन्दर, कठोर, पितृधननाशक, चिन्ताग्रस्त, भाईयों से वैर करने वाला, गुप्तविद्या प्रिय एवं वाहन सुखहीन होता है। 5. पंचमभाव में सूर्य हो तो जातक अल्पसन्तितिवान्, बुद्धिमान्, सदाचारी, रोगी, दुखी, शीघ्र क्रोधी एवं वंचक होता है। 6. षष्ठभाव में सूर्य हो तो जतक वीर्यवान्, मातुल कष्टकारक, तेजस्वी, शत्रुनाशक, बलवान्, श्रीमान, निरोगी एवं न्यायवान् होता है। 7. सप्तम भाव में सूर्य हो तो जातक चिन्तायुक्त राज्य से अपमानित, आत्मरत, कठोर, स्वाभिमानी एवं विवाहित जीवन दुःखी होता है। 8. अष्टमभाव में सूर्य हो तो जातक धैर्यहीन, निबुद्धि, सुखी, धनी, क्रोधी, चिन्तायुक्त एवं पित्तरोगी होता है। 9. नवमभाव में सूर्य होतो जातक साहसी, ज्योतिषी, नेता सदाचारी, तपस्वीयोगी, वाहनसुख, भृत्यसुख एवं पिता के लिए अशुभ होता है। 10. दशमभाव में सूर्य हो तो जातक-प्रतापी, व्यवसाय कुशल, राजमान्य लब्ध-प्रतिष्ठ, राजमन्त्री, उदार, ऐश्वर्य सम्पन्न एवं लोकमान्य होता है।
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11. ग्यारहवें भाव में सूर्य हो तो जातक धनी, बलवान्, सुखी, स्वाभिमानी, तपस्वी, मितभाषी, सदाचारी, योगी, अल्पसन्तति एवं उदररोगी होता है। 12. बारहवें भाव में सूर्य हो तो जातक वाम नेत्र तथा मस्तक रोगी आलसी, उदासीन, परदेशवासी, मित्र-द्वेषी एवं कृश शरीर होता है।
चन्द्रमा
1. लग्न (प्रथम) में चन्द्रमा हो तो जातक बलवान्, सुखी, स्थूलशरीर, गान वाद्यप्रिय, ऐश्वर्यशाली, व्यवसायी, उदार, धनी एवं विद्वान होता है। 2. द्वितीयभाव में चन्द्रमा हो तो जातक परदेशवासी, भोगी, सुन्दर मधुरभाषी, भाग्यवान्, सहनशील एवं शान्तिप्रिय होता है। 3. तृतीय भाव में चन्द्रमा हो तो जातक आस्तिक, तपस्वी, प्रसन्नचित्त, कफरोगी, मधुरभाषी प्रेमी, भाईयों और बहिनों का रक्षक, साहसी, विद्वान, एवं कंजूस होता
4. चतुर्थभाव में चन्द्रमा हो तो जातक सुखी, मानी, दानी, उदार, रोगरहित, राजद्वेषवर्जित, कृषक, विवाह के पश्चात् भाग्योदयी, जलजीवी एवं बुद्धिमान होता है। 5. पंचमभाव में चन्द्रमा हो तो जातक सदाचारी, कन्यासन्ततिवान्, चंचल सट्टे से धन कमानेवाला एवं क्षमाशील होता है। 6. षष्ठभाव में चन्द्रमा हो तो जातक अल्पायु, आसक्त, कफरोगी, खर्चीले स्वभाववाला, नेत्ररोगी एवं भृत्यप्रिय होता है। 7. सप्तमभाव में चन्द्रमा हो तो जातक सभ्य, धैर्यवान् नेता, विचारक, प्रावासी, जलयात्रा करने वाला, व्यापारी, अभिमानी, वकील, कीर्तिमान, शीतल स्वभाववाला एवं स्फूर्तिवान् होता है। 8. आठवेंभाव में चन्द्रमा हो तो जातक कामी, व्यापार से लाभवाला, विकाग्रस्त प्रमेहमरोगी, वाचाल, स्वाभिमानी, बन्धन से दुखी होने वाला एवं ईर्ष्यालु होता है। 9. नवेंभाव में चन्द्रमा हो तो जातक विद्वान, विद्यप्रिय, चंचल, न्यायी, प्रवास-प्रिय,
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कार्यशील,धर्मात्मा. सन्तति-सम्पत्तियुक्त सुखी, साहसी एवं अल्पभ्रातृवान् होता
10. दसवेंभाव में चन्द्रमा हो तो जातक कार्यकुशल, व्यापारी, कार्यपरायण, सुखी, यशस्वी, विद्वान्, कुल-दीपक, दयालु, निर्बल बुद्धि, सन्तोषी लोकहितैषी, मानी, प्रसन्नचित्त एवं दीर्घायु होता है। 11. ग्यारहवें भाव में चन्द्रमा हो तो जातक गुणी, चंचलबुद्धि, सन्तति और सम्पत्ति से युक्त, सुखी, यशस्वी, लोकप्रिय, दीर्घायु, मन्त्रज्ञ, परदेशप्रिय एवं राज्यकार्यदक्ष होता है। 12. बारहवें भाव में चन्द्रमा हो तो जातक मृदुभाषी, चिन्ताशील, एकात्तप्रिय, क्रोधी, कफरोगी, चंचल, नेत्ररोगी एवं अधिक व्यय करने वाला होता है।,
मंगल
1. लग्न (प्रथम) में मंगल हो तो जातक, चपल, क्रूर, महत्वाकांक्षी, विचार रहित, गुप्तरोगी, उतावला, लौहधातु एवं व्रणजन्य, कष्ट से युक्त, व्यवसायहानि, दुर्घटना की सम्भावना, दुःखी, निर्धन एवं साहसी होता है। 2. द्वितीय भाव में मंगल हो तो जातक कटुभाषी, नेत्रकर्ण रोगी, कतिक्त रसप्रिय, धर्मप्रेमी, चोर से भक्ति, कुटुम्ब क्लेश वाला, पशुपालक, निर्बुद्धि एवं निर्धन होता है। 3. तृतीयभाव में मंगल हो तो जातक कटुभाष, भ्रतृकष्टकारक, प्रदीप्त जठराग्निवाला, बलवान्, बन्धुहीन, सर्वगुणी, साहसी, धैर्यवान् प्रसिद्ध एवं शूरवीर होता है। 4. चतुर्थभाव में मंगल हो तो जातक सन्ततिवान्, मातृसुखहीन, वाहनसुख, प्रवासी, अग्निभययुक्त, अल्पमृत्यु चा अपमृत्यु प्राप्त करने वाला, कृषक, बन्धुविरोधी एवं लाभ युक्त होता है। 5. पंचम भाव में मंगल हो तो जातक बुद्धिमान्, चंचल, गुप्तरोगी, कृशशरीरी, रोगी, विशेष रूप से उदररोगी, व्यसनी, कपटी, उग्रबुद्धि एवं सन्तति-क्लेश युक्त होता है। 6. छठेभाव में मंगल हो तो जातक बलवान्, धैर्यशाली, प्रबल जठराग्नि, कुलवन्त, प्रचण्ड शक्ति, शत्रुहन्ता, ऋणी, दादरोगी, क्रोधी, पुलिस अफसर, व्रण
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और रक्तविकार युक्त एवं अधिकव्यय करने वाला होता है।
7. सातवें भाव में मंगल हो तो जातक वातरोगी, राजभीरु, शीघ्रकोपी, कटुभाषी, स्त्रीदुःखी, धूर्त, मूर्ख, निर्धन, घातकी, धननाशक एवं ईर्ष्यालु होता है।
8. आठवें भाव में मंगल हो तो जातक व्याधिग्रस्त व्यसनी, मद्यपायी, कठोरभाषी, उन्मत्त, नेत्ररोगी, शस्त्रचोर, संकोची, अग्निमीरु, धनचिन्ता युक्त एवं रक्तविकारयुक्त होता है।
9. नौवें भाव में मंगल हो तो जातक अभिमानी, क्रोधी, नेता, द्वेषी, अल्पलाभ करने वाला, यशस्वी, असन्तुष्ट, भातृविरोधी, अधिकारी एवं ईर्ष्यालु होता है। 10. दसवें भाव में मंगल हो तो जातक कुलदीपक, स्वाभिमानी सन्तति कष्टवाला, धनवान्, सुखी उत्तम वाहनों से सुखी एवं यशस्वी होता है।
11. ग्यारवें भाव में मंगल हो तो जातक धैर्यवान्, न्यायवान्, प्रवासी, साहसी, लाभ करने वाला, क्रोधी, झगड़ालू, दम्भी एवं कटुभाषी होता है।
12. बारहवें भाव में मंगल हो तो जातक नेत्ररोगी, स्त्रीनाशक, उग्र ऋणी, झगड़ालू, मूर्ख, व्ययशील एवं नीच प्रकृति का पापी होता है।
बुध
1. लग्न (प्रथम) में बुध हो तो जातक आस्तिक, गणितज्ञ, दीर्घायु, उदार - विनोदी, वैद्य, विद्वान, स्त्रीप्रिय मितव्ययी एवं मिष्टभाषी होता है।
2. द्वितीयभाव में बुध हो तो जातक सुखी, सुन्दर, वक्ता, साहसी, सत्कार्यकारक, संग्रही, दलाल या वकील का पेशा करने वाला, मिष्टाभभोजी, गुणी एवं मितव्ययी होता है।
3. तृतीयभाव में बुध हो तो जातक सद्गुणी, कार्यदक्ष, परिश्रमी, मित्रप्रेमी, भीरु, धर्मात्मा, यात्राशील, व्यवसायी, चंचल, अल्पभ्रातृवान्, विलासी, सन्ततिवान्, कवि, सम्पादक, सामुद्रिकशास्त्र का ज्ञाता एवं लेखक होता है।
4. चतुर्थभाव में बुध हो तो जातक पण्डित भाग्यवान् नीतिवान्, नीतिज्ञ, लेखक, विद्वान् बन्धुप्रेमी, उदार गतिप्रिय आलसी स्थूलदेही वाहनसुखी एवं दानी होता है।
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5. पंचमभाव में बुध हो तो जातक उद्यमी, विद्वान्, कवि प्रसन्न कुशाग्रबुद्धि, गण्य-मान्य, सुखी, वाद्यप्रिय एवं सदाचारी होता है।
6. षष्ठभाव में बुध हो तो जातक विवेकी, कलहप्रिय, वादी, रोगी, आलसी, अभिमानी, परिश्रमी, कामी, दुर्बल एवं स्त्रीप्रिय होता है।
7. सातवें भाव में बुध हो तो जातक सुन्दर, विद्वान्, कुलीन, व्यवसायकुशल, धनी, लेखक, सम्पादक, उदार, सुखी, अल्पवीर्य, दीर्घायु एवं धार्मिक होता है ।
8. अष्टमभाव में बुध हो तो जातक दीर्घायु, अभिमानी, राजमान्य कृषक, लब्धप्रतिष्ठ, मानसिक दुखी, कवि, वक्ता, न्यायाधीश, मनस्वी, धनवान् एवं धर्मात्मा होता है।
9. नवमभाव में बुध हो तो जातक विद्वान् लेखक, ज्योतिषी, धर्मभीरु, व्यवसाय प्रिय, भाग्यवान्, सम्पादक, गवैया, कवि एवं सदाचारी होता है।
10. दशमभाव में बुध हो तो जातक सत्यवादी, मनस्वी, व्यवहार कुशल, लोकमान्य विद्वान लेखक, कवि जमींदार, मातृ-पितृ भक्त राजमान्य, न्यायी एवं भाग्यवान होता है।
11. ग्यारहवें भाव में बुध हो तो जातक ईमानदार, सुन्दर, पुत्रवान् सरदार, गायनप्रिय, विद्वान्, प्रसिद्ध, धनवान्, सदाचारी, योगी, दीर्घायु, शत्रुनाशक एवं विचारवान् होता है।
12. बारहवें भाव में बुध हो तो जातक अल्पभाषी, विद्वान्, आलसी धर्मात्मा, वकील, सुन्दर, वेदान्ती, लेखक, दानी एवं शास्त्रज्ञ होता है।
बृहस्पति
1. लग्न ( प्रथम ) में गुरु हो तो जातक विद्वान् दीर्घायु, ज्योतिषी कार्यपरायण, लोकसेवक, तेजस्वी, प्रतिष्ठित, स्पष्टवक्ता, स्वाभिमानी सुन्दर सुखी, विनीत, पुत्रवान् धनवान्, राज्यमान, सुन्दर एवं धर्मात्मा होता है।
2. द्वितीयभाव में गुरु हो तो जातक मधुरभाषी, सम्पत्ति और सन्ततिवान्, सुन्दरशरीरी, सदाचारी, पुण्यात्मा, सुकार्यरत लोकमान्य राज्यमान्य व्यवसायी, दीर्घायु, शत्रुनाशक एवं भाग्यवान होता है।
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3. तृतीयभाव में गुरु हो तो जातक शास्त्रज्ञ, जितेन्द्रिय, लेखक, कामी, प्रवासी, स्त्रीप्रिय, व्यवसायी, मन्दाग्नि, वाहनयुक्त, पर्यटनशील, विदेशप्रिय, ऐश्वर्यवान बहुत भाई बहन, आस्तिक एवं योगी होता है। 4. चतुर्थभाव में गुरु हो तो जातक शौकीन मिजाज, सुन्दरदेही, आरामतलब, परिश्रमी, ज्योतिषी, उच्चशिक्षा प्राप्त, कमसन्तान, सरकार द्वारा सम्मानित, माँ से स्नेह करने वाला, कार्यरत, उद्योगी, लोकमान्य, यशस्वी एवं व्यवहारज्ञ होता
5. पंचमभाव में गुरु हो तो जातक नीतिविशारद, सन्ततिवान्, सट्टे से धन प्राप्त करने वाला, कुलश्रेष्ठ, लोकप्रिय, कुटुम्ब में सबसे ऊँचा स्थान, ज्योतिषी एवं आस्तिक होता है। 6. षष्ठभाव में गुरु हो तो जातक विवेकी, प्रसिद्ध, ज्योतिषी, विद्वान् सुकर्मरत, दुर्बल, उदार, प्रतापी, नीरोगी, लोकमान्य, बहुत कमशत्रु एवं मधुरभाषी होता है। 7. सप्तमभाव में गुरु हो तो जातक सुन्दर, धैर्यवान्, भाग्यवान्, प्रवासी, सन्तोषी, स्त्रीप्रेमी, परस्त्रीरत, ज्योतिषी, नम्र, विद्वान् वक्ता एवं प्रधान होता है। 8. अष्टमभाव में गुरु हो तो जातक दीर्घायु, नम्रव्यवहार, लेखक, सुखी, शान्त, मधुरभाषी, विवेकी, ग्रन्थकार, कुलदीपक, ज्योतिषप्रेमी, मित्रों द्वारा धननाशक, गुप्तरोगी एवं लोभी होता है। 9. नवमभाव में गुरु हो तो जातक पराक्रमी, धर्मात्मा, पुत्रवान, बुद्धिमान, राजपूज्य, तपस्वी, विद्वान्, योगी, वेदान्ती, यशस्वी, भक्त, भाग्यवान् संन्यास की ओर प्रवृति एवं प्रचुर सन्तान होता है। 10. दशमभाव में गुरु हो तो जातक सुकर्म करने वाला, प्रसिद्ध और सम्मानित प्रतिष्ठित पद पर आसीन, सदाचारी, पुण्यात्मा, ऐश्वर्यवान्, साधु, चतुर, न्यायी, प्रसन्न, ज्योतिषी, सत्यवादी, शत्रुहन्ता, राजमान्य, स्वतन्त्र विचारक, मातृपितृ भक्त, लाभवान्, धनी एवं भाग्यवान् होता है। 11. ग्यारहवें भाव में गुरु हो तो जातक व्यवसायी, धनिक, सन्तोषी, सुन्दरनिरोगी, लाभवान्, पराक्रमी, सद्व्ययी, बहुस्त्रीयुक्त, विद्वान् राजपूज्य एवं अल्पसन्ततिवान्
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होता है।
12. द्वादश भाव में गुरु हो तो जातक मितभाषी, योगाभ्यासी, परोपकारी, उदार, आलसी, सुखी, मितव्ययी, शास्त्रज्ञ, सम्पादक, लोभी, यात्री एवं दुष्ट चित्तवाला होता है।
शुक्र
1. लग्न ( प्रथम ) में शुक्र हो तो जातक सुन्दरदेही दीर्घायु राजप्रिय कामी, उच्च सरकारी पद पर आसीन, विलासी, भोगी, विद्वान्, प्रवासी मधुरभाषी, प्रसिद्ध सुखी एवं ऐश्वर्यवान् होता है।
2. द्वितीयभाव में शुक्र हो तो जातक भाग्यवान्, साहसी, समयज्ञ, मिष्टान्नभोजी, यशस्वी लोकप्रिय, जौहरी, दीर्घजीवी, कवि कुटुम्बयुक्त, सुखी एवं धनवान् होता
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3. तृतीय भाव में शुक्र हो तो जातक विद्वान्, कलाकार, आलसी, कृपण, धनी, सुखी, पराक्रमी, भाग्यवान् बहने भाईयों से अधिक एवं पर्यटनशील होता है।
4. चतुर्थ भाव में शुक्र हो तो जातक बलवान्, परोपकारी, सुन्दर व्यवहार कुशल, विलासी, दीर्घायु, पुत्रवान् भाग्यवान्, सुखी दानी वाहनों का स्वामी एवं आस्तिक होता है ।
5. पंचम भाव में शुक्र हो तो जातक विद्वान् प्रतिभाशाली वक्ता, कवि, पुत्रवान्, लाभयुक्त, व्यवसायी, शत्रुनाशक, उदार, दानी, सद्गुणी न्यायवान् एवं आस्तिक होता है।
6. षष्ठभाव में शुक्र हो तो जातक मितव्ययी शत्रुनाशक, स्त्रीप्रिय, स्त्रीसुखहीन, बहुमित्रवान्, वैभवहीन, दुराचारी, मूत्ररोगी, दुखी एवं गुप्तरोगी होता है।
7. सप्तमभाव में शुक्र हो तो जातक लोकप्रिय, धनिक, चिन्तित, विवाह के बाद भाग्योदय, साधुप्रेमी, स्त्री से सुख, कामी, भाग्यवान् गानप्रिय, विलासी, अल्पव्यभिचा चंचल एवं उदार होता है।
8. अष्टम भाव में शुक्र हो तो जातक ज्योतिषी, क्रोधी, मनस्वी, दुखी, गुप्तरोगी. पर्यटनशील, परस्त्रीरत, विदेशवासी, निर्दयी, गुप्तविद्याओं के प्रतिरुचि एवं रोगी होता है।
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9. नवम भाव में शुक्र हो तो जातक धर्मात्मा, राजप्रिय, पवित्रतीर्थ यात्राओं का कर्ता, दयालु, प्रेमी, गृहसुखी, गुणी, चतुर एवं आस्तिक होता है।
10. दशम भाव में शुक्र हो तो जातक गुणवान्, दायालु, विलासी, ऐश्वर्यवान्, भाग्यवान्, न्यायवान् विजयी, गानप्रिय, धार्मिक ज्योतिषी एवं लोभी होता है।
11. ग्यारहवें भाव में शुक्र हो तो जातक परोपकारी, लोकप्रिय, जौहरी, विलासी, वाहनसुखी, स्थिरलक्ष्मीवान्, धनवान् गुणज्ञ, कामी एवं पुत्रवान् होता है । 12. बारहवें भाव में शुक्र होतो जातक धनवान्, परस्त्रीरत, बहुभोजी, शत्रुनाशक, मितव्ययी, आलसी, पतित, धातुविकारी, स्थूल एवं न्यायशील होता है ।
शनि
1. लग्न (प्रथम) में शनि मकर, कुम्भ तथा तुला का हो तो धनाढ्य, सुखी, धनु और मीन राशियों में हो तो अत्यन्त धनवान और सम्मानित एवं अन्य राशियों का हो तो अशुभ होता है।
2. द्वितीय भाव में शनि हो तो जातक कटुभाषी, साधुद्वेषी, मुखरोगी, और कुम्भ या तुला का शनि हो तो धनी, लाभवान् एवं कुटुम्ब तथा भ्रातृवियोगी होता है।
3. तृतीय भाव में शनि हो तो जातक नीरोगी, विद्वान् योगी, मल्ल, शीघ्रकार्यकर्ता, सभाचतुर, चंचल, भाग्यवान् शत्रुहन्ता एवं विवेकी होता है।
4. चतुर्थभाव में शनि हो तो जातक अपयशी, बलहीन, धूर्त, कपटी, शीघ्रकोपी, कृशदेही, उदासीन, वातपित्तयुक्त एवं भाग्यवान् होता है।
5. पंचम भाव में शनि हो तो जातक आलसी, सन्तानयुक्त, चंचल, उदासीन, विद्वान, भ्रमणशील एवं बातरोगी होता है।
6. षष्ठभाव में शनि हो तो जातक बलवान्, आचारहीन, व्रणी, जातिविरोधी, श्वासरोगी, कण्ठरोगी, योगी, शत्रुहन्ता भोगी एवं कवि होता है।
7. सप्तम भाव में शनि हो तो जातक क्रोधी, कामी, विलासी, अविवाहित रहना या दुःखी विवाहित जीवन, धन सुखहीन, भ्रमणशील, नीचकर्मरत, स्त्रीभक्त एवं आलसी होता है।
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8. अष्टम भाव में शनि हो तो जातक विद्वान् स्थूलशरीरी, उदार प्रकृति, कपटी, गुप्तरोगी, वाचाल, डरपोक, कुष्ठरोगी एवं धूर्त होता है। 9. नवम भाव मे शनि हो तो जातक धर्मात्मा, साहसी, प्रवासी, कृशदेही, भीरु, भ्रातृहीन, शत्रुनाशक रोगी वातरोगी, भ्रमणशील एवं वाचाल होता है। 10. दशम भाव में शनि हो तो जातक विद्वान, ज्योतिषी, राजयोगी न्यायी, नेता, धनवान्, राजमान्य, उदरविकारी, अधिकारी, चतुर, भाग्यवान् परिश्रमी, निरुपयोगी एवं महत्त्वाकांक्षी होता है। 11. ग्यारहवें भाव में शनि हो तो जातक बलवान् विद्वान, दीर्घायु, शिल्पी, सुखी, चंचल, क्रोधी, योगाभ्यासी, नीतिवान् परिश्रमी, व्यवसायी, पुत्रहीन, कन्याप्रज्ञ एवं रोगहीन होता है।
12. बारहवें भाव में शनि हो तो जातक आलसी, दुष्ट, व्यसनी, व्यर्थ व्यय करने वाला, अपस्मार, उन्माद का रोगी, मातुलकष्टदायक, अविश्वासी एवं कटुभाषी होता है।
राहु 1. लग्न (प्रथम) में राहु हो तो जातक कामी, दुर्बल, मनस्वी, अल्पसन्तति युक्त, राजद्वेषी, नीचकर्मरत दुष्ट, स्तकरोगी, स्वार्थी एवं बात-बात पर सन्देह करने वाला होता है। 2. द्वितीय भाव में राहु हो तो जातक संग्रहशील, अल्पधनवान, कठोरभाषी, कुटुम्बहीन, अल्पसन्तति, मात्सर्ययुक्त एवं परदेशगामी होता है। 3. तृतीय भाव में राहु हो तो जातक योगाभ्यासी, विद्वान्, व्यवसायी, पराक्रमशून्य, दृढ़विवेकी, अरिष्टनाशक, प्रवासी, दीर्घायु एवं बलवान् होता है। 4. चतुर्थभाव में राहु हो तो जातक असन्तोषी, दुखी, अल्पभाषी, मिथ्याचारी, उदरव्याधियुक्त, कपटी, मातृक्लेशयुक्त एवं क्रूर होता है। 5. पंचम भाव में राहु हो तो जातक शास्त्रप्रिय, कार्यकर्ता, भाग्यवान्, उदररोगी, मतिमन्द, कुल धननाशक, धनहीन, नीतिदक्ष एवं सन्तान के लिए अशुभ होता है। 6. षष्ठभाव में राहु हो तो जातक शत्रुहन्ता, कमरदर्द पीड़ित, अरिष्टनिवारक,
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विदेशियों से लाभ, पराक्रमी, बड़े-बड़े कार्य करनेवाला, दीर्घायु, साहसी, धनी एवं प्रसिद्ध होता है
7. सप्तम भाव में राहु हो तो चतुर लोभी, दुराचारी, दुष्कर्मी वातरोगजनक, भ्रमणशील, व्यापार से हानिदायक एवं स्त्रीनाशक होता है।
8. अष्टम भाव में राहु हो तो जातक क्रोधी, व्यर्थभाषी, मूर्ख, उदररोगी, कामी, पुष्टदेही एवं गुप्तरोगी होता है।
9. नवम भाव में राहु हो तो जातक प्रवासी, वातरोगी, व्यर्थ परिश्रमी, दुष्टबुद्धि, भाग्योदय से रहित, तीर्थाटनशील एवं धर्मात्मा होता है ।
10. दशम भाव में राहु हो तो जातक मितव्ययी, वाचाल, सन्ततिक्लेशी चन्द्रमा से युक्त राहु के होने पर राजयोग कारक अनियमित कार्यकर्त्ता एवं आलसी होता है।
11. ग्यारहवें भाव में राहु हो तो जातक परिश्रमी, अल्पसन्तान, विदेशियों से धनलाभ, दीर्घायु मन्दमति, लाभहीन, अरिष्टनाशक, व्यवसाययुक्त, कदाचित् लाभदायक एवं कार्य सफल करने वाला होता है।
12. बारहवें भाव में राहु हो तो जातक विवेकहीन, कामी, चिन्ताशील, अतिव्ययी, सेवक, परिश्रमी, मूर्ख एवं मतिमन्द होता है।
केतु
1. लग्न (प्रथम) में केतु हो तो जातक चंचल मूर्ख दुराचारी, भीरु तथा वृश्चिक राशि में हो तो सुखकारक, धनी एवं परिश्रमी होता है।
2. द्वितीय भाव में केतु हो तो जातक अस्वस्था, कटुवचन बोलने वाला मुंह के रोग, राजभीरु एवं विद्रोही होता है ।
3. तृतीय भाव में केतु हो तो जातक चंचल, वायुजनित रोगों से पीड़ित, भाई बहन विहीन, धनी, व्यर्थवादी एवं भूतप्रेतभक्त होता है।
4. चतुर्थ भाव में केतु हो तो जातक कार्यहीन, चंचल, वाचाल एवं निरुत्साही होता है।
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5. पंचम भाव में केतु हो तो जातक वातरोगी, कुचाली, कुबुद्धि, सन्तान को नष्ट करता है, योगी, कुशाग्रबुद्धि एवं क्रोधी होता है। 6. षष्ठभाव में केतु हो तो जातक वात विकारी, झगड़ालू, अरिष्टनिवारक, सुखी, मितव्ययी, भूत प्रेतजनित रोगों से रोगी, दुर्घटना, दीर्घायु एवं धनी होता है। 7. सप्तम भाव में केतु हो तो जातक मतिमन्द, मूर्ख, दुखद विवाहित जीवन, पति-पत्नी में सम्बन्ध विच्छेद, शत्रुभीरु एवं सुखहीन होता है। 8. अष्टम भाव में केतु हो तो जातक दुर्बुद्धि, स्त्रीद्वेषी, चालाक, दुष्टजनसेवी, तेजहीन, नीच, स्त्री की कुण्डली में पति के लिए अशुभ एवं अल्पायु होता है। 9. नवम भाव में केतु हो तो जातक सुखाभिलाषी, व्यर्थपरिश्रमी अपयशी, दुःखी एवं 48 वर्ष के बाद भाग्योदय होता है। 10. दशम भाव में केतु हो तो जातक अभिमानी व्यर्थ, परिश्रमशील मूर्ख, पितृद्वेषी, दुर्भागी, संन्यास लेना एवं योगी होता है। 11. ग्यारहवें भाव में केतु हो तो जातक बुद्धिहीन, निजका हानिकर्ता, अरिष्टनाशक एवं वातरोगी होता है। 12. बारहवें भाव में केतु हो तो जातक चंचल बुद्धि, धूर्त, ठग तांत्रिक, अतव्ययी निर्बल स्वास्थ्य, पागलपन, मोक्ष प्राप्ति, अविश्वासी एवं जनता को भूत-प्रेतों की जानकारी द्वारा ठगने वाला होता है।
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The Nine Planets in Different Signs
मेषादि द्वादश राशियों में नवग्रह का फल
सूर्य
1. मेष राशि में रवि हो तो जातक उदार, गम्भीर, शूरवीर, आत्मबली स्वाभिमानी, प्रतापी, चतुर, पित्तविकारी, युद्धप्रिय, साहसी एवं महत्वाकांक्षी होता
2. वृष राशि में रवि हो तो जातक शान्त, व्यवहार कुशल, पाप भीरु, स्वाभिमानी मुखरोगी एवं स्त्रीद्वेषी होता है। 3.मिथुन राशि में रवि हो तो जातक धनवान, ज्योतिषी, इतिहास प्रेमी उदार, विवेकी, विद्वान्, बुद्धिमान, मधुरभाषी, नम्र एवं प्रेमी होता है। 4.कर्कराशि में रवि हो तो जातक कीर्तिमान, लब्धप्रतिष्ठ, कार्यपरायण, चंचल, साम्यवादी, कफरोगी, इतिहासज्ञ एवं परोपकारी होता है। 5.सिंह राशि में रवि हो तो जातक सत्संगी पुरुषार्थी, योगाभ्यासी, वनविहारी, क्रोधी, गम्भीर, उत्साही, तेजस्वी एवं धैर्यशाली होता है। 6 कन्या राशि में रवि हो तो जातक लेखन कुशल, दुर्बल, शक्तिहीन, मन्दाग्निरोगी, व्यर्थवकवादी, साहित्य और कविता में रुचि, भाषाविद् -बुद्धिमान, पत्रकार एवं गणितज्ञ होता है। 7. तुला राशि में रवि हो तो जातक मन्दाग्नि रोगी, आत्मबलहीन, मलीन व्यभिचारी, परदेशाभिलाषी, नैतिकता की कमी एवं दूसरों से दबने वाला होता
8. वृश्चिक राशि में रवि हो तो जातक साहसी, लोभी, चिकित्सक, लोकमान्य, क्रोधी उद्ययोगी, उदररोगी, पुलिस अधिकारी एवं सेना में उच्चपद प्राप्त करने वाला होता है। 9. धनु राशि में रवि हो तो जातक विवेकी, योगमार्गरत, बुद्धिमान, धनी, आस्तिक, व्यवहार कुशल, दयालु, शान्त, लोकप्रिय एवं शीघ्र क्रोधित होने वाला होता
है।
10. मकर राशि में रवि हो तो जातक बहुभाषी, चंचल, झगड़ालू, दुराचारी,
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लोभी एवं परिश्रमी होता है। 11. कुम्भ राशि में रवि हो तो जातक स्थिरचित्त, स्वार्थी, कार्यदक्ष, क्रोधी, दुःखी, निर्धन, अच्छा ज्योतिषी एवं मध्य अवस्था के पश्चात् सन्यास लेने वाला होता है। 12. मीन राशि में रवि हो तो जातक बुद्धिमान्, यशस्वी, व्यापारी, विवेकी ज्ञानी, योगी, प्रेमी, गुप्त विद्याओं में रुचि रखने वाला और स्वसुर से लाभन्वित होता है।
चन्द्रमा
1. मेष राशि में चन्द्रमा हो तो जातक स्थिर सम्पत्तिवान्, शूर, दृढ़ शरीरवाला, बन्धुहीन, कामी, उतावला, जलभीरू, यात्रा करने का शौकीन आत्माभिमानी एवं साहसी होता है। 2. वृष राशि में चन्द्रमा हो तो जातक सुन्दर प्रसन्नचित्तवाला, कामी, दान करने वाला, अधिक कन्या सन्तति वाला, शान्त, कफरोगी, सुखी, कुशाग्र बुद्धिवाला, सुगठित शरीरवाला, धनी, सन्तोषी, चंचलमन, परलिंगी के प्रति आकर्षण, खाने-पीने का शौकीन एवं लोकप्रिय होता है। 3. मिथुन राशि में चन्द्रमा हो तो जातक विद्वान, अध्ययनशील, सुन्दर, रतिकुशल, भोगी, मर्मज्ञ, नेत्र चिकित्सक, अच्छा वक्ता एवं अच्छा अन्तर्ज्ञान वाला होता है। 4. कर्क राशि में चन्द्रमा हो तो जातक सम्पत्तिवान, श्रेष्ठबुद्धि, जलविहारी, सन्ततिवान्, कामी, कृतज्ञ, ज्योतिषी, उन्माद रोगी, स्त्रियों के प्रभाव में आ जाने वाला, चंचलमन, अच्छा स्वभाव वाला, सुन्दर, दयालु, आवेशात्मक एवं विदेश यात्रा की ओर रुचि वाला होता है। 5. सिंह राशि में चन्द्रमा हो तो जातक दृढ़देही, दाँत तथा पेट का रोगी, मातृभक्त, अल्पसन्ततिवान्, गम्भीर, दानी, साहसी, शान दिखाने वाला अभिमानी, महत्वाकांक्षी एवं पुराने विचारों वाला होता है। 6. कन्या राशि में चन्द्रमा हो तो जातक सुन्दर, रूपवान, धनी ईमानदार, मधुरभाषी, सदाचारी, धीर , विद्वान, सुखी, सुन्दर वक्ता अधिक कन्या सन्तान वाला, ज्योतिष एवं कला प्रेमी होता है।
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7. तुला राशि में चन्द्रमा हो तो जातक दीर्घदेही, आस्तिक, अन्नदाता, धनवान्, जमींदार, कुशाग्रबुद्धिवाला, चतुर, उच्चाकांक्षाओं से रहित, सन्तोषी एवं परोपकारी होता है। 8. वृश्चिक राशि में चन्द्रमा हो तो जातक अपने माता-पिता, भाइयों आदि से अलग रहने वला, नास्तिक, लोभी, बन्धुहीन, परस्त्रीरत, झगड़ालू, स्पष्ट वक्ता, बुरे विचार रखने वाले, दुःखी, हठी, अनैतिक विचारों वाला एवं धनी होता
9. धनु राशि में चन्द्रमा हो तो जातक वक्त, सुन्दर, शिल्पज्ञ, शत्रुविनाशक उच्च बौद्धिक स्तर वाला, सुखी विवाहित जीवन, विरासत में धन सम्पत्ति पाने वाला, साहित्य के प्रति रुचि का दिखावा करने वाला एवं लेखक होता है। 10. मकर राशि में चन्द्रमा हो तो जातक सदाचारी, पत्नी और सन्तान से प्रेम करने वला, कवि, क्रोधी, लोभी, संगीतज्ञ, बात को शीघ्र समझने वाला एवं स्वार्थी होता है। 11. कुम्भ राशि में चन्द्रमा हो तो जातक, उन्मत, सूक्ष्मदेही, शिल्पी, नीति दक्ष, दूरदर्शी, विद्वान्, गुप्तविद्याओं में रुचि, अच्छा अन्तर्ज्ञान, साधना करने वाला, धार्मिक प्रवृत्ति वाला एवं मध्यावस्था में संन्यास के प्रति झुकाव होता है। 12.मीन राशि में चन्द्रमा हो तो जातक शिल्पकार, सुदेही, शास्त्रज्ञ, धार्मिक, अतिकामी और प्रसन्न मुख वाला होता है।
मंगल 1. मेष राशि में मंगल हो तो जातक सत्यवक्ता, तेजस्वी, शूरवीर, नेता, साहसी, धनवान्, लोकमान्य, दानी एवं राजमान्य होता है। 2. वृष राशि में मंगल हो तो जातक अत्यन्त कामुक, अनैतिक आचरण, पुत्रद्वेषी, प्रवासी, सुखहीन, लड़ाकू प्रकृति, वंचक, सिद्धान्त रहित, स्वार्थी एवं क्रूर होता है। 3. मिथुन राशि में मंगल हो तो जातक शिल्पकार, परदेशवासी, कार्यदक्ष, सुखी, जनहितैषी, विद्वान, बलवान शरीर, कवि, संगीतकार, नीतिज्ञ, कुशाग्रबुद्धिवाला
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एवं चतुर होता है। 4. कर्क राशि में मंगल हो तो जातक कुशाग्रबुद्धिवाला, धनवान्, बदमाश, कुशलचिकित्सक, या सर्जन, चंचलमनवाला सुखाभिलाषी, कृषक, रोगी एवं दुष्ट होता है। 5. सिंह राशि में मंगल हो तो जातक शूरवीर, सदाचारी, कार्यनिपुण, स्नेहशील, परोपकारी, ज्योतिषी, गणितज्ञ, माता-पिता का आज्ञाकारी, गुरुजनों का आदर करने वाला, उदार एवं सफल होता है। 6. कन्या राशि में मंगल हो तो जातक सुखी, शिल्पज्ञ, पापभीरु, लोकमान्य एवं व्यवहार कुशल होता है। 7. तुला राशि में मंगल हो तो जातक प्रवासी, वक्ता, कामी, परधनहारी, उच्चाकांक्षी, लड़ाकू, कृपालु एवं परस्त्रियों की ओर झुकाव होता है। 8. वृश्चिक राशि में मंगल हो तो जातक नीति-दक्ष, अच्छी स्मरण शक्ति ईर्ष्यालु स्वभाववाला, बहुतहठी, अभिमानी, चोरों का नेता, पातकी एवं दुराचारी होता है। 9. धनु राशि में मंगल हो तो जातक चतुर राजनैतिक नेता, कम सन्तान, लोकप्रिय प्रसिद्ध, उच्चप्रशासकीय पद प्राप्त करने वाला, कठोर, शठ, क्रूर, परिश्रमी एवं पराधीन होता है।
10. मकर राशि में मंगल हो तो जातक ख्यातिप्राप्त, पराक्रमी, नेता ऐश्वर्यशाली, सुखी, सेनापति, उच्चपुलिस अधिकारी, प्रशासक, प्रचुर सन्तान, उदार, परिश्रमी एवं महत्वाकांक्षी होता है। 11. कुम्भ राशि में मंगल हो तो जातक व्यसनी, लोभी, सट्टे से धननाशक, आचारहीन, मत्सरवृत्ति एवं बुद्धिहीन होता है। 12. मीन राशि में मंगल हो तो जातक गौवरवर्ण, कामुक, आज्ञाकारी गन्दा, अस्थिर जीवन, रोगी, प्रवासी, मान्त्रीक, बन्धु-द्वेषी, नास्तिक, हठी, धूर्त और वाचाल होता है।
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बुध
1. मेष राशि में बुध हो तो जातक चतुर, प्रेमी, सत्यप्रिय, नट, रतिप्रिय कृशदेही, लेखक, ऋणी, मिलनसार, अविश्वस्त एवं बुरे विचार वाला होता है। 2. वृष राशि में बुध हो तो जातक कुशाग्रबुद्धिवाला, उच्चपद पर आसीन, सुगठित शरीर दिखावा पसन्द करने वाला शास्त्रज्ञ, व्यायामप्रिय, धनवान्, गम्भीर, मधुरभाषी, विलासी एवं रतिशास्त्रज्ञ होता है।
3. मिथुन राशि में बुध हो तो जातक मधुरभाषी, शास्त्रज्ञ, लब्धप्रतिष्ठ, वक्ता, लेखक, अल्पसन्ततिवाला, विवेकी, सदाचारी, खोज के काम में चतुर, दीर्घायु, यात्रा का शौकीन, संगीत में रुचि एवं हास परिहास करने वाला होता है । 4. कर्क राशि में बुध हो तो जातक नीतिकुशल, सूक्ष्मग्राही अत्यन्त कामुक, छोटाकदवाला, अनैतिक चरित्र, अनिश्चित स्वभाव, वाचाल, गवैया, परदेशवासी, प्रसिद्ध एवं परिश्रमी होता है ।
5. सिंह राशि में बुध हो तो जातक मिथ्याभाषी, कुकर्मी, ठग, कामुक, भ्रमणशील, अभिमानी, वक्ता, कम उम्र में विवाह, आवेशपूर्ण स्वभाव एवं सरकारी नौकर होता है।
6. कन्या राशि में बुध हो तो जातक वक्ता, कवि, साहित्यिक, लेखक, सम्पादक, ज्योतिषी, खगोलशास्त्री, गणितज्ञ, अध्यापक, उदार, सुखी एवं अच्छा चरित्र वाला होता है।
7. तुला राशि में बुध हो तो जातक आस्तिक व्यापार दक्ष, वक्ता, चतुर, शिल्पज्ञ, कुटुम्बवत्सल, उदार, अच्छा अन्तर्ज्ञान, वफादार, विनीत संतुलित मन एवं दार्शनिक होता है।
8. वृश्चिक राशि में बुध हो तो जातक व्यसनी, दुराचारी, मुर्ख, ऋणी भिक्षुक, अनैतिक चरित्र, रतिक्रिया की अति करने वाला, गुप्तांगों के रोगों से पीड़ित, स्वार्थी एवं अपशब्द बोलने वाला होता है।
9. धनु राशि में बुध हो तो जातक विद्वान्, समाज में सम्मानित, गुणी, सुगठित शरीर अविवेकी, अच्छा संगठनकर्ता, चतुर, ईमानदार उदार प्रसिद्ध राजमान्य, लेखक, सम्पादक एवं वक्ता होता है।
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10. मकर राशि में बुध हो तो जातक कुलहीन, दुश्शील, मिथ्याभाषी, ऋणी, मूर्ख, डरपोक, व्यापार में रुचि लेने वाला, किफायतसार, चतुर एवं परिश्रमी होता है। 11. कुम्भ राशि में बुध हो तो जातक कुटुम्बहीन, दुःखी, अल्पधनी, झगड़ालू, प्रसिद्ध निर्बल स्वास्थ्य एवं प्रगति करने वाला होता है। 12. मीन राशि में बुध हो तो जातक स्वाभिमानी, सदाचारी, सहनशील, भाग्यवान्, प्रवास में सुखी, मिष्टभाषी, कार्यदक्ष, धनसंग्रही, नकल करने का स्वभाव, चिन्तित एवं छोटे दिल का होता है।
बृहस्पति 1. मेष राशि में गुरु हो तो जातक ऐश्वर्यशाली, तेजस्वी, वकील, वादी, प्रसिद्ध, कीर्तिमान, विजयी, उग्रस्वभाव, धनी, विद्वान, प्रचुर सन्तान, उदार, नम्रभाषी परन्तु अपने आपको दूसरों से उच्च समझने वाला, सुखी विवाहित जीवन एवं उच्चपद पर आसीन होता है। 2. वृष राशि में गुरु हो तो जातक पुष्टशरीर वाला, सदाचारी, धनवान्, आस्तिक, चिकित्सक, विद्वान, बुद्धिमान्, जीवन में स्थिरता, दृढ़विचार, दिखावा करने वाला एवं कामुक होता है। 3. मिथुन राशि में गुरु हो तो जातक योग्य वक्ता, सुगठित शरीर, लम्बाकद, उदार, विद्वान, कई भाषाओं का जानने वाला, अनायास धनप्राप्त करने वाला, लोकमान्य, लेखक एवं व्यवहार कुशल होता है। 4. कर्क राशि में गुरु हो तो जातक सदाचारी, विद्वान्, सत्यवक्ता महायशस्वी, साम्यवादी, सुधारक, योगी, लोकमान्य, सुखी, धनी, नेता, कुशाग्रबुद्धि एवं वफादार होता है। 5. सिंह राशि में गुरु हो तो जातक धार्मिक, प्रेमी, कार्यकुशल, सभाचतुर शत्रुजित्, आकर्षकव्यक्तित्व, उच्चाकांक्षी, सक्रिय, सुखी, कुशाग्रबुद्धि साहित्य की ओर झुकाव, लेखक एवं उच्च सरकारी पद पर आसीन होता है। 6. कन्या राशि में गुरु हो तो जातक सुखी, भोगी, विलासी, चित्रकला, निपुण, चंचल, उच्चाकांक्षी, स्वार्थी, भाग्यवान्, विद्वान एवं सन्तोषी होता है।
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7. तुला राशि में गुरु हो तो जातक सुन्दर, उदार, बली, योग्य धार्मिक, प्रवृत्ति, निष्पक्ष, बुद्धिमान्, व्यापार कुशल, कवि, लेखक, सम्पादक, बहुपुत्रवान् एवं सुखी होता है। 8. वृश्चिक राशि में गुरु हो तो जातक शास्त्रज्ञ, राजमन्त्री, कार्यकुशल, सुगठित शरीर, अपनी उच्चता का दिखावा करने वाला, स्वार्थी, निर्बलस्वास्थ्य, दुःखी एवं कामुक होता है। 9. धनु राशि में गुरु हो तो जातक धनी, प्रभावशाली, विद्वान्, विश्वस्त, सज्जन, दानशील संगठनकर्ता, अच्छा वक्ता, धर्माचार्य, दम्भी , रतिप्रेमी एवं धूर्त होता है। 10. मकर राशि में गुरु हो तो जातक प्रवासी, द्रव्यहीन, व्यर्थपरिश्रमी, चंचलचित्त, धूर्त, असभ्य आचरण, दुःखी एवं ईर्ष्यालु होता है। 11. कुम्भ राशि में गुरु होतो जातक विद्वान परन्तु धनहीन, लोकप्रिय, मिलनसार, स्वप्नों के जगत में विचार करने वाला डरपोक प्रवासी, कपटी एवं रोगी होता है। 12.मीन राशि में गुरु हो तो जातक लेखक, शास्त्रज्ञ, गर्वहीन, राजमान्य, शान्त, व्यवहार कुशल, दयालु, साहित्य प्रेमी, विरासत में धन सम्पत्ति प्राप्त करने वाला, साहसी एवं उच्चपद पर आसीन होता है।
शुक्र
1.मेष राशि में शुक्र हो तो जातक स्वप्न जगत में विचारने वाला, आवेशपूर्ण स्वभाव, अस्थिरमन, दुःखी, बुद्धिमान्, आरामतलब, दुराचारी, परस्त्रीरत, झगड़ालू विश्वास हीन एवं अधिक खर्च करने वाला होता है। 2.वृष राशि में शुक्र हो तो जातक सुन्दर, ऐश्वर्यवान्, दानी, सदाचारी, सात्त्विक, परोपकारी, अनेक शास्त्रज्ञ, दृढ़, स्वतन्त्रकामुक, शौकीन तबीयत, संगीत-नृत्य तथा अन्य कलाओं में रुचि एवं आलसी होता है। 3.मिथुन राशि में शुक्र हो तो जातक कवि, साहित्यिक, चित्रकला निपुण, साहित्यिक स्रष्टा, प्रेमी, सज्जन, लोकहितैषी धनी, उदार, सम्मानित, कुशाग्रबुद्धि, विद्वान् एवं परस्त्रियों में रुचि रखने वाला होता है।
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4. कर्क राशि में शुक्र हो तो जातक धार्मिक, ज्ञाता सुन्दर सुख और धन का इच्छुक, नीतिज्ञ, आवेशपूर्ण, डरपोक, दुःखी एवं प्रचुर सन्तान होता है।
5. सिंह राशि में शुक्र हो तो जातक अल्पसुखी उपकारी, चिन्तातुर, शिल्पज्ञ, स्त्रियों के द्वारा धन अर्जित करने वाला, कामुक, आवेशपूर्ण एवं अपने को दूसरों से ऊँचा समझने वाला होता है।
6. कन्या राशि में शुक्र हो तो जातक सुखी, भोगी, अतिकामी, सभापण्डित, रोगी, वीर्यहीन, सट्टे द्वारा धननाशक एवं अवैध सम्बन्ध रखने वाला होता है। 7. तुला राशि में शुक्र हो तो जातक विलासी, कलानिपुण, प्रवासी, यशस्वी, कार्यदक्ष, कुशाग्रबुद्धि, उदार, दार्शनिक, सुन्दर सुखी विवाहित जीवन, अभिमानी, बौद्धिक कामों में रुचि, कविता और उपन्यास लिखने में रुचि एवं संतुलित स्वभाव होता है।
8. वृश्चिक राशि में शुक्र हो तो जातक नास्तिक, कुकर्मी, स्त्रीद्वेषी दरिद्री, गुह्य रोगी, ऋणी, क्रोधी, स्वतन्त्र एवं अन्यायी होता है ।
9. धनु राशि में शुक्र हो तो जातक धनी, बलशाली, स्वोपार्जित द्रव्य द्वारा पुण्य करने वाला, विद्वान, सुन्दर, लोकमान्य, राज्यमान्य, सुखी घरेलू जीवन, उच्चपद की प्राप्ति एवं प्रभावशाली होता है।
10. मकर राशि में शुक्र हो तो जातक बलहीन, कृपण, हृदयरोगी, दुखी, मानी. नीच जाति की स्त्रियों में रुचि, सिद्धान्तहीन एवं अनैतिक चरित्र होता है।
11. कुम्भ राशि में शुक्र हो तो जातक शान्तिप्रिय, दूसरों को सहायता करने वाला, सच्चरित्र, सुन्दर, लोकप्रिय, चिन्ताशील एवं रोग से सन्तप्त होता है ।
12. मीन राशि में शुक्र हो तो जातक जौहरी, शिल्पज्ञ, जमीन्दार, अच्छा और हास परिहास का स्वभाव, विद्वान, लोकप्रिय, शान्त, धनी, कार्यदक्ष, कृषिकर्म का मर्मज्ञ, शिष्ट और सभ्य सम्मानित एवं आराम तलब होता है ।
शनि
1. मेष राशि में शनि हो तो जातक आत्मबलहीन, मूर्ख, आवारा, क्रूर जालफरेव करने वाला, व्यसनी, निर्धन, दुराचारी, कपटी लम्पट एवं कृतघ्न होता है ।
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2.वृष राशि में शनि हो तो जातक असत्य भाषी, द्रव्यहीन, मूर्ख, वचनहीन, सफल, एकान्तप्रिय, छोटी-छोटी बातों के कारण चिंतित एवं संयमी होता है। 3.मिथुन राशि में शनि हो तो जातक दुराचारी, कपटी, कामी, पाखण्डी, निर्धन, दुःखी एवं संकीर्ण मन वाला होता है। 4.कर्क राशि में शनि हो तो जातक, गरीब, कमसन्तान, बाल्यावस्था में दुखी, मातृरहित, प्राज्ञ, उन्नतिशील, विद्वान, हठी एवं स्वार्थी होता है। 5.सिंह राशि में शनि हो तो जातक लेखक, अध्यापक, कार्यदक्ष, हठी, कमसन्तान, अभागा एवं ईर्ष्यालु स्वभाव वाला होता है। 6.कन्या राशि में शनि हो तो जातक मितभाषी, परोपकारी, लेखक, कवि, सम्पादक, धनवान्, बलवान्, निश्चित कार्य कर्ता, ईर्ष्यायलु स्वभाव, असभ्य, निर्बलस्वास्थ्य एवं पुराने विचारों वाला होता है। 7.तुला राशि में शनि हो तो जातक राजनीति में रुचि रखने वाला, प्रसिद्धनेता, धनी, सम्मानित शक्तिशाली, दानशील, परस्त्रियों में रुचि, सुभाषी, यशस्वी, स्वाभिमानी एवं उन्नतिशील होता है। 8. वृश्चिक राशि में शनि हो तो जातक संकीर्ण विचारों वाला, हिंसक, कठोरहृदय, उतावला, कमजोर स्वास्थ्य, बुरी आदतें, दुःखी, विष से खतरा, निर्धन स्त्रीहीन, क्रोधी, कठोर एवं लोभी होता है। 9. धनु राशि में शनि हो तो जातक व्यवहारज्ञ, पुत्र की कीर्ति से प्रसिद्ध सदाचारी, वृद्धावस्था में सुखी, सक्रिय, चतुर शान्तिप्रिय, दुःखी विवाहित जीवन एवं धनी होता है। 10.मकर राशि में शनि हो तो जातक कुशाग्र बुद्धि, परिश्रमी, आस्तिक भोगी, मिथ्याभाषी, शिल्पकार, प्रवासी, अच्छा घरेलू जीवन, विद्वान्, सन्देह करनेवाला, बदला लेने वाला एवं दार्शनिक होता है। 11.कुम्भ राशि में शनि हो तो जातक नीतिदक्ष, कुशाग्र बुद्धि, शक्तिशाली शत्रु, योग्य, सुखी, व्यसनी, नास्तिक एवं परिश्रमी होता है। 12.मीन राशि में शनि हो तो जातक अविचारी, शिल्पकार हतोत्साही, धनी, प्रसिद्ध, सुखी एवं दूसरों की सहायता करने वाला होता है।
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राहु
1.मेष राशि में राहु हो तो जातक-पराक्रमहीन, आलसी, अविवेकी एवं अनैतिक चरित्र होता है। 2.वृष राशि में राहु हो तो जातक सुखी, चंचल, कुरूप, आवेशपूर्ण स्वभाव एवं धनी होता है। 3.मिथुन राशि में राहु हो तो जातक- साहसी, दीर्घायु, साधु गाने वाला, योगाभ्यासी एवं बलवान् होता है। 4. कर्क राशि में राहु हो तो जातक चतुर, उदार, रोगी, अनेकों शत्रुओं वाला, धोखेबाज, धनहीन एवं पराजि होता है। 5.सिंह राशि में राहु हो तो जातक चतुर, विचारक, सज्जन, नीति दक्ष एवं सत्पुरुष होता है। 6.कन्या राशि में राहु हो तो जातक लोकप्रिय, मधुरभाषी, कविलेखक, गवैया एवं धनी होता है। 7.तुला राशि में राहु हो तो जातक अल्पायु, दाँतों के रोग, विरासत में धन पाने वाला एवं कार्य कुशल होता है। 8.वृश्चिक राशि में राहु हो तो जातक धूर्त, निर्धन, रोगी, धननाशक, अनैतिक चरित्र एवं धोखेबाज होता है। 9.धनु राशि में राहु हो तो जातक प्रारम्भिक जीवन में सुखी, दत्तक जाने वाल एवं मित्र द्रोही होता है। 10.मकर राशि में राहु हो तो जातक मितव्ययी, कुटुम्बहीन एव दाँत रोगी होता है। 11.कुम्भ राशि में राहु हो तो जातक विद्वान्, लेखक मितभाषी एवं मितव्ययी होता है। 12.मीन राशि में राहु हो तो जातक आस्तिक, कुलीन, शान्त, कलाप्रिय और दक्ष होता है।
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केतु 1.मेष राशि में केतु हो तो जातक चंचल, बहुभाषी एवं सुखी होता है। 2.वृष राशि में केतु हो तो जातक दुःखी, निरुद्यमी, आलसी, वाचाल एवं कामुक होता है। 3.मिथुन राशि में केतु हो तो जातक वायुरोग से पीड़ित, अभिमानी सरलता से सन्तुष्ट होने वाला, अल्पायु एवं छोटी सी बात पर क्रोधित हो जाने वाला होता है। 4. कर्क राशि में केतु हो तो जातक वातविकारी, भूतप्रेत पीड़ित एवं दुःखी होता है। 5. सिंह राशि में केतु हो तो जातक बहुभाषी, डरपोक, असहिष्णु, सर्पदशन का भय एवं असन्तोषी होता है। 6. कन्या राशि में केतु हो तो जातक सदारोगी, मूर्ख, मन्दाग्निरोग एवं व्यर्थवादी होता है। 7. तुला राशि में केतु हो तो जातक कुष्ठरोगी, दुःखी, क्रोधी एवं कामी होता
है।
8. वृश्चिक राशि में केतु हो तो जातक धूर्त, वाचाल, कुष्ठरोगी, क्रोधी निर्धन एवं व्यसनी होता है। 9. धनु राशि में केतु हो तो जातक चंचल, धूर्त एवं मिथ्यावादी होता है। 10. मकर राशि में केतु हो तो जातक परिश्रमशील, पराक्रमी जन्म स्थान छोड़कर जाने वाला, प्रसिद्ध एवं तेजस्वी होता है। 11.कुम्भ राशि में केतु हो तो जातक दुःखी, कर्णरोगी, भ्रमणशील, व्ययशील एवं साधारण धनी होता है। 12.मीन राशि में केतु हो तो जातक परिश्रमी, धार्मिक प्रवृत्तिवाला, कर्णरोगी, प्रवासी, चंचल और कार्यपरायण होता है।
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27-28. Introduction to Yogas (Planetary Combinations)
पाठ 27-28. योग परिचय
योग का अर्थ है ग्रहों का आपस में सम्बन्ध ग्रह को दो प्रकार से जाना जाता है। जैसे, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल आदि। दूसरे कुण्डली में भाव का स्वामी होने के कारण जैसे लग्नेश, द्वितीयेश, पंचमेश आदि। इसलिए योग भी दो प्रकार के होते है। 1. ग्रहों के आपसी सम्बन्ध के कारण जैसे युति, एक-दूसरे से 2/12 होना, केन्द्र या त्रिकोण में होना। इससे ग्रहों के फल में अन्तर पड़ता है। 2. भावाधिपति होना। जैसे केन्द्रेश तथा त्रिकोणेश का सम्बन्ध आदि हम इस अध्याय में ग्रहों की स्थिति के कारण होने वाले योगों का अध्ययन करेंगे। सूर्य से अन्य ग्रहों को स्थिति के कारण उत्पन्न होने वाले योग। 1. सूर्य से केन्द्र में चन्द्रमा स्थित हो तो जातक का धन, बुद्धि, चातुर्य आदि कम होता है। यदि चन्द्रमा पणफर में स्थित हो तो धन बुद्धि मध्यम होते हैं। यदि चन्द्रमा अपोक्लिम भाव में स्थित हो तो धन, बुद्धि चातुर्य श्रेष्ठ होता है। 2. वेसि योग चन्द्रमा को छोड़कर यदि सूर्य से दूसरे भाव में कोई अन्य ग्रह स्थित हो तो वेसि योग होता है। इस योग में उत्पन्न व्यति, खुश, समृद्ध, उदार तथा शासक वर्ग का प्रिय होगा। स्नेही बचन बोलने वाला, समदर्शी, लम्बे शरीर वाला होगा। 2. वासि योग चन्द्रमा को छोड़कर कोई अन्य ग्रह जब सूर्य से 12वें भाव में स्थित होगा तो वासि योग बनता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति कुशल, दानवीर, विद्वान, बलवान होगा। (यह फल शुभ ग्रहों की स्थिति से बनते हैं) 3. उभयचारी योग चन्द्रमा को छोड़कर कोई अन्य ग्रह सूर्य के दूसरे तथा 12वें भाव में स्थित हो तो उभयचारी योग बनता है।
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जातक राजा के समान अधिकार, सम्मान, धनी, सुखी होगा। उसके बचन मीठे प्रिय होंगे। स्वास्थ होगा। यह फल शुभ ग्रहों के कारण है। यदि दोनों ओर अशुभ ग्रह स्थित हो तो अपमान के कारण मानसिक पीड़ा और धन तथा सौभाग्य से हीन होगा। 4. बुध आदित्य योग जब सूर्य और बुध एक साथ। एक भाव में स्थित हो तो बुध आदित्य योग बनता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति बुद्धिमान सम्मान पाने वाला, कार्य करने में निपुण, धनी तथा सुखी होता है। इस योग में यह आवश्यक है कि बुध अस्त नहीं होना चाहिये।
चन्द्रमा से अन्य ग्रहों की स्थिति से बनने वाले योग
1. सुनफा योग सूर्य को छोड़कर यदि कोई अन्य ग्रह चन्द्रमा से दूसरे भाव में स्थित हो तो सुनफा योग बनता है। जातक को राजा के समान सम्मान प्राप्त होता है। जातक अपनी बौद्धिक क्षमता के कारण सम्मानित होगा। वह धनी तथा प्रतिष्ठित होगा। वह स्थार्जित धन का स्वामी होगा। 2. अनफा योग सूर्य को छोड़कर यदि कोई अन्य ग्रह चन्द्रमा से द्वादश भाव में स्थित हो तो यह योग बनता है। जातक राजा के समान सम्मान प्राप्त करेगा, रोग मुक्त, सदाचारी, सुखी होगा। 3. दुरधरा योग सूर्य को छोड़कर यदि कोई अन्य ग्रह चन्द्रमा से द्वितीया तथा द्वादश भाव में स्थित हो तो यह योग बनता है। इस योग वाला जातक सब सुखों से सम्पन्न तथा सुखों को भोगने वाला होता है। सेवक, वाहन तथा धन होता है।
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4. केमद्रुम योग सूर्य के अतिरिक्त यदि कोई अन्य ग्रह चन्द्रमा से 1,2,12 भाव में या लग्न से केन्द्र में कोई न हो केमद्रुम योग होता है। यह अशुभ योग होता है। इसमें जातक दरिद्र, बुद्धिहीन विपत्तियों व दुखों से पीड़ित होता है। यदि यह योग जन्म कुण्डली में हो तो अन्य शुभ योग नष्ट हो जाते है। केमद्रुम योग भंग 1. यदि कोई ग्रह लग्न से केन्द्र में हो 2. यदि कोई ग्रह चन्द्रमा से केन्द्र में हो या चन्द्रमा युक्त हो। 3. यदि चन्द्रमा लग्न से केन्द्र में स्थित हो। 4. चन्द्रमा को सभी ग्रह देखें तो केमद्रुम योग नष्ट हो जाता है।
5. गजकेसरी योग
1. यदि बृहस्पति चन्द्रमा से केन्द्र में (1,4,7,10) स्थित हो 2. यदि बुध या शुक्र चन्द्रमा के साथ युति या दृष्टि हो। (पाराशर) तो गजकेसरी योग बनता है। इसमें उत्पन्न जातक महान् कार्य करने वाला, सभा में कुशल पूर्वक बोलने वाला होता है। इसमें चन्द्रमा में बल होना आवश्यक है। अन्य ग्रह भी बलवान होने चाहिये। कुछ विद्वान ज्योतिषी बृहस्पति को लग्न से भी केन्द्र में स्थित होने पर गज केसरी योग मानते हैं। 6. चन्द्राधियोग यदि चन्द्रमा से 6,7,8 भाव में शुभ ग्रह हो तो चन्द्राधियोग बनता है। जो जातक इस योग में उत्पन्न होता है सेना का अध्यक्ष, राज या मन्त्रि बनता है। यह ग्रहों के बल पर निर्भर करता है। अमला योग यदि लग्न या चन्दमा से दशम भाव में बलवान शुभ ग्रह हो तो अमला योग "कीर्तियोग बनता है। इसमें उत्पन्न जातक राज्य, बन्धु व जनता का प्रिय, महा भोगी, दानी, परोपकारी, धर्मात्मा गुणी होता है।
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शुभ व अशुभ योग यदि लग्न में शुभ ग्रह हो या लग्न से द्वितीय तथा द्वादश भाव में शुभ ग्रह हो तो शुभ योग होता है। यदि पाप ग्रह हो तो अशुभ योग होता है। अशुभ योग में जातक पाप कर्म, कामुक तथा ईर्ष्यालु होता है। पर्वत योग 1. यदि सभी शुभ ग्रह केन्द्र में किसी भी प्रकार से स्थित हो तथा 6,8 भाव में कोई भी ग्रह स्थित न हो, यदि हो तो शुभ ग्रह स्थित हो। 2. लग्नेश तथा द्वादशेश परस्पर केन्द्र में स्थित हो तथा मित्र ग्रह की दृष्टि हो तो पर्वत योग होता है। ऐसा व्यक्ति वाककुशल, भागवत् वेत्ता विद्वान एवं यशस्वी होता है। चामर योग लग्नेश उच्चगत होकर केन्द्र में स्थित हो तथा गुरु से दृष्ट हो तो चामर योग में मनुष्य राज्य पूज्य विद्वान, वाक्कुशल, पण्डित, चिरंजीवी होता
मालिका योग लग्न से लगातार सात भावों में सब सात ग्रह स्थित हो (राहु-केतु ग्रह नहीं है) तो मालिका योग होता है। इस योग में उत्पन्न जातक धनी, अनेक वाहनों का स्वामी होता है। लक्ष्मी योग यदि भाग्येश केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हो तथा लग्नेश बलवान् हो तो लक्ष्मी योग होता है। इस योग में जातक सुन्दर, गुणी धार्मिक बहुपुत्र व धन वाला होता है। लग्नाधियोग यदि लग्न से 6,7,8 भाव में शुभ ग्रह हो और अशुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट न हो तो लग्नाधियोग बनता है
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इसमें उत्पन्न जाततक वैज्ञानिक शोध करता है। सेना में उच्च पद पर होता है उदार धनी तथा सौभाग्य शाली होता है।
पंचमहापुरुष योग
यदि मंगल मेष या वृश्चिक राशि (स्वराशि ) में या मकर (उच्चराशि) में केन्द्र में स्थित हो तथा लग्न बलवान हो तो रूचक योग बनता है ।
इसमें उत्पन्न जातक साहसी, पराक्रमी सेना नायक तथा अच्छे गुणों के लिए प्रसिद्ध होता है । जातक दीर्घजीवि, आकर्षक, गठित शरीर वाला होता है। भद्र योग
यदि बुध स्वराशि (मिथुन या कन्या) या उच्चराशि (कन्या) में स्थित लग्न से केन्द्र में हो तथा लग्न बलवान हो तो भद्र योग होता है ।
इसमें उत्पन्न जातक की मुखाकृति सिंह के समान, घुटने से पांव तक हाथी के समान, चौड़ी छाती, कामुक विद्वान हाथ तथा पैर कोमल, योग विद्या में निपुण होता है।
जब कन्या या मिथुन राशि केन्द्र में स्थित होगी तो दूसरी राशि भी केन्द्र में होगी अर्थात बुध दो राशियों का स्वामी होता हुआ केन्द्र का स्वामी भी होगा और उसे केन्द्राधिपति दोष लगेगा यदि दूसरी राशि सप्तम भाव में पड़ेगी तो उसे मारक भाव का स्वामी होने का भी दोष होगा अशुभत्व बढ़ जाएगा। ऐसी स्थिति में बुध कहां स्थित है, किससे युक्त या दृष्ट है या क्या अवस्था है के आधार पर फल देगा ।
हंस योग
जब बृहस्पति स्वराशि (धनु या मीन) या उच्च का होकर लग्न से केन्द्र में स्थित हो तथा लग्न बलवान हो तो हंस योग होता है।
इस योग में उत्पन्न जातक शासक सरकारी सेवा में उच्च पदाधिकारी, उत्तम व्यक्तित्व वाला होता है। उत्तम भोजन का शौकीन होता है। धर्म ग्रन्थों का ज्ञाता तथा सब सुख सम्पन्न होता है ।
मालव्य योग
यदि शुक्र स्वराशि (वृष या तुला ) या अपनी उच्च राशि (मीन) में लग्न से केन्द्र में स्थित हो तथा लग्न बलवान हो तो मालव्य योग होता है ।
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इस योग में उत्पन्न जातक सुन्दर आंखों वाला, मेधावी, शक्तिशाली, बच्चों, पत्नी, सवारी, सेवको वाला होता है। धर्म ग्रन्थों का ज्ञाता होता है। परामर्श देने में सक्षम, उदार तथा दीर्घायु वाला होता है। सस योग यदि शनि स्वराशि (मकर या कुम्भ) या उच्चराशि तुला में लग्न से केन्द्र में स्थित हो तथा लग्न बलवान हो तो सस योग होता है। जातक परामर्श देने वाल, गांव का प्रधान, कठोर हृदय वाला, दूसरों की सम्पति का प्रयोग करने वाला, स्त्रियों की संगति में रहने वाला, धनी सुखी तथा सम्मानित व्यक्ति होता है। विपरीत राजयोग जब 6,8,12 भाव के स्वामी 6,8 या 12 भाव में स्थित हो तो विपरीत राजयोग बनता है। इसके तीन प्रकार है। (क) हर्ष जब षष्ठेश 8 या 12 भाव में स्थित हो (ख) सरल जब अष्टमेश 6 या 12 भाव में स्थित हो (ग) विमल जब द्वादशेश 6 या 8 भाव में स्थित हो 6, 8 तथा 12 भाव त्रिभाव कहलाते हैं। इनके स्वामी जहां स्थित होते हैं उस भाव को नष्ट कर देते हैं। आओ षषेश लें। षष्ठेश अशुभ भाव का स्वामी है जहां स्थित होगा उस भाव के कारकत्व को नष्ट कर देगा। मानो षष्ठेश द्वादश भाव में स्थित है। तो वह द्वादश भाव को कारकत्व को नष्ट कर देगा। परन्तु द्वादश भाव तो स्वयं अशुभ भाव है। इस प्रकार षष्ठेश द्वादश भाव के अशुभ भत्व को नष्ट कर देगा जो जातक के लिए शुभ होगा। इसलिये इस योग को विपरीत राजयोग कहेंगे। इसी प्रकार अन्य भावों के बारे में जानिए।
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29. The Transit of Planets
पाठ- 29. गोचर विचार
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में जातक का फल उसकी जन्म कुण्डली में ग्रहों की स्थिति (योग) दशान्तर दशा तथा गोचर पर निर्भर करता है। फलित विचार में हमने योगों को पढ़ा गणित में हमने दशान्तर दशा को जाना तथा अब हम गोचर पर विचार करेंगे तीनों भागों को योग, दशान्तर दशा तथा गोचर का समग्र विचार करके ही फलित किया जा सकता है प्रत्येक भाग का अपना अपना महत्व है। योग का विचार प्रथम स्थान पर होता है। द्वितीय स्थान दशान्तर दशा का तथा तृतीय स्थान गोचर का होता है। जो योग नहीं दे सकता वह दशान्तर दशा तथा गोचर कितना ही शुभ हो, अनुकूल हो दे नहीं सकता। मानो कि जातक की कुण्डली में शादी का योग नहीं तो अनुकूल दशान्तर दशा व गोचर कभी भी शादी नहीं दे सकता। पहले शादी का योग होना चाहिये। फिर उसके अनुसार दशान्तर दशा होनी चाहिये। तीसरे गोचर के अनुकूल होते ही जातक की शादी होती है।
मानो कमरे में पंखा चल रहा है। यह घटना कैसे हो रही है। यदि बिजली नहीं हो तो पंखा चलेगा। इसको हम यह भी कह सकते है कि प्रथम बिजली होनी चाहिये, द्वितीय पंखा होना चाहिये। तृतीय चालू व बन्द करने का बटन भी होना चाहिये। तब जाकर पंखा हवा करेगा, चलेगा। इसको यूं भी समझ सकते है मानो आपको पत्र मिला कैसे ? प्रथम आपके लिये पत्र लाकर आप तक पहुंचाएगा। यदि आपके लिये पत्र ही नहीं हो तो डाकखाना या डाकिया क्या कर सकता है।
I
इसलिए किसी भी घटना के लिये पहले योग होना चाहिये। फिर उसके अनुकूल दशान्तर दशा होनी चाहिये । तृतीय गोचर भी अनुकूल होना चाहिये तब जाकर जातक के जीवन में घटना होगी। अन्यथा नहीं। इस प्रकार हमें अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिये। कि गोचर का स्थान तृतीय है । गोचर योग तथा दशान्तर पर निर्भर करता है। गोचर स्वयं में कोई फल नहीं दे सकता ।
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गोचर विचार
गोचर का फल चन्द्र, सूर्य या लग्न में से किससे देखा जाना चाहिये?
ग्रह अपने-अपने मार्ग से व अपनी अपनी गति से सदैव सूर्य के चारों ओर घूमते रहते हैं। इससे ग्रह एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हुए सूर्य की परिक्रमा पूरी करते हैं। जब जातक का जन्म होता है उस समय ग्रह जिस-जिस राशि का भ्रमण कर रहे होते हैं वह जन्म कुण्डली कहलाती है। जन्म समय के बाद ग्रह जिस-जिस राशि में भ्रमण करते रहते हैं वह स्थिति गोचर कहलाती है। गोशब्द संस्कृत भाषा की "गम्" धातु से बना है। गम् का अर्थ है 'चलने वाला आकश में अनेक तारे है। वे सब स्थिर हैं। तारों से ग्रहों को पृथक दिखलाने के कारण ग्रहों को गो नाम रखा। चर का अर्थ है 'चलन' अस्थिर बदलने वाला इसलिये गोचर का अर्थ हुआ ग्रहों का चलन अर्थात ग्रहों का परिवर्तित प्रभाव जन्म कुण्डली में ग्रहों का एक स्थिर प्रभाव है और गोचर में ग्रहों का उस समय से परिवर्तित बदला हुआ प्रभाव दिखलाई पड़ता है।
ज्योतिष शास्त्र में तीन तरह के लग्न प्रचलित हैं। जन्म लग्न, चन्द्र लग्न व सूर्य लग्न यह परिवर्तित प्रभाव हमें कहां से देखना चाहिये जन्म लग्न से या चन्द्र लग्न से या सूर्य लग्न से लग्न का अपना-अपना महत्व है लग्न तनु का चन्द्र मन का और सूर्य आत्मा का प्रतिनिधि है। जातक इन तीनों के समन्वय से बना है। आत्मा शरीर के बिना अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती। शरीर का नियन्त्रण मन के हाथ में है मन ही शरीर की ज्ञानेन्द्रियो व कर्मेन्द्रयों पर नियंत्रण करता है। इसलिये चन्द्र लग्न का महत्व बढ़ जाता है। मन्त्रेश्वर ने भी फलदीपिका में चन्द्र लग्न से गोचर का विचार करने का निर्देश दिया है।
सवेषु लग्नेषु अपि सत्सु चन्द्र लग्नम् डा धानम् खलु गोचरेषु ।। अर्थात सब प्रकार के लग्नों (लग्न, सूर्य लग्न चन्द्र लग्न) के होते हुए भी गोचर विचार में प्रधानता चन्द्र लग्न की ही है।
बृहत् पराशर होरा शास्त्र में भी चन्द्र लग्न व जन्म लग्न दोनों को ही महत्व पूर्ण बतलाया है और दानों लग्नों से फलित करने का आदेश दिया है।
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आधान लग्न सिद्धान्त के अनुसार यह पाया गया है कि चन्द्रमा जन्म लग्न में उसी भाव में गोचर करता है जिस भाव में व गर्भाधान के समय होता है। यहां महत्व चन्द्र का है।
दशा व अन्तर दशा के समय पर दशा नाथ जिस राशि में बैठा होता है उसको लग्न मान कर दशा के शुभ व अशुभ का विचार होता है। अर्थात् लग्न बारह हो जाते हैं। इसलिये भी चन्द्र लग्न का महत्व बढ़ जाता है।
गोचर अष्टक वर्ग पद्धति का एक अंग है। अष्टक वर्ग लग्न व सात ग्रहों को मिला कर बनता है। अष्टक वर्ग में देखा जाता है कि ग्रह कहां-कहां शुभ व अशुभ फल दे सकते हैं। यहां पर शुभ व अशुभ फल ग्रहों की परस्पर स्थिति, मैत्री व नैसर्गिक शुभता व अशुभता का ध्यान रखा जाता है। दो ग्रहों का परस्पर शुभत्व व अशुभत्व देगा न कि लग्नों का। लग्न तो बारह हो जाते है। चन्द्रमा एक ग्रह है। इस प्रकार चन्द्रमा से कौन ग्रह शुभ है कौन ग्रह अशुभ देखा जाता है। इसलिए महर्षियों ने गोचर फल निर्णय के लिये चन्द्र को चुना जो ग्रह होने के साथ-साथ एक लग्न भी है और लग्न पर भी नियन्त्रण रखता है।
दशा का क्रम भी चद्रमा के नक्षत्र के स्वामी से आरम्भ होता है अर्थात् जीवन का आरम्भ भी चद्रमा से ही होता है। चन्द्रमा ही जातक के शैशव काल का कारक है। इसलिये बालारिष्ट में चन्द्रमा की कुण्डली में स्थिति महत्व पूर्ण है। चन्द्रमा से ही गणन्त आदि देखा जाता है। चन्द्रमा से ही तिथि का महत्व है। तिथि चन्द्रमा से बनती है। दिन का नक्षत्र भी चन्द्रमा से ही देखा जाता है। जिस नक्षत्र में चन्द्रमा होता है वही नक्षत्र दिन का भी होता है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि वैदिक ज्योतिष में चन्द्रमा का बहुत महत्व है। तिथि, नक्षत्र मुहूर्त, दशा आदि सब कार्य कलाप चन्द्रमा से ही देखे जाते हैं। इसलिये गोचर में भी चन्द्रमा का महत्व बढ़ जाता है। इसलिए महर्षियों ने गोचर को भी चन्द्रमा से देखने का आदेश दिया।
क्या केवल गोचर से ही फलित कहा जा सकता है?
गोचर फलित का एक प्रभावशाली अंग है। और फलित में एक महत्वपूर्ण स्थान
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रखता है। परन्तु यह सब कुछ नहीं। हमारे महर्षियों ने यह स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जो कुछ कुण्डील में नहीं वह गोचर नहीं दे सकता। गोचर में ग्रह चाहे कितना ही अच्छा योग बनाते हो यदि वह योग कुण्डली में नहीं तो वह गोचर नहीं दे सकता।
उदाहरण गोचर तो दशा व अन्तर दशा के अधीन भी कार्य करता है। यदि दशा व अन्तर दशा ऐसे ग्रहों की चल रही हो तो जातक
जो जातक के लिये अशुभ हो परन्तु गोचर शुभ हो तो गोचर का शुभ फल जातक को नहीं मिलता। क्योंकि गोचर में यह देखा जाता है कि जन्म कुण्डली की ग्रह स्थिति से वर्तमान गोचर कुण्डली में ग्रह स्थिति अच्छी या बुरी कैसी स्थिति में है।
जो ग्रह जन्म कुण्डली में उत्तम स्थान में पड़ा हो वह गोचर में शुभ स्थान पर आते ही शुभ फल देगा। जो ग्रह जन्म कुण्डली में अशुभ हो वह यदि गोचर में शुभ भी होगा तो भी शुभ फल नहीं देगा। गोचर ग्रह जन्म के ग्रहों से जिस समय अंशात्मक या आसन्न योग करते हैं उस समय ही उनका ठीक फल प्रकट होता है। मान लो शुक्र वृष में 18° पर है। गोचर में शुक्र जब वृष 18° से योग बनायेगा। तब ही शुक्र का अच्छा या बुरा फल प्रकट होगा। इस प्रकार गोचर ग्रह जन्म के ग्रह के अधीन हुआ।
यदि गोचर का ग्रह अशुभ भाव में हो जन्म कुण्डली में वह ग्रह उच्च, स्वक्षेत्री हो तो गोचर में वह ग्रह अशुभ फल नहीं देता। अर्थात् गोचर के नियमों के आधार पर हम कह सकते हैं कि गोचर का फल जन्म कुण्डली के ग्रह स्थिति पर निर्भर करता है।
यदि गोचर के अन्य नियमों का अध्ययन करे तो हम पायेंगे कि गोचर दशा व अन्तर दशा के भी अधीन है। एक ही भाव के कई फल होते है। जैसेचतुर्थ भाव का कारकत्व माता, शिक्षा, वाहन जमीन, खेती बाड़ी सुख इत्यादि। इसमें से कौन सा फल फलित होना है यह सब दशा व अन्तर दशा पर निर्भर करता है। गोचर का फल वही होता है जो दशा व अन्तर दशा चाहती है। अर्थात् गोचर का फल दशा व अन्तर दशा के ऊपर निर्भर करता है। गोचर का फल तारा पर भी निर्भर करता है।
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1,3,5,7, तारा जन्म नक्षत्र से अशुभ होती है।
गोचर अष्टक वर्ग का एक अंग है। अष्टक वर्ग में ग्रहों और लग्न को केन्द्र मानकर उनके शुभाशुभ स्थानों की गणना की जाती है। प्रत्येक ग्रह का अष्टक वर्ग चक्र बनाया जाता है और उससे गोचर के ग्रहों का शुभाशुभ फल कहा जाता है। गोचर का फल अष्टक वर्ग चक्र पर भी निर्भर करता है।
समस्त ग्रह गोचर में एक स्थिति बनाते हैं। एक योग बनाते है और उस योग के अनुसार गोचर के ग्रहों का फल शुभाशुभ होता है। केवल एक ग्रह के फल का कोई इतना महत्व नहीं हैं। वह तो समस्त ग्रह मण्डल का एक अंग मात्र है जैसे हम शरीर न तो सिर को कह सकते है नहीं आंख को, नहीं नाक को, नहीं अन्य भिन्न-भिन्न अंगो को शरीर तो समस्त अंगो के मिलकर कार्य करने का नाम है। इसी प्रकार गोचर का फल भी समस्त ग्रह मण्डल के एक-विशेष स्थिति का नाम है न कि शनि का या गुरु आदि अन्य ग्रहों का, इसलिए तो शनि का या गुरु का प्रत्येक चक्र जातक को प्रत्येक समय भिन्न-भिन्न फल देता है।
इस प्रकार विचार कर हम कह सकते है कि केवल गोचर के आधार फल कहेंगे ज्योतिषी के लिये शोभा नहीं देता। इससे ज्योतिष शास्त्र का अपमान तो होता ही है जातक का भी अपमान होता है।
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The Good & Bad Positions from Moon in Transit Analysis
गोचर में चन्द्रमा से शुभ स्थान
तथा वेध स्थान
जब सूर्य चन्द्रमा से 3,6,10,11 में चन्द्रमा शुभ स्थान 1,3,6,7,10,11 मंगल 3,6,11 बुध 2,4,6,8,10,11 बृहस्पति 2,5,7,9,11 शुक्र 1,2,3,4,5,8,9,11,12 शनि 3,6,11 राहु/केतु 3,6,10,11
भाव में गोचर करता है तो शुभ फल देते है। परन्तु कई बार किसी अन्य ग्रह के विभिन्न स्थान पर गोचर करने से शुभ फल में रुकावट आ जाती है। जिसे वेध कहते है। प्रत्येक शुभ स्थान के भिन्न-भिन्न वेध स्थान है उनको तालिका के रुप में यों लिख सकते है। वेध स्थान क्रमश लिखे है। सूर्य शुभ स्थान 3,6,10,11 वेध स्थान
9,12,4,5 (शनि सूर्य का वेध नहीं करता) चन्द्रमा (चन्द्रमा का वेध बुध नहीं करता) शुभ स्थान
1,3,6,7,10,11 वेध स्थान
5,9,12,2,4,8 मंगल के शुभ स्थान 3,6,11 वेध स्थान
12,9,5 बुध के शुभ स्थान 2,4,6,8,10,11
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वेध स्थान
5,3,9,1,8,12 (बुध को चन्द्रमा का बेध नहीं होता) बृहस्पति के शुभ स्थान 2,5,7,11 वेध स्थान
12,4,3,10,8 शुक्र के शुभ स्थान 1,2,3,4,5,8,9,11,12 वेध स्थान
8,7,1,10,9,5,11,36 शनि के शुभ स्थान 3,6,11 वैध स्थान
12,9,5 (शनि को सूर्य का वैध नहीं होता)
विपरीत वेध या वाम वेध
भारतीय ज्योतिष में ग्रहों के शुभ स्थान तथा वेध स्थान निश्चित है जो ऊपर दिये गये हैं। जब कोई ग्रह वेध स्थानों पर गोचर करता है तो अशुभ फल देता है। परन्तु उस समय कोई अन्य ग्रह शुभ स्थानों पर गोचर कर रहा हो तो ग्रह अपना अशुभ फल स्थगित कर देता है जैसे सूर्य के शुभ स्थान 3,6,10,11 है तथा वैध स्थान 9,12,4,5 है। अब यदि सूर्य 9वें भाव में गोचर करेगा तो अशुभ फल देगा। परन्तु यदि उस समय कोई अन्य ग्रह (शनि के अतिरिक्त) शुभ स्थान 3 में हो तो सूर्य का अशुभ फल नहीं होगा। इसे विपरीत वेध या वाम वेध कहते हैं।
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30. Sadhe Sati - Good or Bad?
पाठ 30. साढे साती- अच्छी या बुरी
हिन्दु समाज साढ़े साती का नाम सुनकर हो ही घबरा जाता है। क्योंकि सब के मन में यह धारणा घर कर गई है कि साढ़े साती का प्रभाव जातक पर अशुभ होता है। ज्योतिषी भी इस धारण का पूरा लाभ उठाते हैं। परन्तु अनुभव में आया है कि साढ़े साती सबके लिए अशुभ नहीं होती। श्रीमति इन्दिरा गाँधी, भारत की भूतपूर्व प्रधान मन्त्री, साढ़ साती में ही पहली बार लाल बहादुर शास्त्री की केबनिट में मन्त्री बनी। लोगों का साढ़े साती में पदोभाति, उच्चपद, शादी, वाहन आदि प्राप्त होते है। इसलिए हम कह सकते हैं कि प्रत्येक जातक के लिए साढ़े साती अशुभ नहीं होती। साढे. साती में शनि जन्म चन्द्रमा के 12वें, जन्म चन्द्रमा तथा उससे दूसरे भाव में गोचर करता है तो चन्द्रमा प्रभावित होता है। चन्द्रमा मन, धन तथा माता का मुख्य कारक है तो मन में बेचैनी, धन हानि या तंगी तथा माता पीड़ित होती है। चन्द्रमा बहुत ही संवेदनशील ग्रह है। इसके 12वें तथा दूसरे भाव में ग्रह का होना आवश्यक रहता है। यदि 12वें, 2रे या साथ में कोई भी ग्रह नहीं होतो केमुद्रुम योग बनाता है जातक निर्धन रहता है। इसलिए चन्द्रमा से केन्द्र, 12वें तथा 2रे भाव में ग्रह का होना जातक के मन के लिए उत्तम है। यदि नैसर्गिक अशुभ ग्रह चन्द्रमा से केन्द्र, 12वें 2रे या साथ में स्थित हो तो जातक का मन हमेशा पीड़ित रहता है। शनि सब अशुभ ग्रहों में धीमें चलता है। इसलिये शनि का चन्द्रमा से 12वें, केन्द्र, चन्द्रमा के साथ या 2रे भाव में चन्द्रमा को पीड़ित करता है। मन को पीड़ित करने का यह अर्थ कदापि नहीं कि जातक भीख का कटोरा हाथ में पकड़कर भीख मांगता है। माता-पिता की मृत्यु, स्थान परिवर्तन बच्चों के साथ परेशानियां, उच्च पद के कारण अधिक जिम्मेदारियां आदि सब मन को पीड़ित करती है तथा जातक को बेचैन करती है। धन प्राप्त होता है। उच्च पद प्राप्त होता है। महर्षि ने एकादशेश की दशा को अशुभ बताया है। जिसमें सुख के साधन प्राप्त होते है परन्तु जीव, मन दुःखी रहता है। शायद इसीलिए ही पाश्चात्य सभ्यता में पले लोगों के पास सब सुख-सुविधा के साधन होने के बाबजूद उनका मन सुखी नहीं। इसलिए साढ़े साती जातक के लिए शुभ रहेगी या अशुभ इसका अध्ययन करने के लिए हमें गोचर के कुछ नियमों का ध्यान करना पड़ेगा।
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1. लग्न का बल हम सभी जानते हैं कि हम विंशोतरी दशा का प्रयोग करते हैं विंशोतरी दशा के नियमों के अनुसार त्रिकोण के स्वामी शुभ फल देते है। हम यह भी जानते हैं कि गोचर का फल योग तथा दशान्तर दशा के अधीन रहता है। इसलिए यदि योग तथा दशान्तर दशा शुभ है तो गोचर का फल अशुभ नहीं हो सकता। दूसरा यदि जन्म कुण्डली में चन्द्रमा के पास पक्षबल प्राप्त है तथा शुभ दृष्ट है, केन्द्र या त्रिकोण में स्थित है तो शनि उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता तीसरा यदि शनि त्रिकोण का स्वामी है तथा शुभ स्थित है, राशीश, नवांशेश तथा नक्षत्र भी शुभ है तो शनि की साढ़े साती भी शुभ फल देगी। इसलिए साढ़े साती का फल जन्म कुण्डली में चन्द्रमा तथा शनि के बल पर निर्भर करता है। 2. गोचर में नक्षत्र वेध ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते रहते है। सूर्य की भाँति नक्षत्र भी स्थिर है जिसके प्रभाव में ग्रह रहते है। मैं तो कई बार विद्यार्थियों से कहता हूँ कि ग्रह तो केवल नक्षत्रों के प्रभाव को प्रतिबिम्बित करते हैं। नक्षत्र का प्रभाव मुख्य है। इसके प्रभाव को जानने के लिए तप्तशलाखा का प्रयोग करते हैं।
पर्व कृ. रो. म. अ पुन पु. आ.
म
भ.
अ.
उत्तर
दक्षिण
पू.भा उ.भा रे.
पू.फा. उ.फा ह चि. स्वा वि.
श
ध.
श्र.
अ.
उषा. पूषा. म पश्चिम
ज्ये. अनु.
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इस प्रकार रेखाओं का चक्र बनाकर 28 नक्षत्र, अभिजित् के साथ, क्रम से नाम लिखा जाता है। 1. वर्तमान सूर्य नक्षत्र जहां हो वहां लिख ले। यदि जन्म नक्षत्र का सूर्य नक्षत्र से वेध हो तो जीवन में अशुभ का भय रहता है। 2. जन्म नखत्र से 19वें नक्षत्र का वेध हो तो भय तथा चिन्ता 3. जन्म नक्षत्र से 10वें नक्षत्र का वेध हों तो धन इति जन्म नक्षत्र पहला- अंन्ध्र नक्षत्र, 10वां- अनुजन्म तथा 19वां नक्षत्र-त्रिजन्म नक्षत्र कहलाता है। कई बार इसको तारा भी कहते है। इसको केवल गोचर के सूर्य नक्षत्र से ही नहीं देखना चाहिये अपितु, मंगल, शनि, राहु तथा केतु के नक्षत्र से भी देखना चाहिये। जब जब गोचर में शनि आदि अशुभ ग्रह 1.10.19 नक्षत्र पर गोचर करेंगे जातक को अशुभ फल प्राप्त होता है।
तारा तारा का भी अर्थ नक्षत्र ही है। जन्म के समय चन्द्रमा जिस नक्षत्र पर होता है। उसे जन्म तारा कहते है। द्वितीय तारा का सम्पत, तृतीय को विपत, चतुर्थ को क्षेम पंचम को प्रत्यरि षष्ठ को सोधक ,सप्तम-वेध, अष्टम-मित्र तथा नवम- अधिमित्र कहलाती है। इनका तीन पर्याय 1.10.19 में विभाजित करते हैं। दूसरे को 2.11.20, तीसरे को 3.12.21 इस क्रम से 27 तारा तीन पर्याय में विभाजित होती है। सूर्य 2,4,8,9,11,13,24वीं तारे से गोचर करता है तो शुभ फल प्राप्त होता है। अशुभ फल 1,14,16,19,23 तारा चन्द्रमा शुभ 4,6,8,9,11,13,15,26,27 अशुभ 1,3,5,7,12,14,19,21 मंगल शुभ 9,11,17,22,24 अशुभ 1,3,5,7,12,14,19,21 बुध शुभ 4,6,13,15,17,20,22,24,26,27 गुरु तथा शुक्र शुभ 1,3,7,10,12 तथा 19
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शनि शुभ 2,4,6,8,13,15,17,18,20, राहु शुभ 22,24 केतु युम 22,24 ऊपर हमने शास्त्रो के अनुसार शुभ स्थान लिखे हैं परन्तु यह मान्यता है कि जन्म तारा, विपति, प्रत्यरि, वध तारा अशुभ (1,3,5,7) होती है। जब-जब गोचर करता है तथा दशान्तर दशा भी इन तारा स्वामियों को चल रही होती है तो अशुभ फल प्राप्त होता है। यदि शुभ ग्रह बृहस्पति, शुक्र शुभयुक्त बुध तथा पक्षबली चन्द्रमा, लग्न से त्रिकोण (5,9) तथा केन्द्र (1,4,7,10) भाव से गोचर कर रहे होते हैं तथा तारा भी शुभ होती है तो शुभ फल प्राप्त होता है। परन्तु जब शुभ ग्रह शुभ तारा से गोचर करते हैं परन्तु शुभ भाव से गोचर नहीं करते तो शुभ फल प्राप्ति नहीं होता। सम फल प्राप्त होता है। जब अशुभ ग्रह (शनि, मंगल, सूर्य, राहु तथा केतु, पक्ष बलहीन चन्द्रमा एवं अशुभ युक्त बुध) लग्न से 8 तथा 12 भाव से गोचर करते हैं तथा अशुभ तारा से गोचर करते हैं अशुभ फल प्राप्त होते हैं। यदि जन्म कुण्डली में भी ग्रह पीड़ित हो तो अशुभ फल बड़े जाते है। यदि ग्रह केन्द्र या त्रिकोण से गोचर करते है तथा तारा अशुभ हो तो समफल हो जाता है। इस प्रकार गोचर के ग्रहों का भाव, दशान्तरदशा की तारा तथा ग्रह की तारा का समन्वय बिठा कर गोचर के ग्रह का फल कहना ज्यादा उत्तम रहता है। 4. अष्टक वर्ग गोचर के ग्रहों के लिए अष्टक वर्ग एक उत्तम पद्धति है। श्री के. एन राव इस पद्धति का बहुत प्रयोग करते है। भिन्न अष्टक वर्ग तथा समुदाय अष्टक वर्ग (SAV) का प्रयोग किया जाता है। अष्टक वर्ग के आठ अंग होते हैं। आठों अंगों पर भिन्न-भिन्न ग्रहों का शुभ या अशुभ प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक अंग पर समस्त ग्रहों का प्रभाव भिन्न अष्टक वर्ग में मिलता। समुदाय अष्टकवर्ग में जन्म कुण्डली में किस-किस भाव पर समस्त ग्रहों का क्या प्रभाव है अंको के द्वारा दर्शाया जाता है। भाव पर कम से कम 28 अंक प्राप्त हो तो शुभ यदि 28 अंक से कम हो तो अशुभ फल होता है। जितने अंक कम होंगे अशुभ फल
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उतना ही ज्यादा होगा। यदि अंक 28 से ज्यादा है, जितने ज्यादा होंगे, उतना उत्तम फल होता है। भिन्न अष्टक वर्ग में कम से कम चार अंक होने चाहिये। चार से कम अशुभ चार से ज्यादा शुभ होते है। गोचर का ग्रह अपने भिन्न अष्टक वर्ग में कितने बिन्दुओं से गोचर कर रहा है, चन्द्रमा के भिनन अष्टक वर्ग में कितने बिन्दुओं से गोचर कर रहा है तथा समुदाय अष्टक वर्ग में कितने बिन्दुओं से गोचर रक रहा है उसके अनुसार जातक को शुभ या अशुभ फल प्राप्त होता है। 5. मूर्ति निर्णय प्राचीन शास्त्रों में गोचर के ग्रहों का शुभाशुभ मूर्ति निर्णय से भी जानने को कहा गया है। परन्तु कम्प्यूटर के जमाने में इसका महत्व कम हो गया है। गणित का महत्व बढ़ गया है। ग्रहों को शुभ व अशुभ भागों में बांटा जाता है। जब शुभ ग्रह राशि परिवर्तित करते है तो उस समय गोचर का चन्द्रमा जन्म चन्द्रमा से किस भाव में स्थित है उसके अनुसार गोचर के शुभाशुभ ग्रह का फल बतलाते हैं। उसे चार मूर्तियों में बांटा गया है। जब गोचर का चन्द्रमा जन्म चन्द्र से 1,6,11 भाव में स्थित होता है तो स्वर्ण मूर्ति कहलाती है जो उत्तम होती है। रजत 2,5,9 शुभ ताम्र 3,7,10 मध्यम लौह 4,8,12 अशुभ फलदायक होती है। इसी प्रकार अशुभ ग्रह (शनि, मंगल, राहु, केतु, सूर्य पक्ष बल हीन चन्द्रमा, अशुभ युक्त बुध) गोचर में राशि परिवर्तन करते हैं तो गोचर का चन्द्रमा जन्म चन्द्रमा से ऊपर के भाव में रहता है तो जो मूर्ति बनाता है।
रजत मूर्ति उत्तम फल ताम्र मूर्ति शुभ फल लौह, मूर्ति मध्यम फल स्वर्ण मूर्ति अशुभ फल देती है। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या जन्म चन्द्रमा चाहे 1° का हो या 15° या 27°
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हो तो क्या वहीं फल देगा? दैवज्ञ श्री काटवे, महाराष्ट्र के उत्तम ज्योतिषी रहे हैं, उनका कहना है कि शनि की साढ़े साती उस समय आरम्भ होती है जब शनि चन्द्रमा से 45° पीछे होता है तथा तब तक रहती है जब वह 45° आगे रहता है। इस प्रकार जन्म चन्द्रमा के अंशो में से 45° घटाओ तथा 45° जोड़ो। इससे प्राप्त होने वाली चाप पर जब तक शनि रहता है शनि की साढ़े सती रहती हैं। इस प्रकार ग्रह का राशि परिवर्तन समय कोई महत्व नहीं रखता। इस प्रकार मूर्ति निर्णय पद्धति महत्वहीन हो जाती है। 6. शनि वाहन विचार कुछ विद्वान् शनि की साढ़े साती के शुभाशुभ का विचार शनि के राशि प्रवेश समय से वाहन निकाल कर भी करते है। जिस दिन शनि राशि में प्रवेश करता है उस दिन की तिथि + वार+ नक्षत्र + जन्म नक्षत्र को जोड़कर 9 से भाग देते हैं जो शेष बचे उससे वाहन निकालते है। यदि शेष
फल
1 हो तो वाहन खर हानि 2 हो तो अश्व (घोड़ा) जय
हो तो गज (हाथी) सुख 4 हो तो महिष (भैंसा) मध्यम 5 हो तो सिंह
शत्रुनाश 6 हो तो जम्बुक (स्यार) शोक 7 हो तो काक
कलह 8 हो तो मोर (मयूर) 9 हो तो हंस
सुख अन्य मत से 4 महिष का फल लाभजनक बताया गया है। अन्य मत से ग्रह जिस नक्षत्र पर राशि परिवर्तन, जन्म नक्षत्र से उस नक्षत्र तक गिन कर 9' से भाग दे। जो शेष बचे उससे वाहन निकाले। इस प्रकार कई अन्य मत भी प्रचलित है जिससे गोचर के ग्रह का शुभाशुभ फल निकलाते हैं। परन्तु लग्न, सप्तशलाखा, तारा तथा अष्टक वर्ग से ग्रह को
लाभ
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शुभाशुभ उत्तम है। पाठकों को फिर मैं याद दिलाना चाहूँगा कि जो जन्म कुण्डली के योगों में नहीं वह दशा अन्तर दशा नहीं दे सकती। माना कि जातक की जन्म कुण्डली में शादी का योग ही नहीं हो तो दशान्तर दशा सप्तमेश की हो या कारक ग्रह की शादी नहीं दे सकती। इसलिए फल के लिए योग का होना आवश्यक होता है। इसी प्रकार जो ग्रह की दशान्तरदशा नहीं दे सकती, वह उस फल को देता है यदि दशान्तर दशा ही तो गोचर कितना भी शुभाशुभ हो नहीं दे सकता। पहले दशान्तर दशा का होना आवश्यक है फिर गोचर उस फल को देता है। यदि दशान्तर दशा ही नहीं तो गोचर कितना भी शुभाशुभ हो वह फल नहीं दे सकता। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है। कि सबसे पहले जातक के लिये फल होना चाहिये। दशान्तरदशा उस फल को संदेश वाहक, गोचर को देती है। तथा संदेश वाहक, गोचर वह फल जातक को देता है। यदि दशान्तर दशा संदेश वाहक को फल ही नहीं देगी तो संदेश वाहक जातक को फल कहां से देगा? इसलिए क्रम निश्चित है पहले फल होना चाहिये (योग) दूसरे उन ग्रहों की दशान्तर दशा होनी चाहिये तब गोचर जातक को फल देता है। अन्यथा फल प्राप्त नहीं होता गोचर केवल सहायक है। गोचर के फल को प्रभावित करने वाले भिन्न-भिन्न पहलुओं का अध्ययन करने के बाद साढ़े साती का अध्ययन करते हैं। जन्म राशि से 12वें स्थान जन्म राशि पर एवं द्वितीय भाव पर जब शनि गोचर करता है उसे शनि की साढ़े साती कहते हैं। शनि एक राशि पर लगभग 2. 5 वर्ष रहता है। इस प्रकार तीन राशियों पर 7.5 वर्ष हुए। इसलिए इसे साढ़े साती कहते है। साढ़े साती अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी। यह सब जन्म कुण्डली में चन्द्रमा तथा शनि कि स्थिति तथा बल पर निर्भर करता है। लग्न, सप्तशलाखा, तारा तथा अष्टक वर्ग के बल पर भी निर्भर करता है। परन्तु फिर भी यह मानसिक कष्ट कारक हो सकती है। जब शनि जन्म चन्द्रमा से 45° कम पर 12वें भाव में रहता है तो शनि का प्रभाव आरम्भ हो जाता है। यदि शनि वक्री हो जाए तो 7.5 वर्ष से भी ज्यादा समय तक तीनों राशियों पर रह सकता है जैसे कुम्भ राशि वालो के लिए 1993 में हुआ। जिनका दीर्घ जीवन है उनके जीवन में 3 बार साढ़े साती आती है। पहले फेरे
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में कुछ बुरा फल देती है परन्तु आक्रमण बड़े वेग से होता है। दूसरे पर्याय में वेग तो कम हो जाता है परन्तु फिर भी कष्ट तो मिलता ही है, परन्तु इतना हानि कारक नहीं होता तथा कुछ शुभ फल भी प्राप्त होता है। परन्तु तीसरे पर्याय में जातक की मृत्यु हो जाती है। बहुत कम भाग्यवान जातक ही इस तीसरे पर्याय को झेल पाते हैं। साढ़े साती में साधारणतया हम यह देखते हैं कि शनि किस राशि से गोचर कर रहा है। उस राशि के स्वामी से उसका कैसा सम्बन्ध है। यदि उसका सम्बन्ध मित्रता का है तो अशुभ फल नहीं होता। वैसे तो यह सम्बन्ध पंचधा मैत्री से देखना चाहिये। परन्तु पंचधा मैत्री तो कुण्डली के अनुसार बनेगी। समझाने के लिये हम लिखते है मित्र की राशि से गोचर कर रहा है। माना कि शनि गोचर कर रहा है। मेष राशि से प्रथम 2.5 मीन, जिसका स्वामी बृहस्पति है तथा शनि के गुरु के साथ सम नैसर्गिक सम्बन्ध है तो प्रथम 2. 5 सम द्वितीय 2.5 मेष, जिसमें चन्द्रमा स्थित है उसका स्वामी मंगल है जो शनि का शत्रु है। अर्थात द्वितीय ढैया अशुभ तीसरी दैया में शनि वृष राशि में गोचर करेगा। वृष के स्वामी शुक्र को शनि मित्र समझता है, इसलिये तीसरे द्वैया शुभ अर्थात् मेष राशि वालों के लिये केवल दूसरे दैया अशुभ हुई। इस प्रकार इसको इस तालिका में लिख सकते है। चन्द्रमा
प्रथम द्वितीय तृतीय ढैया मेष सम
अशुभ अशुभ
शुभ मिथुन शुभ
अशुभ अशुभ
अशुभ सिंह
अशुभ अशुभ कन्या अशुभ
शुभ तुला शुभ शुभ
अशुभ वृश्चिक
अशुभ सम अशुभ
शुभ मकर सम शुभ
शुभ कुम्भ मीन शुभ
अशुभ
शुभ
वृषम
शुभ शुभ
कर्क
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
धनु
सम
शुभ
सम
सम
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कुछ विशेष नियम 1. जन्म कुण्डली में शनि 6,8,12, भाव में गोचर करते हुए यदि अशुभ ग्रह से दृष्ट या युक्त हो तो अशुभ फल प्राप्त होता है। 2. जन्म चन्द्रमा यदि 2 या 12 भाव में अशुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो शनि की साढ़े साती अशुभ होती है। 3. जन्म चन्द्रमा निर्बल हो तथा अशुभ भाव में स्थित हो तो शनि की साढ़े साती अशुभ होती है। 4. यदि जन्म चन्द्रमा से 2 या 12वें भाव में शुभ ग्रह हो तथा शुभ दृष्ट हो तो शनि की साढ़े साती शुभ फल देती है। 5. जन्म चन्द्रमा शनि से युक्त हो, मंगल से दृष्ट न हो, तो साढ़े साती शुभ फल देती है अर्थात् जन्म कुण्डली में चन्द्रमा की स्थिति युत तथा दृष्टि साढ साती को प्रभावित करती है। आइये सर्वप्रथम भूतपूर्व प्रधान मन्त्रि श्रीमती इन्दिरा गाँधी की कुण्डली का अध्ययन करें। उनका जन्म 19.11.1917, सबेर 11.11 मिनट पर इलाहाबाद में हुआ।
च. 5 श.
4 2 गु / 12THश
X
X
10 च.
X 12 ||
6
1Ge/
भोग्य दशा सूर्य 1.11.23 दिन इनकी पहली साढ़े साती 1.12 वर्ष आयु में पहली साढ़े साती आरम्भ हुई। उस समय शनि राहु तथा शुक्र के ऊपर से गोचर कर रहा था तथा लग्न से षष्ठ भाव था। शुक्र चतुर्थ तथा एकादश भाव का स्वामी है। एकादश भाव चतुर्थ से अष्टम भाव का स्वामी है जो माता के लिए अशुभ है। इसलिए पहली ही साढ़े साती के माता की मृत्यु हो गई। दूसरी
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साढ़े साती फरवरी, 1958 में आरम्भ हुई। जब शनि कुम्भ राशि में गोचर कर रहा था उस समय गुरु/शुक्र। गुरु की दशा चल रही थी। शनि को भिन्न अष्टक वर्ग में दो बिन्दु प्राप्त है तथा समुदाय अष्टक वर्ग में 25 | चन्द्रमा के भिन्न अष्टक वर्ग में चार बिन्दु शनि को कुम्भ में प्राप्त है। कुम्भ में शनि मंगल से दृष्ट, कुम्भ लग्न से अष्टम भाव की राशि है तथा नवम भाव से द्वादश, सूर्य से चतुर्थ भाव में स्थित है तथा शनि दशम दृष्टि से सूर्य को देख रहा है। इस प्रकार दशा, कारक सूर्य, नवम भाव का स्वामी गुरु, सब शनि से पीड़ित है। इनके पिता की मृत्यु हो गई मई, 19641 परन्तु शनि कुम्भ में दशम भाव से एकादश भाव में था, चन्द्रमा से द्वितीय, अपनी मूलत्रिकोण राशि में स्थित था तथा चन्द्रमा के भिन्न अष्टक वर्ग में चार बिन्दु प्राप्त थे इसलिए जातक पहली बार लाल बहादुर शास्त्री की केबनेट में पहली बार मन्त्री बनी। इस प्रकार हम पाते हैं कि वही साढ़े साती पिता के लिए मृत्युकारक बनी तथा जातक के लिए पद प्राप्त कारक बनी। इस अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि साढ़े साती जन्म लग्न में स्थित ग्रहों से, चन्द्रमा के बल से, शनि की स्थिति से तथा दशान्तरदशा, अष्टक वर्ग में प्राप्त बिन्दुओं से प्रभावित होती है। बृहस्पति/शुक्र की दशा श्रीमती इन्दिरा गाँधी, दशम से नवम भाव में शुक्र बृहस्पति नवम भाव का स्वामी तथा वक्रीय और शुक्र की राशि में एकादश भाव में है इसलिए शनि की साढ़े साती पदोन्नति का कारण भी बनी। अर्धाष्टमशनि या ढैया- जब शनि चन्द्रमा से चतुर्थ भाव में जाता है तो चन्द्रमा को दशम दृष्टि से देखता है। उस समय पर भी चन्द्रमा शानि से पीड़ित होता है। परन्तु फल तो चन्द्र, शनि, लग्न, तारा, सप्तशलाखा, दशान्तरदशा पर निर्भर करता है। इसको कष्टक शनि भी कहते हैं। इसी प्रकार शनि जब जन्म चन्द्रमा से अष्टम भाव में गोचर करता है तो शुभाशुभ फल देता है। शुभाशुभ फल का निर्णय अष्टक वर्ग, तथा तारा, दशान्तर दशा ही करेगी। यदि सर्वाष्टक वर्ग में 28 से ज्यादा शुभ बिन्दु हो तो शनि का उस भाव में गोचर जातक को कष्ट न देकर आकस्मिक अच्छा
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फल देता है। श्री के. एन. राव ने श्री डी. एन. दीक्षित के समय शनि के चन्द्रमा से अष्टम गोचर को देखकर तथा अष्टम भाव में 28 से ज्यादा शुभ बिन्दुओं को देखकर ऐसी ही भविष्य वाणी की थी जिससे हम सब चकित रह गये थे। श्री दक्षित के उच्च पद का विचार किया जा रहा था। शनि अष्टम में गोचर कर रहा था। ज्योतिषी उनके पदच्युति की बात कर रहे थे। अष्टम भाव में 36 शुभ बिन्दु थे, दशान्तर दशा तथा तारा शुभ थी। श्री राव ने पद प्राप्ति की बात कही तथा भविष्य वाणी सही हुई। इसलिए शनि का गोचर दशान्तर दशा, तारा तथा अष्टक वर्ग के शुभ विन्दुओं से प्रभावित रहता है। शनि को केवल कष्टकारी मानकर चलना न्याय संगत नही होगा न्याय संगत नहीं होगा।
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31-32. Matching of Horoscope
पाठ- 31-32. कुण्डली मिलान
उपयोगिता
भारतीय संस्कृति में विवाह शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र नहीं। यह एक सौदा नहीं है। यह एक समाजिक, सांस्कृतिक धार्मिक संस्कार है। विवाह समाज का आधार है। परिवार सुखी तो बच्चे, बुढ़े व अन्य सब सदस्य सुखी रहते हैं। हमारे मनिषियों ने इस तथ्य को पहचाना तथा परिवार को सुखी व समृद्ध रखने के लिये मेलापक जैसा तरीका ढूंढा। विवाह दो शरीरों का ही मिलन नहीं है अपितु दो परिवारों का सम्बन्ध बनता है। दो अलग अलग वातावरणों में उत्पन्न, पले तथा बढ़े युवक तथा युवतियों का मिलन है। अलग-अलग वातावरण में पले तथा बढ़े व्यक्तियों की इच्छाएं आकांक्षाएं, उम्मीदें तथा विचार शक्ति सोच भी अलग-अलग होती है। इसलिये दोनों में समन्वय करना, मिलाप करना आवश्यक हो जाता है। गृहस्थ जीवन को रथ के समान माना है। यदि दोनों पहिये एक धुरी पर समान गति से नहीं चले तो गृहस्थ जीवन में समृद्धि आना असंभव हो जाता है। जीवन नरक हो जाता है। इसलिए मेलापक आवश्यक हो जाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या मेलापक सबके लिए आवश्यक है? क्या जो लोग मेलापक नहीं करवाते वे सुखी तथा समृद्ध नहीं होते? हमारे यहां सिख, मुसलमान, ईसाई इत्यादि लोग, कई वार आर्य समाजी परिवार भी मेलापक नहीं करते। क्या यह परिवार सुखी नहीं? ऐसी बात नहीं। सुख और समृद्धि तो वहां पर भी है। दवाई की तो उसको ज्यादा जरूरत होती है जो रोगी होता है अन्य व्यक्ति तो केवल प्रकृति के नियमों का पालन करता हुआ निरोग रह सकता है। मौसम के अनुसार खान-पान तथा वस्त्र धारण करने से भी व्यक्ति निरोग रह सकता है। परन्तु जो रोगी है उसके लिए तो औषध आवश्यक हो जाती है। जिनकी कुण्डली में कोई दोष उपस्थित है उनको मिलाना आवश्यक है ताकि गृहस्थ का रथ सुचारू रूप से व्यवस्थित रहे। यह नहीं होता कि कुण्डली मिलान से ग्रहों की स्थिति बदल जाती है,
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अपितु दोनों कुण्डलियां एक दूसरे की पूरक हो जाती है। दोनों कुण्डलियों के गुण दोष एक दूसरे को काटते हुए गृहस्थ जीवन में सुख व समृद्धि बढ़ाते हैं। इसलिए कुण्डली मिलान के बिना भी गृहस्थ सुखी रह सकता है। परन्तु जिनकी कुण्डली में दोष रहता है, यदि वे कुण्डली मिलान के बिना विवाह करते हैं तो तलाक, असमय मृत्यु, कलह, बच्चे तथा बुढ़े दुःखी रहते हैं। गृहस्थ नष्ट हो जाता है तो समाज नष्ट हो जाता है।
मेलापक का आधार ज्योतिष शास्त्र में लग्न तथा चन्द्र लग्न की प्रधानता है। लग्न शरीर है जिसको सब सुख मिलता है। सारे कार्य कलापों का आधार है। इसलिए शरीर स्वस्थ रहना चाहिये। अर्थात लग्न बलवान होना चाहिये। चन्द्र लग्न मन है। मन ही शरीर तथा कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखता है। प्रेम मन का आधार है यदि मन प्रसन्न हो तो प्रत्येक कार्य सुन्दर व सुखदायक प्रतीत होता है। इसलिए हमारे मनीषियों ने मेलापक का आधार जन्म राशि को बनाया है।
जन्म राशि अर्थात जन्म समय पर चन्द्रमा जिस राशि में स्थित होता है, को आधार बनाकर वर-वधु के गुण दोष निकाले।
गणना में नाम की प्रधानता
भारतीय ज्योतिष के अनुसार विवाह, यात्रा, उपनयन, चड़ाकरण, गोचर विचार आदि केवल जन्म राशि से ही देखने चाहिये। देश सम्बन्धी, शुभाशुभ, गृहनिर्माण, ज्वरविचार, व्यवहार, द्युत, दान, मन्त्रग्रहण, सेवा कर्म, काकिणी का विचार तथा स्त्री के द्वितीय विवाह में प्रसिद्ध नाम वश विचार किया जाता है। परन्तु जिनकी कुण्डली नहीं है उनका मेलाप प्रसिद्ध नाम से किया जाता है। यदि प्रसिद्ध नाम कई हो तो अन्तिम नाम से भी मेलापक देखा जाता है। यदि किसी का जन्म नक्षत्र व प्रसिद्ध नाम दोनों हो तथा अन्य का केवल प्रसिद्ध नाम हो तो मेलापक केवल दोनों के प्रसिद्ध नाम से ही देखना चाहिये। यह कदापि नहीं होना चाहिये कि एक का जन्म नाम तथा दूसरे का प्रसिद्ध नाम। दोनों का केवल एक ही नाम होना चाहिये- जन्मनाम या प्रसिद्ध नाम। जन्मनाम तथा प्रसिद्ध नाम दोनों को मिलाकर मेलापक नहीं देखना चाहिये।
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वर के लक्षण
कन्या केपिता को चाहिये कि वर में देखे कि वह सुशील कुल, निरोग शरीर, विद्या अवस्था, धन आदि उत्तम गुण होने चाहिये । अन्धा, गूंगा, रोग युक्त, नपुंसक, दूरस्थ पतित, दरिद्र, अन्यासक्त वर को अपनी कन्या न दे। कन्या के माता पिता को चाहिये कि वह अपनी कन्या बहुत नजदीक या बहुत दूर रहने वाले तथा अपने से बहुत सम्पन्न या बहुत दरिद्र वर भी अपनी कन्या न दे। क्योंकि दोनों के पालन-पोषण के वातावरण में बहुत अन्तर हो जाता है। बहुत नजदीक रहने से भी कन्या का दूसरे परिवार में सामंजस्य करने में कठिनाई पैदा होती है क्योंकि माता-पिता को कन्या के विवाहित प्रत्येक अवस्था का पता लगता रहता है और कन्या के माता-पिता बात-बात पर कन्या से मिलते रहते हैं। कन्या घर नहीं कर पाती। आजकल यह काम टेलीफोन में भी किया हुआ है। कन्या के माता-पिता बात बात पर कन्या को टेलीफोन करते रहते हैं तथा कन्या को ससुराल वालों को समझने में कठिनाई होती है।
गणना में भेद
भारत के उत्तर भाग में 1. वर्ण 2. वश्य 3. तारा 4. योनि 5. ग्रहमैत्री 6. गण 7. भकूट 8. नाड़ी । ये आठ गुण मिलते हैं। इन आठ गुणों की संख्या 36 होती
है।
दक्षिण भारत में 1. दिन 2. गण 3. माहेन्द्र 4. स्त्री दीर्घ, 5. योनि 6. भकूट 7. राश्याधिपति 8. वश्य 9 राज्जू 10. वेध से मेलापक देखा जाता है। इसके 55 गुण होते हैं। कहीं 1. वर्ण 2. वश्य 3. तारा 4. नृ दूर 5. योनि 6. ग्रह मैत्री 7. गण मैत्री 8. भकूट 9. नाड़ी। नव विधि मेलापक देखा जाता है। जिसके 45 गुण होते हैं। कहीं ब्राह्मण के लिए दश भेद, क्षत्रिय के लिए आठ भेद, वैश्य के लिए छ: भेद और शूद्र के लिए चार भेद का मेलापक होता है। शूद्र के लिए केवल योनि, ग्रह मैत्री, गण मैत्री और भकूट ये चार भेद ही आवश्यक समझे जाते हैं।
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किसी का मत है कि ब्राह्मण के लिए नाड़ी और ग्रह मैत्री, क्षत्रिय के लिए वर्ण तथा गण, वैश्य के लिए तार तथा भकूट एवं शूद्र के लिए नृ दूर वर्ण का हो, विचार करना आवश्यक है।
अष्टविध मेलापक विचार
ज्योतिष सूचना शास्त्र है। किसी भी कार्य से पूर्व ज्योतिषीय सलाह लेना आर्ष परम्परा है। विवाह से पूर्व भी दाम्पत्य जीवन के बारे में जानकारी लेने की परिपाटी चली आ रही है। इसे 'मेलापक' या कुण्डली मिलान' कहा जाता है। मेलापक मात्र परम्परा का निर्वाह करने के लिए नहीं किया जाता अपितु भावी सहचर-सहचारी के स्वभाव, आचार-विचार, गुण-दोष, और उनके भावी जीवन के बारे में सूचिक करने के लिए किया जाता है। विश्व की प्रत्येक जाति एवं धर्म में विवाह करने की प्रथा है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार विवाह के रीति-रिवाजों में भिन्नता होना स्वाभाविक है। पश्चिम में विवाह के पूर्व डेटिंग (मिलन) अनिवार्य शर्त है। इसके पश्चात् ही प्रणय सूत्र में बंधने की स्थिति आती है। वही की कन्यायें विवाहयोग्य होने पर स्वयं ही पति का वरण कर लेती हैं। विवाह उनके लिए एक सामाजिक समझाौता है। जब तक मन लगा, तब तक साथ-साथ रहे, जब ऊब गये तो सम्बन्ध विच्छेद कर लिया अर्थात् तलाक ले लिया, परन्तु भारत में विवाह एक पवित्र संस्कार और जीवन भर का सम्बन्ध माना जाता हैं यहां नारी मात्र भोग्या नहीं, गृहलक्ष्मी और घर-परिवार की प्रतिष्ठा मानी जाती है। भारत में भी पश्चिम की नकल करने वाले कुछ लोग प्रेम-विवाह करते ही हैं। भारत के पास वह ज्ञान है जिसके द्वारा भावी जीवन साथी की सम्पूर्ण जानकारी-कर्म, गुण, स्वाभाव आदि- के साथ-साथ उसके संयोग से उत्पन्न होने वाली स्थितियों तथा प्रभावों का भी सही मूल्यांकन किया जा सकता है। ज्योतिष की यह मान्यता है कि भावी पति-पत्नी के ग्रहों में एक सीमा तक समानता होने पर ही विवाह सफल सिद्ध होता तथा यही समता विवाह के वास्तविक सुख की सूचक रहती है। अनुकूल ग्रह-योग में किया गया विवाह जहां सुख और समृद्धिदायक होता है, वहीं बिना ग्रह-योगों के मिले या परिस्थितिवश किया गया प्रणन-सम्बन्ध हानिप्रद रहता है। आगे भावी पति-पत्नी
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की मेलापक विधि पर विचार करते हैं ज्योतिष में भार्याहन्ता या भर्ताहन्ता आदि योग आते हैं। उनके साथ-साथ पति-पत्नी दोनों की कुण्डलियों में सौभाग्य का भी विचार करना आवश्यक रहता है। जैसे सप्तम भाव में शुभ ग्रह हों, सप्तमेश शुभ ग्रह हो, शुभ ग्रह से युत या दृष्ट हो तो सौभाग्य को बढ़ाता है । अष्टम में पाप ग्रह का होना, अष्टमेश का पाप ग्रह होना या पाप ग्रह से युत या दृष्ट होना सौभाग्य का नाश करता है । मेलापक करते समय आगे लिखे गये नियमों का पालन कर लेना श्रेयस्कर रहता है ।
वर के सप्तमेश की राशि कन्या की जन्म राशि हो, वर के सप्तमेश की उच्च राशि कन्या की नाम राशि हो, वर के शुक्र की राशि कन्या की राशि हो, वर के लग्न की जो सप्तमांश राशि हो वही कन्या की जन्म राशि हो, वर के लग्नेश की राशि (जिस स्थान में वर का लग्नेश स्थित है) कन्या की नाम राशि हो तो दाम्पत्य जीवन सुखमय रहता है वर और कन्या की राशियों तथा लग्नेशों के तत्त्वों की मित्रता - शत्रुता का भी विचार कर लेना चाहिए ।
प्रेम मन से किया जात है, देह से नहीं, यह सर्वविदित है । ज्योतिष में देह लग्न है तो मन चन्द्रमा है। इसलिए इस प्रेम-सम्बन्ध अर्थात् विवाह के बारे में विचार करने के लिए शास्त्रकारों ने चन्द्र राशि को प्रधानता दी है । मेलापक में भावी पति-पत्नी के वर्ण, वश्य, तारा, योनि, गृह, मैत्री, गण मैत्री, भकूट और नाड़ी का विचार किया जाता है। इनके 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, क्रमशः गुण माने जाते हैं। कुल 36 गुण होते हैं कम से कम दोनों के 18 गुण मिल जाएं तो विवाह किया जाता सकता है, लेकिन नाड़ी और भकूट के गुण अवश्य ही सम्मलित रहने चाहिए। इन दोनों के गुणों के बिना यदि 18 गुण मिले तो विवाह सुख-सौभाग्यदायक नहीं माना जाता ।
वर्ण ज्ञान
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राशि परिचय में वर्ण दे दिए गए हैं, यहां पुनः लिखे जाते हैं कर्क, वृश्चिक व मीन ब्राह्मण वर्णी, मेष, सिंह व धनु क्षत्रियवर्णी वृष, कन्या और मकर वैश्यवर्णी तथा मिथुन तुला और कुम्भ शूद्रवर्णी राशियां हैं।
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वर्ण गुण-बोधक चक्र
शूद्र
वर का वर्ण ब्राहमण क्षत्रिय ब्राह्मण
0
वैश्य 0
कन्या की वर्ण
पर क्षत्रिय
वैश्य
ॐ शूद्र जिनकी कुण्डली का मिलान करना अभीष्ट हो, उनकी राशि ज्ञात करके वर्ण का ज्ञान कर लेना चाहिए। फिर इसे वर्ण गुण-बोधक चक्र में देख कर गुण लिख लेने चाहियें। मान लो कि चन्द्रकला और जगदीशचन्द्र का वर्ण गुण ज्ञात करना है। चन्द्रकला की मीन राशि और ब्राह्मण वण हैं, जगदीशचन्द्र की मकर राशि और वैश्य वर्ण है। कन्या के वर्ण के सामने तथा वर के वर्ण के नीचे गुण बोधक-चक्र में देखा तो गुण 0 मिला।
वश्य ज्ञान मेष, वृष, सिंह व धनु का उत्तरार्ध और मकर राशि के पूर्वार्ध की वश्य संज्ञा 'चतुष्पद' कर्क राशि की वश्य संज्ञा 'कीट' , वृश्चिक की 'सर्प', मिथुन, कन्या, तुला तथा धनु के पूर्वार्ध की वश्य संज्ञा 'द्विपद' और कुम्भ, मीन तथा मकर राशि के उत्तरार्द्ध की वश्य संज्ञा 'जलचर' है।
वश्य गुण-बोधक चक्र
वर का वश्य चतुष्पद
2
कीट
कन्या की नाड़ी
चतुष्पद कीट सर्प द्विपद जलचर । 1 1 1/2 2
1 2 101 ___ 1 1 2 01 000 2 1
सर्प
द्विपद
जलचर
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उदाहरण में लिए नाम चन्द्रकला और जगदीशचन्द्र का वश्य ज्ञात किया तो चन्द्रकला का वश्य 'जलचर' तथा जगदीशचन्द्र का वश्य 'चतुष्पद' ज्ञात हुआ गुण के लिए चक्र में देखा तो 1 गुण मिला।
तारा ज्ञान तारा गुण जानने के लिए कन्या के जन्म नक्षत्र से वर के जन्म नक्षत्र तक गिनने से जो संख्या आये तथा वर के जन्म नक्षत्र से कन्या के जन्म नक्षत्र तक गिनने से जो संख्या आये उन दोनों को अलग-अलग 9 पर भाग देना चाहिए, जो अंक शेष बचे उसी की तारा जाननी चाहिए।
तारा गुण-बोधक चक्र
कन्या की तारा
वर की तारा 1 2 3 4 5 6 7 8 9
3 3 1% 3 1 3 1 3 3 3 3 1 3 1 3 13 3 3 12 120 1 0 1 0 1 1y 3 3 1 3 1 3 1 3 3 12 1720 10 10 11 12 3 3 1 3 1 3 1 3 3 1% 1 0 1 0 1 0 19 1% 3 3 1 3 1 3 1 3 3 3 3 1 3 1 3 1 3 3
पूर्व में जो दो नाम लिए थे चन्द्रकला और जगदीशचन्द्र उनमें चन्द्रकला का नक्षत्र रेवती और जगदीशचन्द्र का उत्तराषाढ़ा था। नियमानुसार कन्या के नक्षत्र रेवती से वर के नक्षत्र उत्तराषाढ़ा तक गिना तो संख्या 22 मिली। इसे 9 से भाग दिया तो 4 बाकी बचे जो कन्या तारा हुई। उत्तराषाढ़ा से रेवती तक गिना तो संख्या 7 मिली। यह 9 पर विभक्त नहीं हो सकती, अतः वर की 7 तारा हुई। चक्र में गुण मिलान किया तो सात के नीचे 1/2 गुण मिला।
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योनि ज्ञान
सम्पूर्ण नक्षत्रों को चौदह योनियों में बांटा गया है। जहां प्राणी दूसर प्राणी का मित्र है, वहीं उसका बैरी भी होता है। यह एक सर्वादिवित तथ्य है। योनि मिलान करने से यह ज्ञात हो जाता है कि वर वधु की स्थिति भी उन दोनों की योनियों जैसी ही रहेगी। लोक में परस्पर वैर रखने वाली योनियां हैं गौ
और व्याघ्र, महषि और अश्व, मृग और श्वान, सिंह और गज, मेष और वानर, मार्जर और मूषक तथा सर्प और नकुल ।
अश्विनी व शतभिषा नक्षत्रों की योनि अश्व स्वाति व हस्त की महिष धनिष्ठ व पूर्वाभाद्रपद की सिंह, भरणी व रेवती की गज कृत्तिका व पुष्य की मेष, श्रवण व पूर्वाषाढ़ा की वानर अभिजित व उत्तराषाढ़ा की नकुल मृगशिरा व रोहिणी की सर्प ज्येष्ठ व अनुराधा की सर्प, मूल व आर्द्रा की श्वान पुनर्वसु व आश्लेषा की मार्जार मघा व पूर्वफाल्गुनी की मूषक विशाखा व चित्रा की व्याघ्र तथा उत्तरभाद्रपद व उत्तरफाल्गुनी की गौ योनि होती है। पूर्वोक्त नाम चंद्रकला का नक्षत्र रेवती और योनि गज है। जगदीशचन्द्र का नक्षत्र उत्तराषाढ़ा और योनि नकुल है। गुणबोधक चक्र में देखा तो गुण मिले दो(2)
योनि गुण-बोधक चक्र
__ वर की योनि कन्याकी अश्व गज मेष सर्प श्वान मार्जार मूषक गौ महिष व्याघ्र मृग वानर नकुल सिंह अश्व 4 2 3 2 2 3 3 30 1 3 2 2 1 गज 2 4 3 2 2 3 3 3 3 1 3 2 2 0 मेष 3 3 4 2 2 3 3 3 0 1 30 2 1 सर्प 2 2 2 4 2 1 1 2 2 2 2 1 0 2 श्वान 2 2 2 2 4 1 2 2 2 2 0 2 2 2 मार्जर 3 3 3 1 1 4 0 3 3 2 3 2 2 2 मूषक 3 3 3 1 2 0 4 3 3 2 3 2 1 1 गौ. 3 3 3 2 2 3 3 4 3 0 3 2 2 1 महिष 0 3 3 2 2 3 3 3 4 1 1 2 2 1 व्याघ्र 1 1 1 2 2 2 2 1 1 4 1 2 2 1 मृग 3 3 3 2 0 3 2 3 3 1 4 2 2 3 वानर 2 2 0 1 2 2 2 2 2 2 2 4 2 2 नकुल 2 2 2 0 2 2 1 2 2 2 2 2 4 2 |सिंह 1 0 1 2 2 2 2 1 1 2 1 2 2 4
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ग्रह मैत्री ज्ञान
पीछे ग्रह विचार नाम अध्याय में ग्रहों की मित्रामित्रता के बारे में लिखा जा चुका है। कृपया मैत्री ज्ञान वहीं से करें।
ग्रह मैत्री गुण-बोधक चक्र
वर का
वरका राशि स्वामी सूर्य चंद्र मंगल बुध गुरु शुक्र शनि
सूर्य
चन्द्र मंगल
5 5 5 4500 5 5 4 142 54 5 Y25 32
4 125254 ___5 4 5 5 2 3
0 3555 0224455
शुक्र शनि
पूर्वोक्त उदाहरण में कन्या चन्द्रकला की राशि मीन व स्वामी गुरु है तथा वर की राशि मकर का स्वामी शनि है। ऊपर दिये गये चक्र में देखा तो 3 गुण मिले।
गुण ज्ञान
तीन प्रकार के गण माने गए हैं। सभी नक्षत्रों को इन तीन गणों-देव, मनुष्य और राक्षस में बांट लिया गया है। देवता गण संज्ञक वाले नक्षत्र हैं- अनुराधा, पुनर्वसु, मृगशिरा, श्रवण, रेवती, स्वाति, हस्त, अश्विनी और पुष्य। मनुष्य गण संज्ञक नक्षत्र है- उत्तराफाल्गुनी, पूर्वफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरभाद्रपद, पूर्वभाद्रपद, भरणी, रोहिणी और आर्द्रा। राक्षस गण संज्ञक नक्षत्र हैं- आश्लेषा, मघा, धनिष्ठा, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, कृत्तिका, चित्रा और विशाखा।
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गण गुण-बोधक चक्र
वर का गण देवता
मनुष्य
राक्षस
देवता
कन्या की नाड़ी
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मनुष्य राक्षस
उदाहरण में लिए गये कन्या चन्द्रकला का नक्षत्र रेवती और गण देवता है। जबकि वर जगदीशचन्द्र का नक्षत्र उत्तराषाढ़ा और गण मनुष्य है। चक्र में गुण-मिलान किया तो 5 गुण मिले। भकूट-ज्ञान भकूट का ज्ञान राशि गणना से किया जाता है। जन्म राशि ही विवाह कार्य में प्रशस्त मानी गई है, नाम राशि नहीं। जन्म राशि ज्ञात न होने से नाम राशि से मेलापक का विचार करना गलत है। आजकल प्रायः नाम राशि से मेलापक किया जाता है, लेकिन यह सही नहीं है। कन्या की राशि से वर की राशि तक गणना करनी चाहिए। और वर की राशि से कन्या की राशि तक गिनना चाहिए। यदि वर-कन्या दोनों की राशि गणना से छठी, आठवीं, दूसरी, बारहवीं, नवीं व पांचवीं राशि आये तो वैवाहिक सम्बन्ध नहीं करना चाहिए। भकूट गुण बोधक चक्र उदाहरण में कन्या चन्द्रकला की राशि मीन तथा वर जगदीशचन्द्र की राशि मकर को भकूट गुण-बोधक चक्र में देखा तो 7 गुण मिले।
नाड़ी ज्ञान नक्षत्रों को तीन नाड़ियों (आदि, मध्य और अन्त्य) में विभक्त कर लिया गया है। अश्विनी, आर्द्रा, पुनर्वसु, उत्तरफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, शतभिषा तथा पूर्वभाद्रपद नक्षत्रों की आदि नाड़ी है। भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद व धनिष्ठा नक्षत्रों की नाड़ी मध्य है। कृत्तिका, राहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण व रेवती नक्षत्रों की नाड़ी अन्त्य है।
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नाड़ी गुण-बोधक चक्र
नाड़ी
वर की नाड़ी आदि
मध्य
अन्त्य
आदि
कन्या की नाड़ी
मध्य
8
अन्त्य
80
कन्या
वर की राशि
सिंह
की राशि मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चिक धनु मकर कुम्भ मीन मेष 7 0 7 7 0 0 7 0 0 7 7 0 वृष 0 7 0 7 7 0 0 7 0 0 7 7
7 0 7 0 7 7 0 0 7 0 0 7 7 7 0 7 0 7 7 0 0 7 0 0
| 0 0 7 0 7 0 7 7 0 0 7 0 कन्या 0 0 7 7 0 7 0 7 7 0 0 7 तुला 7 0 0 7 7 0 7 0 7 7 0 0
0 7 0 0 7 7 0 7 0 7 7
0 0 7 0 0 7 7 7 7 0 7 7 मकर 7 0 0 7 0 0 7 7 0 7 0 7 कुम्भ | 7 7 0 0 7 0 0 7 0 0 7 0 मीन 0 7 7 0 0 7 0 0 7 7 0 0
धनु
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________________ वर-कन्या के नक्षत्र क्रमशः आदि और अन्त्य नाड़ी के हों तो विवाह शुभ नहीं माना जाता। दोनों के नक्षत्र मध्य नाड़ी के हों तो मृत्युकारक होते हैं। उदाहरण में कन्या चन्द्रकला के नक्षत्र रेवती की नाड़ी अन्त्य है तथा वर जगदीशचन्द्र के नक्षत्र उत्तराषाढ़ा की नाड़ी अन्त्य है। इसी प्रकार गुण मिलान करने पर 0 गुण मिले। कुल गुण गुण वर वर्ण वैश्य कन्या वर्ण ब्राह्मण वश्य जलचर वश्य जलचर 172 तारा-4 तारा=7 योनि-नकुल योनि-गज राशीश-शनि राशीश गुरु गण मनुष्य गण-देव भकूट= मकर राशि 7 भकूट-मीन राशि नाड़ी-अन्त्य नाड़ी अन्त्य योग 192 गुणों के दृष्टिकोण से तो यह विवाह हो सकता है, लेकिन नाड़ी के गुण 0 होने से यह विवाह शुभ नहीं माना जा सकता। 154