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ग्रहों की अवस्था शास्त्रकारों ने ग्रहों की दस अवस्थाएं मानी हैं, परन्तु किसी-किसी आचार्य ने नौ अवस्थाएं भी मानी हैं। मूल त्रिकोण राशि में अपनी उच्च राशि में ग्रह प्रदीप्तावस्था में होता है। अपने ग्रह में (स्वगृही) हो तो स्वस्थ, मित्र के गृह में हो तो मुदित, शुभ ग्रह के वर्ग में हो तो शान्त, दीप्त किरणों से युक्त हो तो शक्त, ग्रहों से युद्ध में पराजित हो तो पीड़ित, शत्रुक्षेत्रीय (शत्रु राशि में) हो तो दीन, पाप ग्रह के वर्ण में हो तो खल, अपनी नीच राशि में हो तो भीत और अस्त ग्रह को विकल कहा जाता है। अपने मित्र ग्रहों की राशि में स्थित ग्रहों की संज्ञा 'बाल' होती है। मूलत्रिकोण में स्थित ग्रह की संज्ञा'कुमार' है। ग्रह के अपनी उच्च राशि में स्थित होने से उसकी 'युवराज' संज्ञा होती है और शत्रु की राशि में स्थित होने से ग्रहों की संज्ञा 'वृद्ध' मानी गई है। ग्रह अपनी अवस्था के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। 'बालक' संज्ञा वाला ग्रह सुख देता है। 'कुमार' हो तो अच्छा आचरण प्रदान करता है। यौवनावस्था में राज्याधिकार दिलाता है और वृद्धावस्था में हो तो ऋण या रोग आदि देता
है।
ग्रहों के सम्बन्ध
ग्रहों के चार प्रकार के सम्बन्ध माने हैं। किसी-किसी आचार्य ने पांच प्रकार के सम्बन्ध भी कहे हैं। 1. दो ग्रहों में परस्पर राशि परिवर्तन का योग हो, अर्थात् 'क' ग्रह 'ख' ग्रह की राशि में बैठा हो और 'ख' ग्रह 'क' ग्रह की राशि में बैठा हो तो यह अति उत्तम सम्बन्ध होता है।
2. जब दो ग्रह परस्पर एक-दूसरे को देख रहे हों अर्थात् 'क' ग्रह 'ख' ग्रह हो देख रहा हो और 'ख' ग्रह 'क' ग्रह को देख रहा हो तो यह मध्यम सम्बन्ध माना जाता है। 3. दोनों ग्रहों में से एक ग्रह दूसरे की राशि में बैठा हो और दोनों में से एक-दूसरे ग्रह को देखता हो तो यह तीसरा सम्बन्ध माना जाता है।