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4. दोनों ग्रह एक ही राशि में संयुक्त होकर बैठे हों तो यह चौथे प्रकार का सम्बन्ध होता है और अधम कहा गया है। 5. जब दो ग्रह एक-दूसरे से त्रिकोण (पांचवें-नवें) स्थान पर स्थित हों तो यह मतान्तर से पांचवां सम्बन्ध होता है। ग्रहों की दृष्टि सभी ग्रह अपने स्थान से सातवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं लेकिन मंगल अपने स्थान से चौथे और आठवें स्थान को, गुरु अपने स्थान से पांचवें और नवें स्थान को व शनि अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है। कुछ प्राचीन आचार्यों ने राहु केतु की दृष्टि को भी मान्यता दी है, लेकिन महर्षि पराशर ने इनकी कोई दृष्टि नहीं मानी है। अन्य आचार्यों के मत से राहु अपने स्थान से सातवें, पांचवें और नवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है। ऐसे ही केतु की भी दृष्टि होती है। प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को एक पाद दृष्टि से, पांचवें और नवें को दो पाद दृष्टि से तथा चौथे और आठवें स्थान को तीन पाद दृष्टि से देखता है। सूर्य और मंगल की ऊर्ध्व दृष्टि है, बुध और शुक्र की तिरछी, चन्द्रमा और गुरु की बराबर (सम) तथा राहु और शनि की नीची दृष्टि है। भावों के स्थिर कारक ग्रह सूर्य लग्न, धर्म और कर्म भाव का, चंद्रमा सुख भाव का, मंगल सहज और शत्रु भाव का, बुध सुख और कर्म भाव का, गुरु धन, पुत्र, धर्म, कर्म और आय भाव का, शुक्र स्त्री भाव का, शनि शत्रु, मृत्यु, कर्म और व्यय भाव का कारक ग्रह है।
आत्मादि चर कारक सूर्यादि नौ ग्रहों में जो ग्रह स्पष्ट तुल्य अंशों में अधिक हो, अर्थात् अधिक अंश वाला हो, वह आत्मकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह अमात्यकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह भ्रातृकारक, उससे कम अंशों वाला मातृकारक, उससे कम