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आधान लग्न सिद्धान्त के अनुसार यह पाया गया है कि चन्द्रमा जन्म लग्न में उसी भाव में गोचर करता है जिस भाव में व गर्भाधान के समय होता है। यहां महत्व चन्द्र का है।
दशा व अन्तर दशा के समय पर दशा नाथ जिस राशि में बैठा होता है उसको लग्न मान कर दशा के शुभ व अशुभ का विचार होता है। अर्थात् लग्न बारह हो जाते हैं। इसलिये भी चन्द्र लग्न का महत्व बढ़ जाता है।
गोचर अष्टक वर्ग पद्धति का एक अंग है। अष्टक वर्ग लग्न व सात ग्रहों को मिला कर बनता है। अष्टक वर्ग में देखा जाता है कि ग्रह कहां-कहां शुभ व अशुभ फल दे सकते हैं। यहां पर शुभ व अशुभ फल ग्रहों की परस्पर स्थिति, मैत्री व नैसर्गिक शुभता व अशुभता का ध्यान रखा जाता है। दो ग्रहों का परस्पर शुभत्व व अशुभत्व देगा न कि लग्नों का। लग्न तो बारह हो जाते है। चन्द्रमा एक ग्रह है। इस प्रकार चन्द्रमा से कौन ग्रह शुभ है कौन ग्रह अशुभ देखा जाता है। इसलिए महर्षियों ने गोचर फल निर्णय के लिये चन्द्र को चुना जो ग्रह होने के साथ-साथ एक लग्न भी है और लग्न पर भी नियन्त्रण रखता है।
दशा का क्रम भी चद्रमा के नक्षत्र के स्वामी से आरम्भ होता है अर्थात् जीवन का आरम्भ भी चद्रमा से ही होता है। चन्द्रमा ही जातक के शैशव काल का कारक है। इसलिये बालारिष्ट में चन्द्रमा की कुण्डली में स्थिति महत्व पूर्ण है। चन्द्रमा से ही गणन्त आदि देखा जाता है। चन्द्रमा से ही तिथि का महत्व है। तिथि चन्द्रमा से बनती है। दिन का नक्षत्र भी चन्द्रमा से ही देखा जाता है। जिस नक्षत्र में चन्द्रमा होता है वही नक्षत्र दिन का भी होता है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि वैदिक ज्योतिष में चन्द्रमा का बहुत महत्व है। तिथि, नक्षत्र मुहूर्त, दशा आदि सब कार्य कलाप चन्द्रमा से ही देखे जाते हैं। इसलिये गोचर में भी चन्द्रमा का महत्व बढ़ जाता है। इसलिए महर्षियों ने गोचर को भी चन्द्रमा से देखने का आदेश दिया।
क्या केवल गोचर से ही फलित कहा जा सकता है?
गोचर फलित का एक प्रभावशाली अंग है। और फलित में एक महत्वपूर्ण स्थान
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