Book Title: Pravachansara Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन णाणुज्जीवी जोदी जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी - - णाणु जीवो जीवी जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान) दूरभाष - 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 दूरभाष - 0141-2385247 प्रथम संस्करण : अप्रैल, 2014 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य -450 रुपये ISBN 978-81-926468-2-4 पृष्ठ संयोजन फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष - 0141-2562288 मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. विषय 1. 2. 3. 4. 5. प्रकाशकीय ग्रंथ एवं ग्रंथकारः सम्पादक की कलम से संकेत सूची चारित्र-अधिकार मूल पाठ परिशिष्ट-1 अनुक्रमणिका (i) संज्ञा - कोश (ii) क्रिया-कोश त-कोश (iii) कृदन्त(iv) विशेषण-कोश (v) सर्वनाम - कोश (vi) अव्यय - कोश परिशिष्ट-2 छंद परिशिष्ट-3 सहायक पुस्तकें एवं कोश पृष्ठ संख्या V 1 6 11 86 96 109 112 117 124 125 131 134 Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आचार्य कुन्दकुन्द-रचित 'प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार' हिन्दी-अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी ई. माना जाता है। वे दक्षिण के कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे और उनका नाम कोण्डकुन्द था जो वर्तमान में कुन्दकुन्द के नाम से जाना जाता है। जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य श्री का नाम आज भी मंगलमय माना जाता है। इनकी समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, दशभक्ति, बारस अणुवेक्खा कृतियाँ प्राप्त होती है। __आचार्य कुन्दकुन्द-रचित उपर्युक्त कृतियों में से प्रवचनसार' जैनधर्मदर्शन को प्रस्तुत करनेवाली शौरसेनी भाषा में रचित एक रचना है। इसमें कुल 275 गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ में तीन अधिकार हैं। 1. ज्ञान-अधिकार 2. ज्ञेय-अधिकार 3. चारित्र-अधिकार। पहले ज्ञान-अधिकार में 92 गाथाएँ हैं। इसमें आत्मा और केवलज्ञान, इन्द्रिय और अतीन्द्रिय सुख, शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग तथा मोहक्षय आदि का प्ररूपण है। दूसरे ज्ञेय-अधिकार में 108 गाथाएँ हैं। इसमें द्रव्य और पर्याय की अवधारणा, द्रव्यों का स्वरूप, पुद्गल के कार्य, संसारी जीव और साधना के आयाम, शुद्वोपयोग की साधना आदि का निरूपण है। तीसरे चारित्रअधिकार में 75 गाथाएँ हैं। इसमें श्रमण दीक्षा, श्रमणता का केन्द्रीय आधार परिग्रहत्याग, श्रमण के लिए प्रेरक दिशाएँ, आगम-अध्ययन एवं पदार्थों का श्रद्धान, शुभोपयोगी व शुद्धोपयोगी श्रमण आदि का निरूपण है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रवचनसार' का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सहज, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इसमें गाथाओं के शब्दों का अर्थ व अन्वय दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा-कोश, क्रिया-कोश, कृदन्त-कोश, विशेषण-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिया गया है। पाठक 'प्रवचनसार' के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत भाषा व जैनधर्म-दर्शन का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है। प्रस्तुत पुस्तक के तीन अधिकारों में से ज्ञान-अधिकार (खण्ड-1), ज्ञेयअधिकार (खण्ड-2) प्रकाशित किये जा चुके हैं। अब चारित्र-अधिकार (खण्ड3) प्रकाशित किया जा रहा है। जैन दार्शनिक साहित्य को आसानी से समझने और प्राकृत-अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में प्रवचनसार का विषय सहायक होगा। श्रीमती शकुन्तला जैन, एम.फिल. ने बड़े परिश्रम से प्राकृत-अपभ्रंश भाषा सीखने-समझने के इच्छुक अध्ययनार्थियों के लिए 'प्रवचनसार (खण्ड-3)' का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं। पुस्तक-प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्रअधिकार'का हिन्दी-अनुवाद करके जैन दर्शन व शौरसेनी प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादार्ह है। न्यायाधिपति नरेन्द्र मोहन कासलीवाल महेन्द्र कुमार पाटनी डॉ. कमलचन्द सोगाणी अध्यक्ष मंत्री संयोजक प्रबन्धकारिणी कमेटी जैनविद्या संस्थान समिति दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी जयपुर वीर निर्वाण संवत्-2541 23.10.2014 (vi) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार संपादक की कलम से डॉ. कमलचन्द सोगाणी श्रमणता का केन्द्रीय आधार परिग्रह-त्यागः ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के चारित्र-अधिकार में श्रमण-चर्या के विविध आयामों का विशद वर्णन करके मोक्ष-मार्ग का प्रतिपादन किया है। उनकी दृढ़ दृष्टि है कि श्रमणता का केन्द्रीय आधार परिग्रह का त्याग है। वे कहते हैंः परिग्रह से ममत्व भाव तथा श्रमण चर्या में असंयम असंदिग्ध होता है। चित्त की विशुद्धता नहीं रहती है (21,22)। आचार्य परिग्रह त्याग के महत्त्व को दर्शाते हुए कहते हैं: चूँकि परिग्रह की उपस्थिति में कर्मबन्ध किसी भी प्रकार टाला नहीं जा सकता इसलिए श्रमणों के लिए अंतरंग और बाह्य परिग्रह त्याग उपदिष्ट है (19)। आचार्य कुन्दकुन्द ने परिग्रह-त्याग की धारणा को एक गहरा आयाम देते हुए कहा है कि जो श्रमण परिग्रहरूप में मात्र देह रक्खे हुए है वह देह से भी क्रियाओं को ममत्वरहित होकर करता है। वही श्रमण स्वयं की शक्ति को न छिपाकर उस शक्ति को तप में लगाता है (28)। आचार्य के अनुसार श्रमण का जैसा जन्म हुआ है वैसा ही शरीररूपी भेष मोक्ष का साधन कहा गया है (25)। देह में आसक्ति से बचने के लिए देह के परिष्कार को अस्वीकार किया गया है (24)। जिस श्रमण में परमाणु परिमाण भी देहादि पर आसक्ति विद्यमान है तो वह सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता है। देहरूपी परिग्रह को मोक्ष के साधन के रूप में बनाये रखने के लिए आहार दिन में विधिपूर्वक एक बार स्वीकृत है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-अध्ययन एवं पदार्थों का श्रद्धानः ___आचार्य कुन्दकुन्द के कथनानुसार आगम अध्ययन के बिना श्रमण स्व और पर की समझ प्राप्त नहीं कर सकता है। एकाग्रचित्तता भी आगम के स्वाध्याय से उत्पन्न होती है। जीव-अजीव पदार्थों का ज्ञान आगम से ही होता है। आगमअध्ययन से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसी से संयमाचरण भी होता है। आगमअध्ययन के साथ पदार्थों में श्रद्धा और श्रद्धा के साथ संयम का आचरण मोक्ष के लिये आवश्यक है। शुभोपयोगी व शुद्धोपयोगी श्रमणः आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमणों का विभाजन दो प्रकार से किया है। वे कहते हैं: आगम में श्रमण दो प्रकार के कहे गये हैं- शुद्ध में संलग्न अर्थात् शुद्धोपयोगी और शुभ में संलग्न अर्थात् शुभोपयोगी। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान का जन-शिक्षण, शिष्यों का ग्रहण, उनका विकास तथा जिनेन्द्र देव की पूजा/ भक्ति का सर्वोपयोगी उपदेश- ये सब शुभोपयोगी श्रमणों की चर्या है (48)। शुभोपयोगी श्रमण जिन मार्गानुयायी गृहस्थ और श्रमणों के लिये अपेक्षा-रहित अनुकंपापूर्वक उपकार करते हैं (51)। शुभोपयोगी श्रमण रोग से अथवा भूख से अथवा प्यास से अथवा कष्ट से लदे हुए पीड़ित श्रमण को देखकर अपनी शक्तिपूर्वक सहायता करने के लिए उसको अंगीकार करता है (52)। रोगी, पूज्य, बाल (आयु में छोटे), वृद्ध (आयु में बड़े) श्रमणों की वैयावृत्ति के लिये सांसारिक व्यक्तियों से शुभ और उचित भी वार्तालाप श्रमणों के लिए अस्वीकृत नहीं है (53)। अशुभोपयोग से मुक्त श्रमण जो शुद्ध में संलग्न अथवा शुभ में संलग्न हैं वे मनुष्य-समूह को संसार रूपी सागर से पार उतारते हैं। उन श्रमणों में जो अनुरक्त होता है, वह सर्वोत्तम अवस्था को प्राप्त करता है (60)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनके द्वारा पदार्थ सम्यक् प्रकार से जान लिये गये हैं, जिन्होंने बहिरंग तथा अंतरंग परिग्रह को छोड़ दिया है जो इन्द्रिय विषयों में आसक्त नहीं है वे शुद्धोपयोगी कहे गये हैं (73)। जो अशुद्ध आचार से रहित हैं, जिसके द्वारा वास्तविक पदार्थ का निश्चय कर लिया गया है तथा जिसकी आत्मा शान्त (व्याकुलता-रहित) है तथा जिसके द्वारा श्रमणता/श्रमण-साधना पूरी कर ली गई है वह इस निरर्थक संसार में दीर्घ काल तक नहीं ठहरता है (72)। शुद्धोपयोग की साधना में संलग्न श्रमणों में विद्यमान कष्टों का निराकरण, स्तुति और नमन सहित उनके आगमन पर सम्मान के लिए खड़े होना, उनके जाने पर उनके पीछे-पीछे चलना- ये सब प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगी श्रमण के लिए अस्वीकृत नहीं है (47)। यदि श्रमण अवस्था में अरहंतादि में भक्ति होती है और आगम-ज्ञान में संलग्न श्रमणों के प्रति वात्सल्य भाव होता है तो श्रमण की वह चर्या शुभ-युक्त/शुभोपयोगी होती है।(46)। श्रमण दीक्षा : आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो व्यक्ति आवागमनात्मक संसार से मुक्ति चाहता है तो उसे श्रमण दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये। सर्वप्रथम वह मातापिता, पत्नी और पुत्रों से तथा भाई-बन्धों से अनुमति प्राप्त करले (1,2)। तत्पश्चात आचार्य से दीक्षा धारण करने की प्रक्रिया को अंगीकार करे। श्रमण दीक्षा के 28 घटक निम्नप्रकार हैं जो मूलगुण कहलाते हैं (8,9)। पाँच महाव्रत-(1) अहिंसा (2) सत्य (3) अचौर्य (4) ब्रह्मचर्य (5) अपरिग्रह पाँच समिति- (6) ईर्या (7) भाषा (8) एषणा (9)आदान-निक्षेपण (10) प्रतिष्ठापन पाँच इन्द्रियों का निरोध- (11) स्पर्शन (12) रसना (13) घ्राण (14)चक्षु (15) कर्ण प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ आवश्यक- (16) सामायिक (17) वंदना (18) स्तुति (19) प्रतिक्रमण (20) स्वाध्याय (21) कायोत्सर्ग अन्य मूलगुण- (22) केशलोंच (23) दिगम्बर अवस्था (24) अस्नान (25) भूमि पर सोना (26) दाँतौन नहीं करना (27) खड़े होकर भोजन करना (28) एक बार भोजन करना। श्रमणों के लिए प्रेरक दिशाएँ: जो श्रमण है वह भोजन में अथवा उपवास में अथवा आवास में अथवा विहार में अथवा शरीररूप परिग्रह में अथवा अन्य श्रमण में तथा विकथा में ममतारूप संबंध को स्वीकार नहीं करता है (15)। श्रमण की जागरूकता-रहित चर्या यदि सोने, बैठने, खड़े होने, परिभ्रमण आदि क्रियाओं में सबकाल में होती है तो वह निश्चय ही निरन्तर हिंसा मानी गई है (16)। श्रमण थोड़े परिग्रह को ग्रहण करे जो संयम के लिए आवश्यक है और आगमों द्वारा अस्वीकृत नहीं है, संयम-रहित मनुष्यों द्वारा अप्रार्थनीय है तथा ममत्व आदि भावों की उत्पत्ति-रहित है (23)। यदि श्रमण आहार-चर्या में अथवा विहार में क्षेत्र, काल, श्रम, सहनशक्ति तथा परिग्रहरूप शरीरावस्था- उन सबको जानकर आचरण करता है तो वह थोड़े से कर्म से ही बँधनेवाला होता है (31)। जो श्रमण पाँच प्रकार से सावधान है अर्थात् सावधानीपूर्वक पाँच (ईया, भाषा, एषणा आदि) समितियों का पालन करनेवाला है, तीन प्रकार से संयत है अर्थात् मन, वचन और काय के संयम के कारण तीन गुप्ति सहित है, जिसके द्वारा पाँचों (स्पर्शन, रसना आदि) इन्द्रियाँ नियंत्रित की गई हैं, कषायें जीत ली गयी हैं तथा जो दर्शन (शुद्धात्म-श्रद्धा) और ज्ञान (स्व-दृष्टि) से पूर्ण है, वह श्रमण संयमी कहा गया है (40)। (4) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसके द्वारा सिद्धान्त का सार/मर्म समझ लिया गया है तथा कषाय नियंत्रित की गई है और जो तप में विशिष्ट है तो भी यदि वह लौकिक मनुष्यों से मेल-जोल नहीं छोड़ता है तो वह संयमी नहीं होता है/नहीं हो सकता है (68)। दीक्षा ग्रहण किया हुआ श्रमण यदि इस लोक संबंधी/सांसारिक क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है तो वह लौकिक ही कहा गया है(69)। इसलिए यदि श्रमण दुखों से मुक्ति चाहता है तो वह सदैव अपने गुणों से एकसमान अथवा अपने गुणों से ज्यादा गुणवाला श्रमण जहाँ रहता है वहाँ पर ही रहे। (70)। जिसके लिए शत्रु और बंधुवर्ग समान है, सुख-दुख समान है, प्रशंसानिंदा समान है, मिट्टी का ढेला और सोना समान है और जो जीवन-मरण में समान है वह परिपूर्ण श्रमण ही है (41)। जो श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों में एक ही साथ उद्यमी/प्रयत्नशील है वह ही मोक्ष प्राप्त करने के लिए एकाग्रचित्त हुआ माना गया है। उसके भी परिपूर्ण श्रमणता है (42)। शुद्धोपयोगी के श्रमणता कही गई है और शुद्धोपयोगी के ज्ञान-दर्शन कहा गया है तथा शुद्धोपयोगी के मोक्ष भी कहा गया है। वह ही सिद्ध है (74)। जो श्रमण सदैव आत्मस्मरण की दिशा में तथा ज्ञान में संबद्ध है और मूलगुणों में जागरूक हुआ आचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रमणता प्राप्त किया हुआ है (14)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित कर्म - कर्मवाच्य क्रिविअ - क्रिया विशेषण अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भूक - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वकृ - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त स - सर्वनाम संकृ - संबंधक कृदन्त सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग •()- इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। •[()+()+()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। (6) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •[()-()-()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '-' चिह्न समास का द्योतक है। •{[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। 'जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द संज्ञा' है। 'जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर 'अनि' भी लिखा गया है। क्रिया-रूप निम्नप्रकार लिखा गया है 1/1 अक या सक - उत्तम पुरुष/एकवचन 1/2 अक या सक - उत्तम पुरुष/बहुवचन 2/1 अक या सक - मध्यम पुरुष/एकवचन 2/2 अक या सक - मध्यम पुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक - अन्य पुरुष/एकवचन 3/2 अक या सक - अन्य पुरुष/बहुवचन प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तियाँ निम्नप्रकार लिखी गई हैं 1/1 प्रथमा / एकवचन 1 / 2 - प्रथमा / बहुवचन द्वितीया/ एकवचन 2/1 2 / 2 - द्वितीया / बहुवचन - तृतीया / एकवचन 3 / 1 - 5 / 2 6/1 3 / 2 - तृतीया / बहुवचन 4/1 - चतुर्थी / एकवचन 4 / 2 - चतुर्थी / बहुवचन 5 / 1 - पंचमी / एकवचन - (8) - पंचमी / बहुवचन षष्ठी / एकवचन - 6/2 षष्ठी / बहुवचन 7/1 सप्तमी / एकवचन 7 / 2 - सप्तमी / बहुवचन - प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र - अधिकार Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार (पवयणसारो) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचनसार (पवयणसारो) चारित्र-अधिकार (खण्ड-3) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे। पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं।। आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं। आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियाया।। पणमिय अव्यय और (पणम) संकृ प्रणाम करके (सिद्ध) 2/2 सिद्धों को [(जिणवर)-(वसह) 2/2 वि] जिनवरों में प्रमुख सिद्धे जिणवरवसहे' पुणो पुणो समणे अव्यय बार-बार पडिवज्जदु सामण्णं जदि (समण) 2/2 , श्रमणों को (पडिवज्ज) विधि 3/1 सक अंगीकार करे (सामण्ण) 2/1 श्रमणता को अव्यय यदि (इच्छ) व 3/1 सक चाहता है [(दुक्ख)-(परिमोक्ख) 2/1] दुखों से मुक्ति (आपिच्छ) भूकृ 1/1 अनि पूछ लिया इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं आपिच्छ 1. 2. वसह- समास के अन्त में होने से यहाँ वसह का अर्थ है प्रमुख। यहाँ आपिच्छ' के स्थान पर आपिच्छदो' करने से छंद-भंग होता है। अतः यहाँ 'आपिच्छ' का प्रयोग हुआ है। यहाँ भूतकालिक कृदन्त का कर्तृवाच्य में प्रयोग किया गया है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (11) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं (बंधुवग) 2/1 (विमोच) भूकृ 1/1 [(गुरु)-(कलत्त)-(पुत्त) 3/2] (आसि) संकृ [(णाण)-(दंसण)(चरित्त)-(तव) (वीरियायार) 2/1] बंधुसमूह को मुक्त किया गया माता-पिता, पत्नि और पुत्रों द्वारा धारण करके ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीरियाचार आसिज्ज णाणदंसणचरित्त- तववीरियायारं अन्वय- दुक्खपरिमोक्खं इच्छदि जदि गुरुकलत्तपुत्तेहिं विमोचिदो बंधुवग्गं आपिच्छ णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं आसिज्ज एवं जिणवरवसहे सिद्धे समणे पुणो पुणो पणमिय सामण्णं पडिवज्जदु। अर्थ- (जो) (कोई) दुखों से मुक्ति चाहता है (वह) यदि माता-पिता, पनि और पुत्रों द्वारा मुक्त किया गया (है), (तथा) (यदि) (उसने) बंधुसमूह (भाई-बंधों) को पूछ लिया (है) (तो) (वह) ज्ञानचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीरियाचार को धारण करके और जिनवरों में प्रमुख (अरहंत तीर्थंकरों) को, सिद्धों को और श्रमणों (आचार्य, उपाध्याय और साधु) को बारबार प्रणाम करके श्रमणता को अंगीकार करे। (12) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. समणं गणिं गुणटुं कुलरूववयोविसिट्टमिट्टदरं। समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो।। समणं (समण) 2/1 श्रमण गणिं (गणि) 2/1 आचार्य गुणढं (गुणड्ड) 2/1 वि गुणों में समृद्ध कुलरूववयोविसिट्ठ- [(कुलरूववयोविसिट्ठ)+ मिट्ठदरं (इट्ठदरं)] [(कुल)-(रूव)- कुल,रूप और आयु में (वयोविसिट्ठ) भूकृ 2/1 अनि] उपयुक्त इट्ठदरं (इट्ठदर) 2/1 वि अधिक अपेक्षित समणेहि (समण) 3/2 श्रमणा द्वारा (त) 2/1 सवि उसको अव्यय पणदो (पणद) भूकृ 1/1 अनि । साष्टांग प्रणाम किया पडिच्छ (पडिच्छ ) विधि 2/1 सक स्वीकार करें (अम्ह) 2/1 सवि [(च) + (इदि)] च (अ) = और और इदि (अ) = इस प्रकार इस प्रकार अणुगहिदो (अणुगहिद) भूकृ 1/1 अनि अनुगृहीत मुझे चेदि अन्वय- तं समणं गणिं गुण8 कुलरूववयोविसिटुं समणेहि इट्ठदरं पणदो मं पि पडिच्छ चेदि अणुगहिदो। । अर्थ- उस श्रमण को (जो) आचार्य (है), गुणों में समृद्ध (है), कुल, रूप और आयु में उपयुक्त (है) श्रमणों द्वारा अधिक अपेक्षित (है) (उनको) (उसने) (यह कहते हुए) साष्टांग प्रणाम किया (कि) (हे प्रभु आप!) मुझे भी स्वीकार करें। (आचार्य उसको स्वीकार करते हैं) और इस प्रकार (वह) अनुगृहीत (होता है)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (13) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. णाहं होमि परेसिंण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि। इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो।। णाहं होमि परेसिं नहीं मे णत्थि मज्झमिह [(ण)+ (अहं)] ण (अ) = नहीं नहीं अहं (अम्ह) 1/1 सवि (हो) व 1/1 अक होता हूँ (पर) 6/2 वि पर का अव्यय (अम्ह) 6/1 सवि (पर) 1/2 वि अव्यय नहीं हैं [(मज्झं)+ (इह)] मज्झं (अम्ह) 6/1 सवि मेरा इह (अ) = इस लोक में अव्यय कुछ भी अव्यय इस प्रकार (णिच्छिद) भूकृ 1/1 अनि । निर्णय किया हुआ । (जिदिंद) 1/1 वि इन्द्रियों को जीतनेवाला (जाद) भूकृ 1/1 बना [(जध) अ-(जाद) भूकृ- जैसा जन्म हुआ उसी (रूव)-(धर) 1/1 वि] के अनुरूप शरीर को रखनेवाला इस लोक में किंचि इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो अन्वय- णाहं परेसिं होमि परे मे ण इह मज्झं किंचि णत्थि इदि णिच्छिदो जिदिंदो जधजादरूवधरो जादो। अर्थ- मैं पर का नहीं हूँ (और) पर मेरे नहीं हैं। (इसलिये) इस लोक में मेरा कुछ भी नहीं है। इस प्रकार निर्णय किया हुआ (साधु) इन्द्रियों को जीतनेवाला (होकर) जैसा जन्म हुआ उसी के अनुरूप शरीर को रखनेवाला बना। (14) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्ध। रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंग।। मुच्छारंभविमुक्कं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं। लिंगंण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं।। जधजादरूवजादं [(जध) अ-(जाद) भूक - जैसा जन्म हुआ उसी (रूव)-(जाद) भूकृ 1/1] के अनुरूप शरीर को रखा हुआ उप्पाडिदकेसमंसुगं [(उप्पाडिद) भूकृ-(केस)- दाढी-मूंछ व बाल (मंसुग) 1/1] लोंच किया हुआ 'ग' स्वार्थिक सुद्धं (सुद्ध) 1/1 वि शरीर के दोष से मुक्त रहिदं. (रहिद) 1/1 वि रहित हिंसादीदो [(हिंसा)+(आदीदो)] हिंसा (हिंसा) 1/1 हिंसा आदीदो (आदि) 5/2 वगैरह से अपडिकम्म (अपडिकम्म) 1/1 वि शारीरिक शृंगार से वियुक्त हवदि (हव) व 3/1 अक होता है लिंगं . (लिंग) 1/1 जिन लिंग (भेष) मुच्छारंभविमुक्कं [(मुच्छा)+ (आरंभविमुक्क)] [(मुच्छा)-(आरंभ)- ममत्व बुद्धि एवं (विमुक्क) भूकृ 1/1 अनि] सांसारिक क्रियाओं से मुक्त प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (15) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुत्तं लिंग (जुत्त) 1/1 वि युक्त ... उवजोगजोगसुद्धीहिं [(उवजोग)-(जोग)- भावों और क्रियाओं (सुद्धि) 3/2] की निर्मलता से (लिंग) 1/1 लिंग (भेष) अव्यय परावेखं (परावेक्ख) 1/1 वि पर की चाह रखनेवाला अपुणब्भवकारणं [(अपुणब्भव)-(कारण) 1/1] मोक्ष का कारण जेण्हं (जेण्ह) 1/1 वि जिन नहीं अन्वय- जेण्ह लिंगं हवदि जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं हिंसादीदो रहिदं अप्पडिकम्मं लिंगं अपुणब्भवकारणं मुच्छारंभविमुक्कं उवजोगजोगसुद्धीहिं जुत्तं परावेक्खं ण। अर्थ- (मोक्ष के साधक का) (जो) (बाह्य) जिन लिंग (भेष) होता है (वह) जैसा जन्म हुआ उसी के अनुरूप शरीर रखा हुआ, दाढी-मूंछ व बाल लोंच किया हुआ, शरीर के दोष से मुक्त, हिंसा वगैरह से रहित, (किसी भी प्रकार के) शारीरिक शृंगार से वियुक्त (होता है) (तथा) (जो) (अंतरंग) (जिन) लिंग (भेष) है, (वह) मोक्ष का कारण (है) ममत्व बुद्धि एवं सांसारिक क्रियाओं से मुक्त (है), भावों और क्रियाओं की निर्मलता से युक्त (है) (तथा) पर की चाह रखनेवाला नहीं (होता है)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित (16) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेणं तं णमंसित्ता। सोच्चा सवदं किरियं उवविदो होदि सो समणो।। आदाय ग्रहण करके उसको . क ही र लिंग गुरुणा परमेणं गुरु से णमंसित्ता (आदा) संकृ (त) 2/1 सवि अव्यय (लिंग) 2/1 (गुरु) 3/1 (परम) 3/1 वि (त) 2/1 सवि (णमंस) संकृ (सोच्चा) संकृ अनि (सवदा) 2/1 वि (किरिया) 2/1 (उवट्टिद) भूक 1/1 अनि (हो) व 3/1 अक (त) 1/1 सवि (समण) 1/1 सोच्चा उत्कृष्ट उसको नमस्कार करके सुनकर व्रत-सहित क्रिया को तत्पर होता है सवदं किरियं उवविदो होदि वह श्रमण समणो . अन्वय- परमेणं गुरुणा तं लिंगं आदाय पि तं णमंसित्ता सवदं किरियं सोच्चा सो समणो उवट्ठिदो होदि। अर्थ- उत्कृष्ट गुरु (आचार्य) से उस लिंग (भेष) को ग्रहण करके ही उन (आचार्य) को नमस्कार करके व्रत (पाँच महाव्रत) सहित क्रिया को सुनकर वह श्रमण (व्रत पालन में) तत्पर होता है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (17) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च।। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।। वदसमिदिदियरोधो [(वद)-(समिदि)- महाव्रत, समिति, (इंदियरोध) 1/1] . इंद्रियनिरोध लोचावस्सयम- [(लोच)+(आवस्सयं)+ चेलमण्हाणं (अचेलं)+ (अण्हाणं)] [(लोच)-(आवस्सय) 1/1] लोंच, आवश्यक अचेलं (अचेल) 1/1 दिगम्बर अवस्था अण्हाणं (अण्हाण) 1/1 स्नान नहीं करना खिदिसयणमदंतवणं [(खिदिसयणं)+ (अदंतवणं)] खिदिसयणं (खिदिसयण) 1/1 भूमि पर सोना अदंतवणं (अदंतवण) 1/1 दाँतौन नहीं करना ठिदिभोयणमेगभत्तं [(ठिदिभोयणं)+ (एगभत्तं)] ठिदिभोयणं (ठिदिभोयण) 1/1 खड़े होकर भोजन करना एगभत्तं (एगभत्त) 1/1 एक बार भोजन करना अव्यय (एद) 1/2 सवि अव्यय वास्तव में मूलगुणा (मूलगुण) 1/2 मूलगुण समणाणं (समण) 4/2 श्रमणों के लिए जिणवरेहिं (जिणवर) 3/2 जिनवरों के द्वारा और Adi खलु (18) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णत्ता तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो . (पण्णत्त) भूकृ 1/2 अनि कहे गये (त) 7/2 सवि उनमें - (पमत्त) 1/1 वि प्रमादी (समण) 1/1 . श्रमण [(छेद)+(उवट्ठावगो)] [(छेद)-(उवट्ठावग) 1/1 वि] संयम-भंग को फिर स्थापित करनेवाला (हो) व 3/1 अक होता है होदि अन्वय- वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि। अर्थ- (पाँच) महाव्रत', (पाँच) समितिः, (पाँच) इन्द्रियनिरोध', लोंच (केशलोंच), (छ) आवश्यक', दिगम्बर अवस्था, स्नान नहीं करना (अस्नान), भूमि पर सोना, दाँतौन नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और एक बार भोजन करना- ये (अट्ठाईस) मूलगुण श्रमणों के लिए जिनवरों के द्वारा वास्तव में कहे गये (हैं)। उन (मूलगुणों) में (जो) प्रमादी श्रमण (होता है) (उसके लिए) संयम-भंग को फिर स्थापित करनेवाला (निर्यापक श्रमण) होता है। 1. 2. . 3. 4. पाँच महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। पाँच समिति- ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन। पाँच इन्द्रियनिरोध- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। छ आवश्यक- समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, यसकाऔर कायोत्सर्गी . प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (19) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि। छेदेसूवठ्ठवगा सेसा णिज्जावगा समणा।। लिंगरगहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि छेदेसूवठ्ठवगा [(लिंग)-(ग्गहणे) 7/1] (श्रमण) लिंग ग्रहण में (त) 6/2 सवि उनके [(गुरू)+ (इति)] गुरू (गुरु) 1/1 गुरु इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार [(पव्वज्जा-पव्वज्ज)- प्रव्रज्या देनेवाले (दायग) 1/1 वि] (दीक्षा देनेवाले) (हो) व 3/1 अक . होता है [(छेदेसु)+(उवठ्ठावगा)] छेदेसु (छेद) 7/2 संयम-भंग होने पर उवठ्ठावगा (उवठ्ठावग) 1/2 वि फिर स्थापित करनेवाले (सेस) 1/2 वि अन्य सब (णिज्जावग) 1/2 वि निर्यापक (समण) 1/2 श्रमण सेसा णिज्जावगा समणा अन्वय- लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि छेदेसूवठ्ठवगा सेसा समणा णिज्जावगा। अर्थ- इस प्रकार (साधकों के लिए) (श्रमण) लिंग (भेष) ग्रहण में उनके गुरु प्रव्रज्या देनेवाले (दीक्षा देनेवाले) (आचार्य) (दीक्षागुरु) होते हैं, (तथा) संयम-भंग होने पर फिर (संयम में) स्थापित करनेवाले अन्य सब श्रमण निर्यापक (होते हैं)। 1. 2. प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 21 यहाँ छन्द की मात्रा के लिए ‘उवठ्ठावग' का ‘उवठ्ठवग' किया गया है। (20) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचे?म्हि। जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया।।। छेदपउत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि। आसेज्जालोचित्ता उवदिटुं तेण कायव्वं ।। पयदम्हि (पयद) भूकृ 7/1-3/1 अनि जागरूक द्वारा समारद्धे (समारद्ध) भूकृ 7/1 अनि प्रारंभ की गई छेदो (छेद) 1/1 संयम-भंग समणस्स (समण) 6/1+3/1 श्रमण द्वारा कायचेट्टम्हि [(काय)-(चेट्ठा) 7/1] शरीर-क्रिया में जायदि (जाय) व 3/1 अक उत्पन्न होता है जदि अव्यय तस्स (त) 6/1-+3/1 सवि उसके द्वारा अव्यय आलोयणपुब्विया [(आलोयणा आलोयण)- आलोचना की (पुब्विया) 1/1 वि] किरिया (किरिया) 1/1 क्रिया यदि प्राचीन 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) समासगत शब्दों में स्वर हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाया करते हैं। यहाँ आलोयणा' का 'आलोयण' हुआ है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 21) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (21) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणो छेदपउत्ता [(छेद)-(पउत्त) संयम-भंग-युक्त भक 1/1 अनि] (समण) 1/1 श्रमण समण (समण) 2/1 श्रमण ववहारिणं [(ववहारि)-(ण) 2/1 वि] प्रायश्चित विधान का ज्ञानी जिणमदम्हि (जिणमद) 7/1 जिनसिद्धान्त में आसेज्जालोचित्ता [(आसेज्ज)+(आलोचित्ता)] आसेज्ज (आस) संकृ शरण लेकर आलोचित्ता (आलोच) संकृ आलोचना करके उवदिहें (उवदिट्ठ) 1/1 वि उपदिष्ट (त) 3/1 सवि उसके द्वारा कायव्वं (का) विधिकृ 1/1 किया जाना चाहिए तेण अन्वय- पयदम्हि समणस्स समारद्धे कायचे?म्हि जदि छेदो जायदि तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया समणो छेदपउत्तो जिणमदम्हि ववहारिणं समणं आसिज्जालोचित्ता तेण उवदिढे कायव्वं ।। अर्थ- जागरूक श्रमण द्वारा प्रारंभ की गई शरीर-क्रिया में यदि संयमभंग उत्पन्न होता है (तो) उस (श्रमण) के द्वारा ही आलोचना की प्राचीन (पूर्व शास्त्रों के अनुसार) क्रिया (की जानी चाहिये)। (या) (जो) श्रमण संयम-भंगयुक्त (है) (उसे) जिनसिद्धान्त में (प्रतिपादित) प्रायश्चित विधान के ज्ञानी श्रमण की शरण लेकर (अपने दोषों की) (उनके सामने) आलोचना करके उस (श्रमण) के द्वारा (जो कुछ) उपदिष्ट (है) (वह) किया जाना चाहिये। नोटः सम्पादक द्वारा अनूदित (22) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे। समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो णिबंधाणि।। अधिवासे . (अधिवास) 7/1 (गुरु के ) पास में हो अथवा अव्यय (विवास) 7/1 विवासे छेदविहूणो भवीय-भविय (गुरु से) दूर हो संयम-भंग-रहित होकर श्रमण अवस्था में सामण्णे श्रमण समणो विहरदु [(छेद)-(विहूण) 1/1 वि] (भव) संकृ (सामण्ण) 7/1 (समण) 1/1 (विहर) विधि 3/1 अक अव्यय (परिहर) वकृ 1/1 (णिबंध) 2/2 रहे | णिच्चं सदैव परिहरमाणो णिबंधाणि टालता हुआ संबंधों/संयोगो को अन्वय- सामण्णे छेदविहूणो भवीय समणो अधिवासे व विवासे णिच्चं णिबंधाणि परिहरमाणो विहरदु। अर्थ- श्रमण अवस्था में संयम-भंग-रहित होकर (वह) श्रमण (गुरु के) पास में हो अथवा (गुरु से) दूर (अकेला) हो, सदैव (जन) संबंधों/संयोगो को टालता हुआ रहे। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि। पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो।। चरदि आचरण करता है संबद्ध णिबद्धो णिच्चं (चर) व 3/1 सक (णिबद्ध) 1/1 वि अव्यय (समण) 1/1 (णाण) 7/1 [(दंसण)-(मुह) 7/1] समणो सदैव श्रमण ज्ञान में णाणम्मि दंसणमुहम्मि आत्मस्मरण की दिशा जागरूक हुआ मूलगुणों में और पयदो (पयद) भूकृ 1/1 अनि मूलगुणेसु (मूलगुण) 7/2 अव्यय (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि पडिपुण्णसामण्णो [(पडिपुण्ण) भूकृ अनि (सामण्ण) 1/1] जो वह परिपूर्ण श्रमणता अन्वय- जो समणो णिच्चं दसणमुहम्मि णाणम्मि णिबद्धो य मूलगुणेसु पयदो चरदि सो पडिपुण्णसामण्णो। अर्थ- जो श्रमण सदैव आत्मस्मरण की दिशा में (तथा) ज्ञान में संबद्ध (है) और मूलगुणों में जागरूक हुआ आचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रमणता (प्राप्त किया हुआ है)। 1. कोश में सामण्ण' शब्द नपुंसकलिंग दिया गया है, किन्त यहाँ ‘सामण्ण' शब्द का प्रयोग पुलिंग में किया गया है। (24) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि।। 의 खमणे वा आवसधे विहारे वा उवधिम्हि (भत्त) 7/1 भोजन में अव्यय अथवा (खमण) 7/1 उपवास में अव्यय अथवा (आवसध) 7/1 आवास में अव्यय अथवा अव्यय पादपूरक (विहार) 7/1 विहार में अव्यय अथवा । (उवधि) 7/1 परिग्रह में अव्यय अथवा (णिबद्ध) 2/1 वि बँधे हुए/ममता युक्त [(ण)+(इच्छदि)] ण (अ) = नहीं नहीं इच्छदि (इच्छ) व 3/1 सक स्वीकार करती है (समण) 7/1 (अन्य) श्रमण में (विकधा)1 7/1 विकथा में णिबद्ध णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि अन्वय- भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा उवधिम्हि वा समणम्हि विकधम्हि णिबद्धं णेच्छदि। अर्थ- (परिपूर्ण श्रमणता) भोजन में अथवा उपवास में अथवा आवास में अथवा विहार में अथवा (शरीररूप) परिग्रह में अथवा (अन्य) श्रमण में (अथवा) विकथा में बँधे हुए/ममता युक्त (श्रमण) को स्वीकार नहीं करती है। 1. कभी-कभी ‘आकारान्त' शब्दों के रूप तृतीया और पंचमी को छोड़कर 'अकारान्त' की तरह चल जाते हैं। अभिनव प्राकृत व्याकरणः पृष्ठ 154 प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (25) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु। समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतत्तिय त्ति मदा।। अपयत्ता OT चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतत्तिय त्ति (अपयत्ता) 1/1 वि जागरूकता-रहित अव्यय पादपूरक (चरिया) 1/1 चर्या [(सयण)+(आसणठाणचंकम)+ (आदीसु)] [(सयण)-(आसण)-(ठाण)- सोने, बैठने,खड़े होने, (चंकम)-(आदि) 7/2] परिभ्रमण आदि में (समण) 6/1 श्रमण की [(सव्व) सवि-(काल) 7/1] सब काल में (हिंसा) 1/1 हिंसा (ता) 1/1 सवि [(संतत्ता)+ (इय) + (इति)] संतत्ता (संतत्ता) 1/1 वि निरन्तर इय (अ) = निश्चय ही निश्चय ही इति (अ) = वाक्यार्थद्योतक (मदा) भूकृ 1/1 अनि मानी गई वह मदा अन्वय- समणस्स अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु सव्वकाले सा संतत्तिय त्ति हिंसा मदा। ___अर्थ- श्रमण की जागरूकता-रहित चर्या (यदि) सोने, बैठने, खड़े होने, परिभ्रमण आदि (क्रियाओं में) सब काल में (होती है) (तो) वह निश्चय ही निरन्तर हिंसा मानी गई (है)। (26) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स। मरदु जियदु जीवो अयदाचारस्स (मर) विधि 3/1 अक मरे अव्यय अथवा (जिय) विधि 3/1 अकजीवे अव्यय अथवा (जीव) 1/1 जीव (अयदाचार) 6/1 वि जागरूकता-रहित आचरणवाले (णिच्छिदा) 1/1 वि निश्चित (हिंसा) 1/1 हिंसा (पयद) 6/1 वि जागरूक के अव्यय (बंध) 1/1 बंध [(हिंसा)-(मेत्त) 3/1 वि] हिंसामात्र से (समिद) 6/1 साधु के णिच्छिदा नहीं है हिंसा पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स अन्वय- जीवो मरदु व जियदु व अयदाचारस्स समिदस्स हिंसा णिच्छिंदा पयदस्स हिंसामेत्तेण बंधो णत्थि। ___अर्थ- (कोई भी) जीव मरे अथवा जीवे जागरूकता-रहित आचरणवाले साधु के (आन्तरिक) हिंसा निश्चित (है)। जागरूक (साधु के) (बाह्य) हिंसामात्र से (कर्म) बंध नहीं है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (27) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्वं कमलं व जले णिरुवलेवो। अयदाचारो . (अयदाचार) 1/1 वि जागरूकता-रहित आचरणवाला श्रमण समणो छस्सु कायेसु वधकरो त्ति पादपूरक कायिक (जीवों) में मदो (समण) 1/1 (छस्सु) 7/2 वि अनि अव्यय (काय) 7/2 वि [(वधकरो)+ (इति)] वधकरो (वधकर) 1/1 वि इति (अ) = (मद) भूकृ 1/1 अनि (चर) व 3/1 सक (जदं) 2/1 द्वितीयार्थक अव्यय अव्यय अव्यय (कमल) 1/1 अव्यय (जल) 7/1 (णिरुवलेव) 1/1 वि हिंसा करनेवाला वाक्यार्थद्योतक माना गया आचरण करता है जागरूकतापूर्वक चरदि जदं जदि यदि सदैव णिच्वं कमलं कमल की तरह जल में अलिप्त जले णिरुवलेवो अन्वय- अयदाचारो समणो वि छस्सु कायेसु वधकरो त्ति मदो जदि जदं चरदि णिच्वं जले कमलं व णिरुवलेवो। ___ अर्थ- जागरूकता-रहित आचरणवाला श्रमण छ कायिक (जीवों) में (बाह्य हिंसा किये बिना भी) (अंतरंग) हिंसा करनेवाला माना गया (है)। यदि (श्रमण) जागरूकतापूर्वक आचरण करता है (और बाह्य हिंसा हो जाती है) (तो) (वह) सदैव जल में कमल की तरह अलिप्त (रहता है)। (28) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचे?म्हि। बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ।। हवदि व नहीं हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचेट्टम्हि बंधो धुवमुवधीदो (हव) व 3/1 अक होता है अव्यय अथवा • अव्यय (हव) व 3/1 अक होता है (बंध) 1/1 बंध (मद) भूकृ 7/1 अनि मरने पर [(जीवे) + (अध)] जीवे' (जीव) 7/1 जीवों के अध (अ) = और और [(काय)-(चेट्ठा)7/1+3/1] शरीर-चेष्टा से (बंध) 1/1 बंध [(धुवं)+(उवधीदो)] धुवं (अ) = निश्चित रूप से निश्चित रूप से उवधीदो (उवधि) 5/1 परिग्रह के कारण अव्यय अतः (समण) 1/2 श्रमणों ने (छड्ड) भूकृ 1/2 छोड़ दिया (सव्व) 2/1 सवि समस्त समणा छड्डिया सव्वं अन्वय- कायचेट्टम्हि जीवेऽध मदम्हि बंधो हवदि व ण हवदि धुवमुवधीदो बंधो इदि समणा सव्वं छड्डिया । __ अर्थ- (और) (श्रमण के) शरीर-चेष्टा से जीवों (त्रस-स्थावर) के मरने पर (कर्म) बंध होता है अथवा नहीं (भी) होता है। (किन्तु) परिग्रह के कारण निश्चित रूप से (कर्म) बंध (होता ही है)। अतः श्रमणों ने समस्त (अंतरंग व बाह्य परिग्रह) छोड़ दिया (है)। 1. 2... प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 49 कभी-कभी ‘आकारान्त' शब्दों के रूप तृतीया और पंचमी को छोड़कर ‘अकारान्त' की तरह चल जाते हैं। अभिनव प्राकृत व्याकरणः पृष्ठ 154 प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (29) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिओ।। 5 अव्यय नहीं 4 णिरवेक्खो चागो हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी अव्यय निश्चय ही (णिरवेक्ख) 1/1 वि अपेक्षा-रहित (चाग) 1/1 त्याग अव्यय नहीं है (हव) व 3/1 अक होता है (भिक्खु) 6/1 श्रमण के [(आसय)-(विसुद्धि) 1/1] चित्त में विशुद्धता/ स्वच्छता (अविसुद्ध) 6/1-7/1 वि अविशुद्ध अव्यय और (चित्त) 7/1 चित्त में कैसे अव्यय प्रश्नद्योतक [(कम्म)-(क्खअ) 1/1] कर्मों का अंत (विहिअ) भूकृ 1/1 अनि किया हुआ । अविसुद्धस्स य चित्ते श्री. अव्यय कम्मक्खओ विहिओ अन्वय- भिक्खुस्स चागो णिरवेक्खो ण हवदि हि आसयविसुद्धी ण य अविसुद्धस्स चित्ते कम्मक्खओ कहं णु विहिओ। अर्थ- (यदि) श्रमण के (परिग्रह का) त्याग अपेक्षा-रहित नहीं होता है (तो) निश्चय ही (उस श्रमण के) चित्त में विशुद्धता/स्वच्छता नहीं है और अविशुद्ध चित्त में कर्मों का अंत किया हुआ कैसे (माना जायेगा)? अर्थात् कर्मों का अंत नहीं हो सकता। (30) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि।। कैसे किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा. असंजमो अव्यय (त) 7/1 सवि उस (चाहयुक्त परिग्रह) के होने पर अव्यय नहीं है (मुच्छा ) 1/1 ममत्व भाव (आरंभ) 1/1 जीव-हिंसा अव्यय तथा (असंजम) 1/1 वि असयम (त) 6/1 सवि उसके अव्यय इस प्रकार [(पर) वि-(दव्व) 7/1] पर द्रव्यों में (रद) भूकृ 1/1 अनि अनुरक्त [(कधं)+ (अप्पाणं)] कधं (अ) = कैसे कैसे अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 आत्मा को (पसाधयदि) व 3/1 सक अनि प्राप्त करता है तस्स तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि - अन्वय- तम्हि तस्स मुच्छा आरंभो वा असंजमो किध णत्थि तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि। .. अर्थ- उस (चाहयुक्त परिग्रह) के होने पर उस (श्रमण) के ममत्व भाव, जीव-हिंसा तथा (मूलगुणों में) असंयम कैसे नहीं है? इस प्रकार पर द्रव्यों में अनुरक्त (वह) (श्रमण) आत्मा को कैसे प्राप्त करेगा? 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (31) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. छेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स। समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता।। छेदो संयम-भंग जिससे (छेद) 1/1 (ज) 3/1 सवि अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक [(गहण)-(विसग्ग) 7/2] 5 विज्जदि गहणविसग्गेसु नहीं होता है स्वीकार करने और त्यागने में उपभोग करते हुए के श्रमण सेवमाणस्स समणो तेणिह (सेव) वकृ 6/1 . (समण) 1/1 [(तेण)+ (इह)] तेण (त) 3/1 सवि इह (अ) = (वट्ट) विधि 3/1 सक (काल) 2/1 (खेत्त) 2/1 (वियाण) संकृ उससे इस लोक में वट्टदु रहे कालं खेत्तं वियाणित्ता काल क्षेत्र जानकर अन्वय- सेवमाणस्स गहणविसग्गेसु जेण छेदो ण विज्जदि तेणिह समणो कालं खेत्तं वियाणित्ता वट्टदु। अर्थ- (परिग्रह का) उपभोग करते हुए (श्रमण) के (परिग्रह को) स्वीकार करने और त्यागने में जिस (परिग्रह) से (मूलगुणों का) संयम-भंग नहीं होता उस (परिग्रह) से (वह) श्रमण काल (और) क्षेत्र को जानकर इस लोक में (32) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. अप्पडिकुटुं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । मुच्छादिजणणरहिदं गेहद समणो जदि वि अप्पं ॥ अप्पडिकुटुं उवधि अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं मुच्छादिजणणरहिदं [(मुच्छा)+(आदि)(जणणरहिदं)] दु समणो दि वि do अप्पं (अप्पडिकुट्ठ) 2/1 वि (उवधि) 2/1 (अपत्थणिज्ज) 2/1 वि [ ( असंजद) वि- ( जण) 3/2] नोटः अव्यय ( अप्प ) 2 / 1 वि अस्वीकृत नहीं को परिग्रह को [(मुच्छा) - (आदि) - (जणण) - ममत्व आदि भावों ( रहिद) 2 / 1 वि] की उत्पत्ति-रहित को (गेह) विधि 3 / 1 सक ग्रहण करे (समण) 1 / 1 श्रमण अव्यय संपादक द्वारा अनूदित प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र -अधिकार अप्रार्थनीय असंयमी मनुष्यों द्वारा अन्वय- समणो असंजदजणेहिं अपत्थणिज्जं उवधिं अप्पडिकुटुं मुच्छादिजणणरहिदं जदि अप्पं वि गेहदु । अर्थ - श्रमण असंयमी मनुष्यों द्वारा अप्रार्थनीय परिग्रह को, ( आगमों द्वारा) अस्वीकृत नहीं को अर्थात् स्वीकृत को (तथा) ममत्व आदि भावों की उत्पत्ति-रहित (मुक्त) (परिग्रह) को जो (बिल्कुल आवश्यकतानुसार ) थोड़ा ही हो (उसको) ग्रहण करे। जो ही थोड़ा (33) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहे वि। संग त्ति जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिा।। अब (क) 1/1 सवि क्या किंचण त्ति [(किंचण)+(इति)] किंचण (अ) = थोड़ा सा इति (अ) = भी तक्कं (तक्क) 1/1 विचार .. अपुणब्भवकामिणोध [(अपुणब्भव)-(कामिणो)+ (अध)] [(अपुणब्भव)-(कामि)6/1वि]मोक्ष के इच्छुक के अध (अ) = अब . देहे (देह) 7/1 देह के विषय में अव्यय संग त्ति [(संगो)+ (इति)] संगो (संग) 1/1 आसक्ति इति (अ) = इसलिए इसलिए जिणवरिंदा (जिणवरिंद) 1/2 सर्वज्ञ देवों ने णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा [(णिप्पडिकम्मत्तं) + (उद्दिट्ठा)] णिप्पडिकम्मत्तं (णिप्पडिकम्मत्त) परिष्कार-रहितता 2/1 उद्दिट्टा' (उद्दिट्ट) भूकृ 1/2 अनि प्रतिपादित किया अन्वय- अपुणब्भवकामिणोध किं देहे वि किंचण त्ति तक्कं संग त्ति जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा। ___ अर्थ- मोक्ष के इच्छुक (श्रमण) के क्या देह के विषय में अब भी थोड़ा सा भी विचार (आता है) (तो) (वह) (देह में) आसक्ति है। (चूँकि देह में आसक्ति संभव है) इसलिए सर्वज्ञ देवों ने (देह की) परिष्कार-रहितता को प्रतिपादित किया (है)। 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है। (34) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिटिं।। उवयरणं (उवयरण) 1/1 (मोक्ष का) उपाय/ साधन जिनमार्ग में जिणमग्गे लिंगं जधजादरूवमिदि (जिणमग्ग) 7/1 (लिंग) 1/1 [(जधजादरूवं)+ (इदि)] [(जध) अ-(जाद) भूकृ(रूव) 1/1 वि] इदि (अ) = (भण) भूकृ 1/1 [(गुरु)-(वयण) 1/1] जैसा जन्म हुआ वैसा ही शरीररूपी शब्दस्वरूपद्योतक कहा गया गुरु के द्वारा कथित वचन भणिदं गुरुवयणं अव्यय भी विणओ सुत्तज्झयणं अव्यय · पादपूरक (विणअ) 1/1 विनय [(सुत्त)+(अज्झयणं)] [(सुत्त)-(अज्झयण) 1/1] सूत्रों का अध्ययन अव्यय और (णिट्ठि) भूकृ 1/1 अनि कहा गया णिद्दिट्ट अन्वय- जिणमग्गे जहजादरूवमिदि लिंग उवयरणं भणिदं गुरुवयणं विणओ च सुत्तज्झयणं पि य णिद्दिडं। ___ अर्थ- (सर्वज्ञ वीतरागदेव-कथित) जिनमार्ग में (श्रमण का) जैसा जन्म हआं वैसा ही शरीररूपी भेष (मोक्ष का) उपाय/साधन कहा गया (है)। गुरु के द्वारा कथित वचन, (उनके प्रति) (नियमबद्ध) विनय और सूत्रों का अध्ययन भी (मोक्ष का उपाय/साधन) कहा गया (है)। नोटः 1. यद्यपि विनअ' पुल्लिंग है किन्तु णिदिदं निकटतम पद के अनुसार हुआ है। संधि-नियम 8.1 (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 8) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (35) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि। जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो।। इहलोगणिरावेक्खो [(इह) अ-(लोग)- इस लोक में (णिरावेक्ख) 1/1 वि] चाहरहित अप्पडिबद्धो (अप्पडिबद्ध) भूकृ 1/1 अनि नहीं बँधा हुआ. परम्मि (पर) 7/1+3/1 वि पर लोयम्हि (लोय) 7/1-3/1 लोक द्वारा जुत्ताहारविहारो (जुत्त) वि-(आहार)- युक्त आहार-विहार (विहार) 1/1] रहिदकसाओ [(रहिद) भूक अनि- कषाय त्याग दी गई (कसाअ) 1/1] हवे. (हव) व 3/1 अक समणो (समण) 1/1 श्रमण अन्वय- समणो हवे इहलोगणिरावेक्खो परम्मि लोयम्हि अप्पडिबद्धो जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ। अर्थ- (वह) श्रमण है (जो) इस लोक में चाहरहित (है), (जो) परलोक द्वारा बँधा हुआ नहीं (है), (जिसका) आहार-विहार युक्त (है) (तथा) (जिसके द्वारा) कषाय त्याग दी गई (है)। 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पिशल, पृ.सं.679/ 2. (36) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवो तप 27. जस्स असणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा॥ जस्स (जस्स-जेण) 6/1-3/1 चूँकि तृतीयार्थक अव्यय अणेसणमप्पा [(अण)+(एसणं)+(अप्पा)] अण (अ) = नहीं नहीं एसणं (एसणा) 2/1 इच्छा अप्पा (अप्प) 1/1 आत्मा अव्यय इसलिए अव्यय (तव) 1/1 तप्पडिच्छगा [(त) सवि-(प्पडिच्छग) उसका ग्रहण करनेवाले 1/2 वि] समणा (समण) 1/2 श्रमण . अण्णं (अण्ण) 2/1 अन्न को भिक्खमणेसणमध [(भिक्खं)+ (अणेसणं)+ (अध)] भिक्खं (भिक्खा) 2/1-7/1 भिक्षा(आहार-प्रक्रिया) में अणेसणं (अणेसणा) 2/1 अनिच्छापूर्वक द्वितीयार्थक अव्यय अध (अ) = इसलिए इसलिए (त) 1/2 सवि समणा (समण) 1/2 श्रमण अणाहारा (अणाहार) 1/2 वि निराहारी ... अन्वय- जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा भिक्खमणेसणमध अण्णं ते समणा अणाहारा। ___ अर्थ- चूँकि (श्रमण की) आत्मा (पर द्रव्यरूप) (आहार की) इच्छा नहीं (करती है) इसलिए ही (वह) (अंतरंग) तप (कहा गया है) (उसी प्रकार) उस (आहार) का ग्रहण करनेवाले श्रमण भिक्षा (आहार प्रक्रिया) में अन्न को अनिच्छापूर्वक (ही) (ग्रहण करते हैं) इसलिए वे श्रमण निराहारी (कहे गये हैं)। (अतः यह भी अंतरंग तप है)। . 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) नोटः संपादक द्वारा अनूदित ते |- प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (37) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. केवलदेहो समणो देहे वि ममत्तरहिदपरिकम्मा । आत्तो तं तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्तिं । । केवलदेहो समणो देहे' वि अव्यय ममत्तरहिदपरिकम्मा [ ( ममत्त ) - ( रहिद) वि (परिकम्म) 2 / 2 ] ( आजुत्त) भूक 1 / 1 अनि आ ਰਂ तवसा 2 अणिगूहिय अप्पणो सत्तिं 1. [ ( केवल ) वि - (देह) 1 / 1] मात्र देह ( समण) 1 / 1 श्रमण (देह) 7/13/1 देह से भी 2. (38) (a) 2/1 ( तवसा ) 3 / 1 - 7 / 1 अनि ( अ - णिगूह) संकृ अन्वय- समणो केवलदेहो देहे वि ममत्तरहिदपरिकम्मा अप्पणो सत्तिं अणिगूहिय तं तवसा आजुत्तो । अर्थ - ( जो ) श्रमण (परिग्रहरूप में) मात्र देह ( रक्खे हुए है ) ( वह) देह से भी क्रियाओं को ममत्वरहित (होकर ) ( करता है) । (वही) (श्रमण) स्वयं की शक्ति को न छिपाकर उस (शक्ति) को तप में लगाता ( है ) / नियुक्त (करता है ) । ( अप्प) 6 / 1 ( सत्ति) 2/1 ममत्वरहित क्रियाओं को लगाता / नियुक्त उसको तप में न छिपाकर स्वयं की शक्ति को कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरण: 3-135) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरण: 3-137 ) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र - अधिकार Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं । । ण मधुमंसं (एक्क) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (भत्त) 1 / 1 [(अप्पडिपुण्ण)+(उदरं)] [(अप्पडिपुण्ण) वि (उदर) 1 / 1] [(जहा) अ - (लद्ध) भूकृ 1 / 1 अनि ] (चरणं) 2/1 द्वितीयार्थक अव्यय ( भिक्ख ) 3 / 1 अव्यय अव्यय [ (रस) - ( अवेक्खा) 2 / 1] अव्यय [ ( मधु ) - (मंस) 1 / 1] एक समय पादपूरक वाक्य- उपन्यास आहार पूरा नहीं भरा गया पेट जैसा प्राप्त किया गया प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र -अधिकार चर्या से भिक्षा-सहित दिन में नहीं रसों की चाह नहीं मधु-मांस अन्वय- भत्तं दिवा एक्कं खलु भिक्खेण चरणं जहालद्धं तं ण रसावेक्खं ण मधुमंसं अप्पडिपुण्णोदरं । अर्थ - (श्रमण के द्वारा) आहार दिन में एक समय भिक्षा-सहित चर्या से जैसा प्राप्त किया गया (है) (वैसा) (ग्रहण किया जाता है) (तथा) (वह श्रमण ) रसों की चाह नहीं (रखता है) (और) (उस आहार में) मधु-मांस नहीं (होता है) (तथा) (उस आहार से) पेट पूरा नहीं भरा गया ( है ) । (39) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. बालो वा बुड्डो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि।। बालो बालक अथवा बुड्ढो समभिहदो (बाल) 1/1 अव्यय (बुड्ड) 1/1 वि अव्यय (समभिहद) 1/1 वि अव्यय अव्यय (गिलाण) 1/1 वि अव्यय (चरिय) 2/1 (चर) विधि 3/1 सक (स-जोग्ग) 1/1 वि (मूलच्छेद) 1/1 अव्यय अथवा श्रम से थका हुआ अथवा फिर अशक्त/रोगी पुणो गिलाणो वा चरियं आचरण चरदु करे सजोगं मूलच्छेदो जधा अपने योग्य मूलगुण-भंग जिस तरह से नहीं होता है अव्यय हवदि (हव) व 3/1 अक अन्वय- बालो वा बुड्डो वा समभिहदो वा गिलाणो पुणो वा जधा मूलच्छेदो ण हवदि सजोगं चरियं चरदु। __ अर्थ- (जो श्रमण) बालक अथवा वृद्ध अथवा श्रम से थका हुआ अथवा अशक्त/रोगी (हो) फिर भी (वह) जिस तरह से मूलगुण-भंग नहीं हो (उस तरह से) अपने योग्य आचरण करे। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. आहारे व विहारे सं कालं समं खमं उवधिं जाणत्ता ते समणो व ृदि जदि अप्पलेवी ap सो आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो।। (आहार) 7 / 1 अव्यय (faær) 7/1 (देस) 2/1 (काल) 2 / 1 (सम) 2 / 1 (खम) 2 / 1 वि ( उवधि) 2 / 1 (जाण) संक्र (त) 2/2 सवि ( समण ) 1 / 1 (वट्ट) व 3 / 1 सक अव्यय [(अप्प) वि- (लेवी) 1/1 वि अनि] (त) 1 / 1 सवि आहार चर्या में अथवा विहार में क्षेत्र काल श्रम सहनशक्ति शरीरावस्था जानकर उन सबको श्रमण . आचरण करता है यदि थोड़े से कर्म से ही बँधनेवाला वह • अन्वय- जदि समणो आहारे व विहारे देतं कालं समं खमं उवधिं ते जाणित्ता वट्टदि सो अप्पलेवी । अर्थ- यदि श्रमण आहार चर्या में अथवा विहार में क्षेत्र, काल, श्रम, सहनशक्ति (तथा) (परिग्रहरूप ) शरीरावस्था - उन सबको जानकर आचरण करता है (तो) वह थोड़े से कर्म से ही बँधनेवाला (होता है ) । प्रवचनसार (खण्ड- 3 ) चारित्र - अधिकार (41) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु। . णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा।। एयग्गगदो एकाग्रचित्त हुआ समणो श्रमण स्थिर एयग्गं णिच्छिदस्स [(एयग्ग) वि-(गद) भूकृ 1/1 अनि] (समण) 1/1 (एयग्ग) 2/1 वि (णिच्छिद) भूकृ 6/1+2/1 अनि (अत्थ) 7/2 (णिच्छित्ति) 1/1 (आगम) 5/1 निश्चित अवस्था को अत्थेसु णिच्छित्ती आगमदो पदार्थों में निश्चितता आगम के अध्ययन के कारण आगम के अध्ययन में आगमचेट्ठा [(आगम)-(चेट्ठा) 1/1] प्रयास अव्यय (जेट्ठा) 1/1 वि इसलिए सर्वोत्तम अन्वय- एयग्गगदो समणो अत्थेसु एयग्गं णिच्छिदस्स णिच्छित्ती आगमदो तदो आगमचेट्ठा जेट्ठा। ___ अर्थ- (जो) एकाग्रचित्त हुआ (है), (वह) श्रमण (है) (क्योंकि) (उसने) पदार्थों में स्थिर (और) निश्चित अवस्था को (प्राप्त किया है) (और) (यह) निश्चितता आगम के अध्ययन के कारण (हुई है)। इसलिए आगम के अध्ययन में प्रयास सर्वोत्तम (है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘आगमादो' का 'आगमदो' किया गया है। नोटः संपादक द्वारा अनूदित (42) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणंतो अटे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।। आगमहीणो आगम (ज्ञान) के बिना श्रमण समणो णेवप्पाणं नहीं आत्मा को [(आगम)-(हीण) भूकृ 1/1 अनि (समण) 1/1 [(णेव)+(अप्पाणं)] णेव (अ) = नहीं अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 (पर) 2/1 वि (वियाण) व 3/1 सक (अ-विजाण) वकृ 1/1 (अट्ठ) 2/2 (खव) व 3/1 सक (कम्म) 2/2 अव्यय (भिक्खु) 1/1 वियाणादि अविजाणतो पर को जानता है. न जानता हुआ पदार्थों को नाश करता है कर्मों अढे खवेदि कम्माणि किध कैसे भिक्खू श्रमण अन्वय- आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि अटे अविजाणंतो भिक्खू कम्माणि किध खवेदि। - अर्थ- आगम (ज्ञान) के बिना श्रमण आत्मा (स्व) को (और) पर को नहीं जानता है। पदार्थों को न जानता हुआ श्रमण कर्मों का कैसे नाश करेगा? 1. वर्तमानकाल के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)। प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। 2. प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (43) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि। देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू।। आगमचक्खू साहू आगम से ज्ञान श्रमणों में इन्द्रियों से ज्ञान समस्त जीवों में इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि [(आगम)-(चक्खु) 1/1] (साहु) 2/2-7/2 [(इंदिय)-(चक्खु) 1/2] [(सव्व) सवि-(भूद) 2/2-7/2] (देव) 2/2+7/2 अव्यय [(ओहि)-(चक्खु) 1/1] (सिद्ध) 2/2-7/2 देवा देवों में और अवधि से ज्ञान . सिद्धों में ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू अव्यय परन्तु अव्यय पूर्णरूप से ज्ञान (चक्खु) 1/1 अन्वय- साहू आगमचक्खू सव्वभूदाणि इंदियचक्खूणि य देवा ओहिचक्खू पुण सिद्धा सव्वदो चक्खू। __ अर्थ- (मोक्ष-साधक) श्रमणों में आगम से (तत्त्वों का) ज्ञान (घटित होता है), समस्त (संसारी मोहाच्छादित) जीवों में (सीमित मूर्त का) इन्द्रियों से (विविध) ज्ञान (आता है) और देवों में अवधि से (मूर्त का ही) ज्ञान (उत्पन्न होता है) परन्तु (सर्वदर्शी) सिद्धों में पूर्णरूप से (पदार्थों का) ज्ञान (रहता है)। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) नोटः संपादक द्वारा अनूदित (44) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहि। जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा।। सव्वे पदार्थ आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं जाणंति आगमेण (सव्व) 1/2 सवि सभी [(आगम)-(सिद्ध) 1/2 वि] आगम से स्थापित (अत्थ) 1/2 [(गुण)-(पज्जअ) 3/2] गुण-पर्यायों सहित (चित्त) 3/2 वि नाना प्रकार की (जाण) व 3/2 सक जानते हैं (आगम) 3/1 आगम से अव्यय निश्चय ही (पेच्छ) संकृ समझकर (त) 2/2 सवि अव्यय पादपूरक (त) 1/2 सवि (समण) 1/2 हि पेच्छित्ता उनको कतन समणा श्रमण अन्वय- सव्वे अत्था चित्तेहिं गुणपज्जएहिं आगमसिद्धा ते आगमेण वि पेच्छित्ता जाणंति ते हि समणा। अर्थ- सभी (जीव-अजीव) पदार्थ नाना प्रकार की गुण-पर्यायों सहित आगम से स्थापित हैं। (जो) (गुण-पर्यायों सहित) उन (पदार्थों) को आगम से समझकर जानते हैं, वे निश्चय ही श्रमण (हैं)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (45) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स। णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो।। आगमपुव्वा दिट्ठी भवदि जस्सेह संजमो तस्स णत्थीदि [(आगम)-(पुव्व)' 1/1 वि] आगम से युक्त/उत्पन्न (दिट्ठि) 1/1 सम्यग्दर्शन अव्यय नहीं (भव) व 3/1 अक होता है [(जस्स) + (इह] जस्स (ज) 6/1 सवि जिसका इह (अ) = इस लोक में (संजम) 1/1 संयमाचरण (त) 6/1 सवि उसके [(णत्थि) + (इदि] णत्थि (अ) = नहीं है इदि (अ) = निश्चय ही निश्चय ही (भण) व 3/1 सक कहता है (सुत्त) 1/1 सूत्र (असंजद) 1/1 वि असंयमी (हो) व 3/1 अक होता है अव्यय कैसे (समण) 1/1 श्रमण नहीं है भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो ___ अन्वय- सुत्तं भणदि जस्सेह दिट्ठी आगमपुव्वा ण भवदि तस्स संजमो णत्थीदि असंजदो समणो किध होदि। अर्थ- सूत्र कहता है- इस लोक में जिस (श्रमण) का सम्यग्दर्शन आगम (अध्ययन) से युक्त/उत्पन्न नहीं है उस (श्रमण) के निश्चय ही संयमाचरण नहीं होता है, (तो) (जो) असंयमी (है) (वह) श्रमण कैसे होगा? 1. 2. समास के अन्त में 'पुव्व' शब्द का अर्थ है- ‘से युक्त। प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। (46) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु। सदहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि।। अव्यय अव्यय आगमेण सिज्झदि (आगम) 3/1 (सिज्झ) व 3/1 अक (सद्दहण) 2/1 अव्यय नहीं ही आगम से मुक्त होता है श्रद्धान सद्दहणं जदि अव्यय णत्थि अत्थेसु सद्दहमाणो अत्थे असंजदो अव्यय (अत्थ) 7/2 (सद्दह) वकृ 1/1 (अत्थ) 2/2 (असंजद) 1/1 वि अव्यय अव्यय (णिव्वा) व 3/1 अक नहीं है पदार्थों में श्रद्धा करता हुआ पदार्थों असंयमी और नहीं मुक्त होता है णिव्वादि अन्वय- जदि अत्थेसु सद्दहणं णत्थि आगमेण हि ण सिज्झदि वा अत्थे सद्दहमाणो वि असंजदो ण णिव्वादि। अर्थ- जो (जीव-अजीव आदि) पदार्थों में श्रद्धान नहीं (करता है) (वह) (केवल) आगम (अध्ययन) से ही मुक्त नहीं होता है। और (जो) पदार्थों की श्रद्धा करता हुआ भी असंयमी (रहता है) (तो) (भी) (वह) मुक्त नहीं होता प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (47) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण।। 4. अण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं जिस अज्ञानी कर्म को क्षय करता है । सौ हजार करोड़ भवों (ज) 2/1 सवि (अण्णाणि) 1/1 वि (कम्म) 2/1 (खव) व 3/1 सक [(भव)-(सय)-(सहस्स)(कोडि) 3/2+7/2] (त) 2/1 सवि (णाणी) 1/1 वि (ति) 3/2 वि (गुत्त) भूक 1/1 अनि (खव) व 3/1 सक [(उस्सास)-(मेत्त) 3/1+7/1 वि] णाणी उसको आत्मज्ञानी तीनों द्वारा रक्षित क्षय कर देता है उच्छवास मात्र में गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण अन्वय-अण्णाणी जं कम्मं भवसयसहस्सकोडीहिं खवेदि तिहिं गुत्तो णाणी तं उस्सासमेत्तेण खवेदि। ____ अर्थ- अज्ञानी (व्यक्ति) जिस कर्म को सौ हजार करोड़ भवों में क्षय करता है तीनों (मन, वचन और काय) द्वारा रक्षित आत्मज्ञानी (व्यक्ति) उस (कर्म) को उच्छवास मात्र में क्षय कर देता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 37) यहाँ छन्दपूर्ति के लिए 'तीहिं' के स्थान पर 'तिहिं किया गया है। किन्तु यहाँ पाठ 'तिहिं' के स्थान पर 'तिहि' होना चाहिये। 2. (48) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो। विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि।। परमाणपमाणं परमाणु परिमाण वा मुच्छा मोह/आसक्ति देहादिएसु देहादि में जस्स जिसके पुणो परन्तु [(परमाणु)-(पमाण) 1/1] (परमाण)-(पमाण) 1/11 अव्यय (मुच्छा ) 1/1 [(देह)+ (आदिएसु)] [(देह)-(आदिअ) 7/2] 'अ' स्वार्थिक (ज) 6/1 सवि अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक अव्यय (त) 1/1 सवि (सिद्धि) 2/1 अव्यय (लह) व 3/1 सक [(सव्व)+(आगमधरो)] [(सव्व) सवि-(आगम)-.. (धर) 1/1 वि] अव्यय विज्जदि जदि विद्यमान है यदि सिद्धि वह सिद्धि को . नहीं लहदि प्राप्त करता है सव्वागमधरो समस्त आगम को धारण करनेवाला भी • अन्वय- पुणो जस्स जदि परमाणुपमाणं वि देहादिएसु मुच्छा विज्जदि सो सव्वागमधरो वा सिद्धिं ण लहदि। अर्थ- परन्तु जिस (श्रमण) के यदि परमाणु परिमाण भी देहादि (पर द्रव्यों) में मोह/आसक्ति विद्यमान है (तो) वह (श्रमण) समस्त आगम को धारण करनेवाला (जाननेवाला) (होता हुआ) भी सिद्धि को प्राप्त नहीं करता है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (49) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ। दसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो॥ .. पंचसमिदो [(पंच) वि-(समिद) 1/1 वि] पाँच प्रकार से . सावधान तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो तीन प्रकार से संयत पाँचों इन्द्रियाँ नियन्त्रित की गई जीत ली गई है कषाय दर्शन और ज्ञान से जिदकसाओ [(ति) वि-(गुत्त) 1/1 वि] [(पंच) वि-(इंदिय)- (संवुड) भूकृ 1/1 अनि] [(जिद) भूकृ अनि(कसाअ) 1/1] [(दसण)-(णाण)(समग्ग) 1/1 वि] (समण) 1/1 (त) 1/1 सवि (संजद) 1/1 वि (भण) भूकृ 1/1 दंसणणाणसमग्गो समणो श्रमण वह संयमी संजदो भणिदो कहा गया अन्वय- पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ दंसणणाणसमग्गो सो समणो संजदो भणिदो। ____ अर्थ- (जो) (श्रमण) पाँच प्रकार से सावधान (है) अर्थात् सावधानी पूर्वक) पाँच (ईया, भाषा, एषणा आदि) समितियों का पालन करनेवाला है, तीन प्रकार से संयत (है) अर्थात् मन, वचन और काय के संयम के कारण तीन गुप्ति सहित है, (जिसके द्वारा) पाँचों (स्पर्शन, रसना आदि) इन्द्रियाँ नियंत्रित की गई (हैं), कषाय जीत ली गई (है) (तथा) (जो) दर्शन (शुद्धात्म-श्रद्धा) और ज्ञान (स्व-दृष्टि) से पूर्ण है, वह श्रमण संयमी कहा गया (है)। (50) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्टकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।। समसत्तुबंधुवग्गो समान, शत्रु और बंधुसमूह समान, सुख-दुख समसुहदुक्खो *पसंसर्णिदसमो समलोढुकंचणो [(सम) वि-(सत्तु )(बंधुवग्ग) 1/1] [(सम) वि-(सुह)(दुक्ख) 1/1] [(पसंसा)-(णिंदा)(सम) 1/1 वि] [(सम) वि-(लोह)(कंचण) 1/1 वि] अव्यय [(जीविद)-(मरण) 7/1] (सम) 1/1 वि (समण) 1/1 प्रशंसा-निंदा समान समान, मिट्टी का ढेला और सोना और जीवन-मरण में • पुण जीविदमरणे समो समान समणो श्रमण अन्वय-समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो समलोटुकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो। अर्थ- (जिसके लिए) शत्रु और बंधुसमूह समान (है), सुख-दुख समान (है), प्रशंसा-निंदा समान (है), मिट्टी का ढेला और सोना समान (है) और (जो) जीवन-मरण में समान (है) (वह) श्रमण (है)। समास में पसंसा' का पसंस' तथा 'णिंदा' का 'णिंद' किया गया है। (प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 21) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (51) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्टिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं।। दसणणाणचरित्तेसु [(दंसण)-(णाण) (चरित्त) 7/2] तीसु (ति) 7/2 वि अव्यय समुट्ठिदो (समुट्ठिद) भूक 1/1 अनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में तीनों में एक ही साथ । उचित प्रकार से. प्रयत्नशील जुगवं जो ही एयग्गगदो त्ति एकाग्रचित्त हुआ (ज) 1/1 सवि अव्यय [(एयग्गगदो)+ (इति)] [(एयग्ग) वि-(गद) भूकृ 1/1 अनि] इति (अ) = अतः (मद) भूकृ 1/1 अनि (सामण्ण) 1/1 (त) 6/1 सवि (पडुिण्ण) 1/1 वि अतः माना गया मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं श्रमणता उसके परिपूर्ण अन्वय- जो दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो दु एयग्गगदो त्ति मदो तस्स पडिपुण्णं सामण्णं । अर्थ- जो (श्रमण) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (इन) तीनों में एक ही साथ उचित प्रकार से प्रयत्नशील (है) (वह) ही (मोक्ष प्राप्त करने के लिए) एकाग्रचित्त हुआ माना गया (है) अतः उसके (ही) परिपूर्ण श्रमणता (है)। (52) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज। जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं।। वा मुज्झदि . (मुज्झ) व 3/1 अक मूर्च्छित होता है अव्यय विकल्प बोधक अव्यय रज्जदि (रज्ज) व 3/1 अक आसक्त होता है अव्यय विकल्प बोधक अव्यय दुस्सदि (दुस्स) व 3/1 सक द्वेष करता है अव्यय तथा दव्वमण्णमासेज्ज [(दव्वं)+ (अण्णं)+ (आसेज्ज)] दव्वं (दव्व) 2/1 द्रव्य को अण्णं (अण्ण) 2/1 वि आसेज्ज (आस) संकृ प्राप्त करके अव्यय यदि समणो (समण) 1/1 श्रमण अण्णाणी (अण्णाणि) 1/1 वि अज्ञानी (बज्झदि) व कर्म 3/1 अनि बाँधा जाता है (कम्म) 3/2 कर्मों से विविहेहिं (विविह) 3/2 वि अनेक प्रकार पर बज्झदि कम्मेहिं अन्वय- जदि समणो दव्वमण्णमासेज्ज मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा अण्णाणी विविहेहिं कम्मेहिं बज्झदि। अर्थ- यदि श्रमण पर द्रव्य को प्राप्त करके (उसमें) मूर्छित (आत्मविस्मृत) होता है, (उसमें) आसक्त होता है तथा (उससे) द्वेष करता है (तो) (वह) अज्ञानी (है) (और) (इसलिए) अनेक प्रकार के कर्मों से बाँधा जाता है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (53) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि । समणो जदि सोणियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ।। अट्ठेसु जो 1555 d मुज्झदि ण हि रज्जदि व दोसमुवयादि समणो दि सो णियदं खवेदि कम्माण विविहाणि (अट्ठ) 7/2 (ज) 1 / 1 सवि अव्यय (मुज्झ ) व 3/1 अक अव्यय (54) पदार्थों के मध्य जो कोई नहीं (खव) व 3 / 1 सक (कम्म) 2/2 (विविह) 2 / 2 वि मोहित होता है नहीं भी अव्यय (रज्ज) व 3 / 1 अक अव्यय [(दोसं) + (उवयादि)] द्वेष भाव दो (दोस) 2/1 उवयादि (उवया) व 3/1 सक रखता है (समण) 1 / 1 अव्यय (त) 1/1 सवि अव्यय आसक्त होता है नहीं श्रमण यदि वह आवश्यक रूप से क्षय करता है कर्मों को अनेक प्रकार के अन्वय- जदि जो समणो अट्ठेसु ण मुज्झदि ण रज्जदि णेव दोसमुवयादि हि सो णियदं विविहाणि कम्माणि खवेदि । अर्थ- यदि जो कोई श्रमण (पर) पदार्थों के मध्य मोहित नहीं होता है अर्थात् उनके मध्य आत्मविस्मरण किया हुआ नहीं रहता है (उनमें ) आसक्त नहीं होता है (तथा) (उनमें ) द्वेष भाव भी नहीं रखता है (तो) वह आवश्यकरूप से अनेक प्रकार के कर्मों का क्षय करता है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र - अधिकार Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि। तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा।। समणा श्रमण सुद्धवजुत्ता शुद्ध में संलग्न सुहोवजुत्ता शुभ में संलग्न होति (समण) 1/2 [(सुद्ध)+ (उवजुत्ता)] [(सुद्ध) वि-(उवजुत्त) भूकृ 1/2 अनि] [(सुह)+ (उवजुत्ता)] [(सुह) वि-(उवजुत्त) भूकृ 1/2 अनि] अव्यय (हो) व 3/2 अक (समय) 7/1 (त) 7/2 सवि अव्यय [(सुद्ध)+ (उवजुत्ता)] [(सुद्ध) वि-(उवजुत्त) भूक 1/2 अनि] (अणासव) 1/2 वि (सासव) 1/2 वि (सेस) 1/2 वि और होते हैं आगम में उनमें समयम्हि भी सुद्धवजुत्ता शुद्ध में संलग्न अणासवा सासवा सेसा कर्मास्रव-रहित कर्मास्रव-सहित बाकी अन्वय- समयम्हि समणा होंति सुद्धवजुत्ता य सुहोवजुत्ता तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सेसा सासवा। ___अर्थ- आगम में श्रमण (दो प्रकार के) होते हैं- शुद्ध में संलग्न अर्थात् शुद्धोपयोगी और शुभ में संलग्न अर्थात् शुभोपयोगी। उनमें भी (जो) (श्रमण) शुद्ध में संलग्न अर्थात् शुद्धोपयोगी (हैं) (वे) कर्मास्रव-रहित (होते हैं) (तथा) बाकी (जो श्रमण शुभ में संलग्न अर्थात् शुभोपयोगी हैं)(वे)कर्मास्रव-सहित(होते हैं)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (55) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु। विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया।। अरहंतादिसु [(अरहत)+(आदिसु)] [(अरहंत)-(आदि) 7/2] (भत्ति) 1/1 (वच्छलदा) 1/1 भत्ती अरहंतादि में भक्ति वात्सल्य भाव/ अनुराग भाव वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु विज्जदि जदि सामण्णे [(पवयण)+(अभिजुत्तेसु)] [(पवयण)-(अभिजुत्त) भूकृ 7/2 अनि] (विज्ज) व 3/1 अक अव्यय (सामण्ण) 7/1 (ता) 1/1 सवि [(सुह) वि-(जुत्ता) भूकृ 1/1अनि] (भव) व 3/1 अक (चरिया) 1/1 आगम-ज्ञान में संलग्न (श्रमणों) में होती है यदि श्रमण अवस्था में वह शुभ-युक्त/शुभोपयोगी पा सुहजुत्ता भवे चरिया होती है चर्या अन्वय- जदि सामण्णे अरहंतादिसु भत्ती विज्जदि पवयणाभिजुत्तेसु वच्छलदा सा चरिया सुहजुत्ता भवे। अर्थ- यदि श्रमण अवस्था में अरहंतादि में भक्ति होती है (और) आगम-ज्ञान में संलग्न (श्रमणों) में/के प्रति वात्सल्य भाव/अनुराग भाव (होता है) (तो) (श्रमण की) वह चर्या शुभ-युक्त/शुभोपयोगी होती है। (56) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। समणेसु समावणओ ण णिदिदा रायचरियम्हि।। स्तुति और नमन सहित वंदणणमंसणेहिं [(वंदण)-(णमंसण) 3/2] अब्भुट्ठाणाणुगमण- [(अब्भुट्ठाण)+(अणुगमणपडिवत्ती पडिवत्ती)] [(अब्भुट्ठाण)-(अणुगमण)- (पडिवत्ति) 1/2] सम्मान के लिए खड़े होना, पीछे-पीछे चलने की प्रवृत्तियाँ श्रमणों में समणेसु समावणओ (समण) 7/2 [(सम) + (अवणओ)] [(सम)-(अवणअ) 1/1] कष्टों का निराकरण करना नहीं अस्वीकृत सरागचारित्र अवस्था अव्यय (णिंद) भूकृ 1/2 [(राय)-(चरिया) 7/1] णिंदिदा रायचरियम्हि' अन्वय- समणेसु समावणओ वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती रायचरियम्हि ण जिंदिदा। अर्थ- श्रमणों में (विद्यमान) कष्टों का निराकरण करना, स्तुति और नमन सहित (उनके आगमन पर) सम्मान के लिए खड़े होना, (उनके जाने पर) उनके पीछे-पीछे चलना-(ये सब) प्रवृत्तियाँ (शुभोपयोगी श्रमण की) सरागचारित्र अवस्था में अस्वीकृत नहीं (है)। 1. कभी-कभी ‘आकारान्त' शब्दों के रूप तृतीया और पंचमी को छोड़कर 'अकारान्त' की . तरह चल जाते हैं। अभिनव प्राकृत व्याकरणः पृष्ठ 154 प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (57) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. दसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य॥ . दंसणणाणुवदेसो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान का जन-शिक्षण शिष्यों का ग्रहण सिस्सग्गहणं और पोसणं [(दसणणाण)+(उवदेसो)] [(दसण)-(णाण)(उवदेस) 1/1] [(सिस्स)-(ग्गहण) 1/1] अव्यय (पोषण) 1/1 (त) 6/2 सवि (चरिया) 1/1 अव्यय (सराग) 6/2 वि तेसिं चरिया विकास/पुष्टि उनका चर्या निश्चय ही सरागों (शुभोपयोगी श्रमणों) की सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो [(जिणिंदपूजा)+(उवदेसो)] [(जिणिंद)-(पूजा)(उवदेस) 1/1] अव्यय जिनेन्द्र देव की पूजा/ भक्ति का उपदेश तथा अन्वय- सणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च तेसिं पोसणं य जिणिंदपूजोवदेसो सरागाणं हि चरिया। अर्थ- सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान का जन-शिक्षण, शिष्यों का ग्रहण और उनका विकास/पुष्टि (करना) तथा जिनेन्द्र देव की पूजा/भक्ति का (सर्वोपयोगी) उपदेश-(ये सब) सरागों (शुभोपयोगी श्रमणों) की निश्चय ही चर्या है। (58) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स । कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ।। उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स कायविराधणरहिदं' सो वि # गप्पधाण 1. ( उवकुण) व 3 / 1 सक (ज) 1/1 सवि अव्यय अव्यय ( चादुव्वण्ण) 6 / 1 - 2 / 1 वि 1 [ ( समण) - (संघ) 6/1 - 2 / [(काय) - (विराधण) - ( रहिद ) 2 / 1 वि] (त) 1 / 1 सवि अव्यय [ ( सराग) वि - ( प्पधाण ) 1/1 fa] अव्यय ] उपकृत करता है जो ही सदैव चार प्रकार के श्रमण संघ को छ काय के जीवों की पीड़ा के बिना अन्वय- चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स जो णिच्वं कायविराधणरहिदं उवकुणदि सो सरागप्पधाणो विवि से । अर्थ- चार प्रकार के श्रमण संघ को जो सदैव छ काय के जीवों की पीड़ा बिना उपकृत करता है, वह राग सहित चर्या में मुख्य (सर्वोत्तम) (होकर) भी - (शुभोपयोगी) ही है। प्रवचनसार ( खण्ड - 3) चारित्र अधिकार वह भी राग-सहित चर्या में मुख्य वाक्य का उपन्यास 'बिना ' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। (59) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से।। जदि कुणदि अव्यय (कुण) व 3/1 सक [(काय)-(खेद) 2/1] यदि करता है षट्काय जीवों में कायखेदं श्रमण धम्मो . वेज्जावच्चत्थमुज्जदो [(वेज्जावच्चत्थं)+(उज्जदो)] वेज्जावच्चत्थं (अ) = वैयावृत्ति के लिए उज्जदो(उज्जद) भूक 1/1अनि लगा हुआ समणो (समण) 1/1 अव्यय नहीं हवदि (हव) व 3/1 अक होता है हवदि (हव) व 3/1 अक होता है अगारी (अगारि) 1/1 वि गृहस्थ (धम्म) 1/1 जीवन-पद्धति (त) 1/1 सवि वह सावयाणं (सावय) 6/2 श्रावकों की अव्यय वाक्य का उपन्यास अन्वय- वेज्जावच्चत्थमुज्जदो जदि कायखेदं कुणदि समणो ण हवदि अगारी हवदि सो सावयाणं धम्मो से। अर्थ-(अन्य श्रमणों की) वैयावृत्ति के लिए लगा हुआ (जो) (शुभोपयोगी श्रमण है) (वह) यदि षट्काय जीवों में दुख (उत्पन्न) करता है (तो) (वह) श्रमण नहीं है गृहस्थ है (क्योंकि) वह श्रावकों (गृहस्थों) की (जीवों को दुख देने की) (विवशता पूर्ण) जीवन-पद्धति (है)। 1. 'अत्थं' अव्यय का प्रयोग के लिए' अर्थ में होता है। (60) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं। अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो।। जोण्हाणं (जोण्ह) 6/2 वि जिन मार्गानुयायियों का णिरवेक्खं (णिरवेक्ख) 2/1 वि अपेक्षा-रहित सागारणगारचरिय- [(सागार) वि-(अणगार) वि- गृहस्थ और श्रमणों जुत्ताणं (चरिया)-(जुत्त) की चर्या से युक्त भूक 6/2 अनि] अणुकंपयोवयारं [(अणुकंपया)+(उवयारं)] अणुकंपया(अणुकंपया)3/1 अनि अनुकंपापूर्वक तृतीयार्थक अव्यय उवयारं (उवयार) 2/1 उपकार कुव्वदु (कुव्व) विधि 3/1 सक करे (लेव) 1/1 कर्मलेप जदि अव्यय यदि अव्यय (अप्प) 1/1 वि लेवो अप्पो थोड़ा अन्वय- सागारणगारचरियजुत्ताणं जोण्हाणं णिरवेक्खं अणुकंपयोवयारं कुव्वदु जदि अप्पो वि लेवो। अर्थ- (शुभोपयोगी श्रमण) गृहस्थ और श्रमणों की चर्या से युक्त जिन मार्गानुयायियों (गृहस्थ और श्रमणों) का अपेक्षा-रहित अनुकंपापूर्वक उपकार करे, यदि थोड़ा भी कर्मलेप (होता है) (तो भी) (करे)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (61) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52. रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं। दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जदु आदसत्तीए।। रोगेण वा छुधाए (रोग) 3/1 अव्यय (छुधा) 3/1 (तण्हा) 3/1 अव्यय (सम) 3/1 तण्हाए वा समेण अव्यय रोग से अथवा भूख से प्यास से अथवा कष्ट से अथवा लदे हुए देखकर श्रमण को श्रमण अंगीकार करे अपनी शक्तिपूर्वक दिहा समणं श्रम साहू पडिवज्जदु आदसत्तीए (रूढ) भूक 2/1 अनि (दिट्ठा) संकृ अनि (समण) 2/1 (साहु) 1/1 (पडिवज्ज) विधि 3/1 सक (आदसत्तीए) 3/1 तृतीयार्थक अव्यय अन्वय- साहू रोगेण वा छुधाए वा तण्हाए वा समेण रूढं समणं दिट्ठा आदसत्तीए पडिवज्जदु। __अर्थ- (शुभोपयोगी) श्रमण रोग से अथवा भूख से अथवा प्यास से अथवा कष्ट से लदे हुए (पीड़ित) श्रमण को देखकर अपनी शक्तिपूर्वक (सहायता करने के लिए उनको) अंगीकार करे। (62) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं। लोगिगजणसंभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा।। वेज्जावच्चणिमित्तं [(वेज्जावच्च)- वैयावृत्ति के निमित्त (णिमित्त) 1/1] गिलाणगुरुबालवुड्ड- [(गिलाण) वि-(गुरु)-(बाल)- रोगी, पूज्य, बाल समणाणं (वुड्ढ) वि-(समण) 6/2] और वृद्ध श्रमणों की लोगिगजणसंभासा [(लोगिग) वि-(जण)- सांसारिक व्यक्तियों से (संभासा) 1/1] वार्तालाप अव्यय नहीं प्रिंदिदा (णिंदिदा) भूकृ 1/1 अस्वीकृत अव्यय पादपूरक सुहोवजुदा [(सुह)+(उवजुदा)] [(सुह) वि-(उवजुदा) शुभ और उचित भूक 1/1 अनि अन्वय- गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं वेज्जावच्चणिमित्तं लोगिगजणसंभासा सुहोवजुदा वा ण णिदिदा। अर्थ- रोगी, पूज्य, बाल (आयु में छोटे), वृद्ध (आयु में बड़े) श्रमणों की वैयावृत्ति के निमित्त सांसारिक व्यक्तियों से शुभ और उचित वार्तालाप (श्रमणों के लिए) अस्वीकृत नहीं (है)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (63) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं। चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं।। यह एसा पसत्थभूदा प्रशंसनीय हुई/बनी समणाणं श्रमणों के लिए पादपूरक वा पुणो और घरत्थाणं चरिया परेत्ति गृहस्थों के लिए चर्या (एता) 1/1 सवि [(पसत्थ) वि-(भूदा) भूकृ 1/1] (समण) 4/2 अव्यय अव्यय (घरत्थ) 4/2 (चरिया) 1/1 [(परा)+ (इति)] परा (परा) 1/1 वि इति (अ) = क्योंकि (भण) भूकृ 1/1 ता (अ) = उससे एव (अ) = ही (पर) 2/1 वि (लह) व 3/1 सक (सोक्ख) 2/1 भणिदा ताएव उत्कृष्ट क्योंकि कही गई उससे ही उत्कृष्ट प्राप्त करता है लहदि सोक्खं सुख को अन्वय- समणाणं एसा चरिया पसत्थभूदा वा पुणो घरत्थाणं परेत्ति भणिदा ताएव परं सोक्खं लहदि। अर्थ- श्रमणों के लिए यह (शुभोपयोगी) चर्या प्रशंसनीय हुई/बनी (है) और गृहस्थों के लिए (यह शुभोपयोगी चर्या) उत्कृष्ट कही गई (है) क्योंकि (गृहस्थ) उससे (उस चर्या से) ही उत्कृष्ट सुख को प्राप्त करता है। (64) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55. रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं। णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि।। . (राग) राग . प्रशंसनीय हुआ पदार्थ भेद के कारण फल उत्पन्न करता है फलदि विपरीत रागो (राग) 1/1 पसत्थभूदो [(पसत्थ) वि-(भूद) भूक 1/1] वत्थुविसेसेण [(वत्थु)-(विसेस) 3/1] (फल) व 3/1 सक विवरीदं (विवरीद) 2/1 वि णाणाभूमिगदाणिह [(णाणाभूमिगदाणि)-(ह)] [(णाणा) वि-(भूमि)(गद) भूकृ 1/2 अनि] ह (अ) = बीजाणिव [(बीजाणि)-(व)] (बीज) 1/2 व (अ) = जैसे कि सस्सकालम्हि [(सस्स)-(काल) 7/1] नाना प्रकार की भूमि में बोये गये पादपूरक बीज जैसे कि खेती के समय में अन्वय- रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण विवरीदं फलदि बीजाणिव सस्सकालम्हि णाणाभूमिगदाणिह। अर्थ- (यद्यपि) (शुभोपयोगी) राग प्रशंसनीय हुआ (है), (तो भी) पदार्थ भेद के कारण (राग) विपरीत फल (भी) (उसी प्रकार) उत्पन्न करता है जैसे कि बीज (जो) खेती के समय में नाना प्रकार की (उपजाऊ-अनुपजाऊ) भूमि में बोये गये (हैं) (और) (फल को उत्पन्न करते हैं।) नोटः संपादक द्वारा अनूदित प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (65) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो । ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि । । छदुमत्थविहिद वत्थुसु ( वत्थु ) 7/2-3/2] वदणियमज्झयण- [ ( वदणियम ) + (अज्झयण झाणदाणरदो' ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि [(छदुमत्थ) वि(विहिद) भूक अनि 1. (66) झाणदाणरद)] [(वद) - (णियम ) - (अज्झयण ) - व्रत, नियम, अध्ययन ध्यान और दान में संलग्न नहीं (झाण) - (दाण) - (रद ) भूक 1 / 1 अनि ] अव्यय (लह) व 3 / 1 सक ( अपुणब्भाव ) 2 / 1 अल्पज्ञानियों द्वारा स्थिर की हुई योजना के कारण अन्वय - छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो अपुणभावं ण लहदि सादप्पगं भावं लहदि । अर्थ- अल्पज्ञानियों द्वारा स्थिर की हुई योजना के कारण (जो ) व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान और दान में संलग्न ( है ) ( वह) मोक्ष को प्राप्त नहीं करता ( है ) (किन्तु ) ( सांसारिक) सुखात्मक अवस्था को प्राप्त करता है । प्राप्त करता है मोक्ष को (भाव) 2 / 1 अवस्था को [ ( साद) - (अप्पग) 2 / 1 वि] सुखात्मक (लह) व 3 / 1 सक प्राप्त करता है संधि नियम 8.1 (प्राकृत - व्याकरण, पृष्ठ 8 ) प्रवचनसार (खण्ड- 3) चारित्र - अधिकार. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57. अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु। जुटुं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु॥ और अविदिदपरमत्थेसु [(अविदिद) भूकृ- ज्ञानशून्य (परमत्थ) 7/2] आत्मस्वरूप में य अव्यय विसयकसायाधिगेसु [(विसयकसाय)+(अधिगेसु)] [(विसय)-(कसाय)- विषयकषायों की (अधिग) 7/2-2/2 वि] अधिकतावाले पुरिसेसु (पुरिस) 7/2-2/2 मनुष्यों को (जुट्ठ) 1/1 वि की गई सेवा (कद) 1/1 अव्यय (दत्त) भूक 1/1 अनि दिया गया फलदि (फल) व 3/1 अक फलित होती है कुदेवेसु (कुदेव) 7/2 कुदेवों में मणुवेसु (मणुव) 7/2 कुमनुष्यों में . लाभ अथवा A. 4 __ अन्वय- अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु दत्तं कदं जुटुं कुदेवेसु व मणुवेसु फलदि। अर्थ- आत्मस्वरूप में ज्ञानशून्य और विषयकषायों की अधिकतावाले मनुष्यों को (कई प्रकार से) दिया गया लाभ, तथा (उनकी) की गई सेवा कुदेवों में अथवा कुमनुष्यों में फलित होती है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (67) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58. जदि ते विससाया पावत्ति रूविदा व सत्थेसु किह जदि ते विसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु । किह ते तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होंति ।। तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होंति' 1. (68) अव्यय (त) 1/2 सवि [ ( विसय) - ( कसाय) 1/2] [ ( पावा) + (इति)] पावा (पाव) 1/2 इति (अ) = (परूव) भूक 1/2 अव्यय ( सत्थ) 7/2 अव्यय (त) 1/2 सवि [(त) सवि - ( प्पडिबद्ध) भूक 1/2 अनि ] (पुरिस) 1/2 ( णित्थारग) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक अगर वे विषय - कषायें पाप शब्दस्वरूपद्योतक कही गई पादपूरक शास्त्रों में कैसे वे उनसे बँधे हुए अन्वय- जदि ते विसयकसाया सत्थेसु पाव त्ति परूविदा तप्पडिबद्धा व ते पुरिसा किह णित्थारगा होंति । अर्थ - अगर वे (प्रख्यात) विषय - कषायें शास्त्रों में पाप कही गई हैं (तो) उन (विषय- कषायों) से बँधे हुए वे पुरुष (आवागमनात्मक संसार से ) कैसे तारनेवाले होंगे? प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। पुरुष तारनेवाले होते हैं प्रवचनसार ( खण्ड - 3) चारित्र अधिकार - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59. उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु। गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स।। उवरदपावो (उवरदपाव) 1/1 वि पाप से रहित पुरिसो (पुरिस) 1/1 पुरुष समभावो । (समभाव) 1/1 वि एकसा भाव रखनेवाला धम्मिगेसु (धम्मिग) 7/2 वि धर्मवत्सलों में सव्वेसु (सव्व) 7/2 सवि सभी गुणसमिदिदोवसेवी [(गुणसमिदिदो)+ (अव) + (सेवी)] [(गुण)-(समिदि)' 5/1] गुण-समूह के कारण अव (अ) = निरर्थक प्रयोग सेवी (सेवि) 1/1 वि अभ्यासी (हव) व 3/1 अक होता है (त) 1/1 सवि वह भागी (भागि) 1/1 वि भागीदार/भाजन सुमग्गस्स (सुमग्ग) 6/1 श्रेष्ठ मार्ग का अन्वय- पुरिसो उवरदपावो सव्वेसु धम्मिगेसु समभावो गुणसमिदिदोवसेवी सुमग्गस्स स भागी हवदि। अर्थ- (जो) पुरुष पाप से रहित (है), सभी धर्मवत्सलों में एकसा भाव रखनेवाला (है) (तथा) (जो) (धारण किये हुए) गुण-समूह के कारण श्रेष्ठ मार्ग का अभ्यासी (है) वह (मोक्ष का) भागीदार/भाजन है। 1. 2. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु समिदी' का समिदि' किया गया है। यहाँ अव' अव्यय का निरर्थक प्रयोग हुआ है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (69) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60. असुभोवयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा। णित्थारयंति लोग तेसु पसत्थं लहदि भत्तो।। असुभोवयोगरहिदा [(असुभ) + (उवयोगरहिदा)] अशुभ उपयोग से [(असुभ) वि-(उवयोग)- मुक्त (रहिद) भूकृ 1/2 अनि] सुद्धवजुत्ता [(सुद्ध)+ (उवजुत्ता)] शुद्ध में संलग्न [(सुद्ध)-(उवजुत्त) भूकृ 1/2 अनि सुहोवजुत्ता [(सुद्ध)+(उवजुत्ता)] शुभ में संलग्न [(सुह)-(उवजुत्त) भूकृ 1/2 अनि] अव्यय अथवा णित्थारयंति (णित्थारय) व 3/2 सक पार उतारते हैं 'य' विकरण (लोग) 2/1 मनुष्य-समूह को (त) 7/2 सवि उनमें पसत्थं (पसत्थ) 2/1 वि सर्वोत्तम लहदि (लह) व 3/1 सक प्राप्त करता है भत्तो (भत्त) भूकृ 1/1 अनि श्रद्धालु/अनुरक्त लोगं अन्वय- असुभोवयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता वा सुहोवजुत्ता लोगं णित्थारयंति तेस भत्तो पसत्थं लहदि । - अर्थ- अशुभ उपयोग से मुक्त (श्रमण) (जो) शुद्ध में संलग्न अथवा शुभ में संलग्न (हैं) (वे) मनुष्य-समूह को (संसार रूपी सागर से) पार उतारते हैं। उन (श्रमणों) में (जो) श्रद्धालु/अनुरक्त (है) (वह) सर्वोत्तम (अवस्था) को प्राप्त करता है। (70) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61. ट्ठिा पगदं वत्थु अब्भुट्टाणप्पधाणकिरियाहिं। वट्टदु तदो गुणादो विसेसिदव्यो त्ति उवदेसो।। वत्थु वा इसलिए (दिट्ठा) संकृ अनि देखकर पगदं (पगद) 2/1 वि प्राकृतिक (वत्थु) 2/1 अवस्था को अब्भुट्टाणप्पधाण- [(अब्भुट्ठाण)-(प्पधाण) वि- सम्मान के लिए खड़े किरियाहिं (किरिया) 3/2] होना आदि प्रधान क्रियाओं से (वट्ट) विधि 3/1 सक आदर करो अव्यय गुणादो (गुण) 5/2 गुणों के कारण विसेसिदव्वो त्ति [(विसेसिदव्वो)+(इति)] विसेसिदव्वो (विसेस) विशेष किया जाना विधिकृ 1/1 इति (अ) = ऐसा ऐसा उवदेसो (उवदेस) 1/1 उपदेश अन्वय- उवदेसो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति तदो पगदं वत्थु दिट्ठा अब्मुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं वट्टदु। ____ अर्थ- ऐसा उपदेश हैः (विद्यमान) गुणों के कारण विशेष (व्यवहार) किया जाना चाहिये, इसलिए (श्रमण की) प्राकृतिक अवस्था (यथाजातरूप) को देखकर सम्मान के लिए खड़े होना आदि प्रधान क्रियाओं से (उनका) आदर करो। चाहिए प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (71) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. अब्भुट्टाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कार। अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि।। अब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह (अब्भुट्ठाण) 1/1 सम्मान में खडे होना (गहण) 1/1 अपनाना (उवासण)1/1 सेवा में उपस्थित रहना (पोसण) 1/1 पोषण . अव्यय तथा (सक्कार) 1/1 देखभाल (अंजलिकरण) 1/1 हाथ जोड़ना (पणाम) 1/1 साष्टांग प्रणाम [(भणिदं)+ (इह)] भणिदं (भण) भूकृ 1/1 कहा गया इह (अ) = इस लोक में इस लोक में [(गुण)+(अधिगाणं)] [(गुण)-(अधिग) 4/2 वि] गुणों में विशिष्ट (श्रमणों) के लिए अव्यय पादपूरक गुणाधिगाणं अन्वय- भणिदमिह गुणाधिगाणं अब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं सक्कारं अंजलिकरणं हि च पणमं। ___ अर्थ- इस लोक में (यह) कहा गया हैः गुणों में विशिष्ट (श्रमणों) के लिए (उनके आने पर) सम्मान में खड़े होना, (उनको) (श्रद्धापूर्वक) अपनाना, (उनकी) सेवा में उपस्थित रहना, (आहारादि देकर) (उनका) पोषण, (उनकी) देखभाल, (उनके उपस्थित होने पर) हाथ जोड़ना तथा (उनके प्रति) साष्टांग प्रणाम-(यह सब करने योग्य है)। कोश में पणाम' शब्द पुलिंग दिया गया है, किन्त यहाँ पणाम' शब्द का प्रयोग नपुंसकलिंग में किया गया है। (72) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63. अब्भुट्टेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया। संजमतवणाणड्डा पणिवदणीया हि समणेहिं।। समणा अब्भुट्टेया (अब्भुट्टेय) विधिक 1/2 अनि खड़े होकर सम्मान किये जाने योग्य (समण) 1/2 श्रमण सुत्तत्थविसारदा [(सुत्तत्थ)-(विसारद)1/2 वि] सूत्रों के अर्थ में प्रवीण उवासेया (उवासेय) विधिक 1/2 अनि सेवा किये जाने योग्य संजमतवणाणड्ढा [(संजम)-(तव)- संयम, तप और (णाणड्ड) 1/2 वि] ज्ञान में सम्पन्न पणिवदणीया (पणिवद) विधिक 1/2 प्रणाम किये जाने योग्य हि . अव्यय निश्चय ही समणेहि (समण) 3/2 श्रमणों द्वारा अन्वय- समणा अब्भुट्ठया सुत्तत्थविसारदा उवासेया संजमतवणाणड्डा हि समणेहिं पणिवदणीया। ... अर्थ- (जो) श्रमण खड़े होकर सम्मान किये जाने योग्य (है), सूत्रों के अर्थ में प्रवीण (है), सेवा किये जाने योग्य (है), संयम, तप और ज्ञान में सम्पन्न (है), (वह) निश्चय ही (अन्य) श्रमणों द्वारा (भी) प्रणाम किये जाने योग्य (होता है)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (73) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे।। होता है श्रमण ऐसा मदो माना है संयम, तप और आगमः (ज्ञान) से युक्त अव्यय हवदि (हव) व 3/1 अक समणो त्ति [(समणो)+ (इति)] समणो (समण) 1/1 इति (अ) = ऐसा (मद) भूकृ 1/1 अनि संजमतवसुत्तसंपजुत्तो [(संजम)-(तव)-(सुत्त)-- (संपजुत्त) 1/1 वि] अव्यय जदि सद्दहदि (सद्दह) व 3/1 सक अव्यय (अत्थ) 2/2 आदपधाणे [(आद)-(पधाण) 2/2 वि] जिणक्खादे [(जिण)+(अक्खादे)] [(जिण)-(अक्खा) भूक 2/2] अव्यय यदि श्रद्धा करता है नहीं पदार्थों की आत्मप्रधान अत्थे जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित अन्वय- संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि जदि जिणक्खादे आदपधाणे अत्थे ण सद्दहदि समणो त्ति ण हवदि मदो। . अर्थ- (जो) संयम, तप और आगम (ज्ञान) से युक्त (होकर) भी यदि जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित आत्मप्रधान पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता है (तो) (वह) श्रमण नहीं है ऐसा (आगम ने) माना है। 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है (74) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. अववददि सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि। किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्ठचारित्तो।। अववददि. सासणत्थं (अववद) व 3/1 सक (सासणत्थ) 2/1 वि निंदा/विरोध करता है जिनशासन में दृढ़तापूर्वक लगे हुए श्रमण को समणं दिय पदोसदो देखकर द्वेष से/पूर्वक पादपूरक क्रियाओं को किरियासु णाणुमण्णदि (समण) 2/1 (दिट्ठा) संकृ अनि (पदोस) (अव्यय) पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय (ज) 1/1 सवि अव्यय : (किरिया) 7/2+2/2 [(ण)+(अणुमण्णदि)] ण (अ) = नहीं अणुमण्णदि (अणुमण्ण) व 3/1 सक (हव) व 3/1 अक अव्यय (त) 1/1 सवि : (णठ्ठचारित्त) 1/1 वि नहीं स्वीकृति देता है हवदि . होता है निश्चय ही वह क्षीण चारित्रवाला णठ्ठचारित्तो __ अन्वय- जो सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो अववदर्द हि किरियासु णाणुमण्णदि सो हि णट्ठचारित्तो हवदि।। . अर्थ- जो (कोई श्रमण) जिनशासन में दृढ़तापूर्वक लगे हुए श्रमण को देखकर द्वेष से/पूर्वक निंदा/विरोध करता है (और) (पूर्वोक्त सम्मान में खड़े होना आदि) क्रियाओं को स्वीकृति नहीं देता है (तो) वह निश्चय ही क्षीण चारित्रवाला होता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणयं आदर 66. गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति। होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी।। गुणदोधिगस्स [(गुणदो)+(अधिगस्स)] गुणदो' (गुण) 5/1 गुणों के कारण अधिगस्स (अधिग) विशिष्ट से 6/1+3/1 वि (विणय) 2/1 पडिच्छदि (पडिच्छ) व 3/1 सक चाहता है (ज) 1/1 सवि अव्यय होमि (हो) व 1/1 अक समणो त्ति [(समणो)+ (इति)] समणो (समण) 1/1 इति (अ) = पादपूरक होज्ज (हो) व 3/1 अक होता है [(गुण)-(अधर) 1/1 वि] गुणों को धारण करनेवाला नहीं जदि यदि सो (त) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक होता है अणंतसंसारी [(अणंत) वि-(संसारि) __1/1 वि] परिभ्रमण करनेवाला श्रमण गुणाधरो अव्यय वह होदि अनन्त संसार में अन्वय- जो समणो त्ति गुणाधरो होज्जं वि होमि जदि गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो सो अणंतसंसारी होदि। ___ अर्थ- जो (कोई) श्रमण (श्रमणोचित) गुणों को धारण करनेवाला नहीं होता है (तो) भी (यह कहकर कि) 'मैं श्रमण हूँ' यदि (वह) गुणों के कारण विशिष्ट (श्रमण) से आदर चाहता है (तो) वह अनन्त संसार में परिभ्रमण करनेवाला होता है। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘गुणादो' का 'गुणदो' किया गया है। 2. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) यहाँ अनुस्वार का आगम हुआ है। यहाँ पाठ पडिच्छदि होना चाहिये। (76) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67. अधिगगुणा सामण्णे वट्टेति गुणाधरेहिं किरियासु । जदि ते मिच्छुवजुत्ता हवंति पब्भट्टचारित्ता ।। अधिगगुणा सामण्णे व ंति गुणाधरेहिं किरिया दि ते मिच्छुवजुत्ता हवंति पब्भट्ठचारित्ता {[(अधिग) वि-(गुण) 1 /2] वि} ( सामण्ण) 7/1 (वट्ट) व 3/2 सक [ ( गुण) - (अधर) 3 / 2 वि] (fanften) 7/2 अव्यय (त) 1/2 सवि (मिच्छुवत्त) 1/2 वि (हव) व 3/2 अक {[(पब्भट्ठ) वि-(चारित) 1/2] fa} विशिष्ट गुणवाले श्रमणता में प्रवृत्ति हैं गुणहीनों के साथ चर्या में यदि प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र - अधिकार वे अश्रद्धा से युक्त होते हैं हीन चारित्र वाले अन्वय- जदि सामण्णे अधिगगुणा गुणाधरेहिं किरियासु वट्टेति ते मिच्छुवजुत्ता पब्भट्टचारित्ता हवंति । अर्थ - यदि श्रमणता में विशिष्ट गुणवाले (साधु) गुणहीणों के साथ ( श्रमण) चर्या में प्रवृत्ति करते हैं (तो) वे (जिनशासन में) अश्रद्धा से युक्त हीन चारित्र वाले होते हैं। (77) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68. णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि। लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि।। कषाय णिच्छिदसुत्तत्थपदो [(णिच्छिदसुत्त)+(अत्थपदो)] [(णिच्छिद) भूकृ-(सुत्त)- समझ लिया गया है (अत्थपद) 1/1] सिद्धान्त का सार/मर्म समिदकसाओ [(समिद) भूक - नियंत्रित की गई है (कसाअ) 1/1] तवोधिगो [(तव)+(ओ)+(अधिग)] तवोधिगो [(तव)-(ओ) अ-(अधिग) आश्चर्य है! तप में 1/1 वि] विशिष्ट चावि अव्यय तो भी लोगिगजणसंसगं [(लोगिग) वि-(जण)- लौकिक मनुष्यों से (संसग्ग) 2/1] मेल-जोल अव्यय चयदि (चय) व 3/1 सक छोड़ता है अव्यय यदि संजदो (संजद) भूकृ 1/1 अनि संयमी अव्यय नहीं हवदि (हव) व 3/1अक होता है नहीं जदि ण अन्वय- णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि जदि लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि संजदो ण हवदि। अर्थ- (जिसके द्वारा) सिद्धान्त का सार/मर्म समझ लिया गया है (तथा) कषाय नियंत्रित की गई है (और) (जो) तप में विशिष्ट है तो भी आश्चर्य है! यदि (वह) लौकिक मनुष्यों से मेल-जोल नहीं छोड़ता है (तो) (वह) संयमी नहीं होता है/हो सकता है। (78) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69. णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहि। सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंजुदो चावि।। श्रमण णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि (णिग्गंथ) 1/1 (पव्वइद) 1/1 वि (वट्ट) व 3/1 सक अव्यय (एहिग) 3/2-7/2 वि दीक्षा ग्रहण किया हुआ प्रवृत्ति करता है जदि यदि 1144! 1.6 एहिगेहि इस लोक संबंधी/ सांसारिक क्रियाओं में वह कम्मेहिं 'लोगिगो त्ति (कम्म) 3/2-7/2 (त) 1/1 सवि [(लोगिगो)+ (इति)] लोगिगो (लोगिग) 1/1 वि इति (अ) = (भण) भूक 1/1 [(संजम)-(तव)(संजुद) भूकृ 1/1 अनि] अव्यय भणिदो संजमतवसंजुदो लौकिक शब्दस्वरूपद्योतक कहा गया आत्मनियंत्रण और तप से युक्त यद्यपि चावि . . अन्वय- पव्वइदो णिग्गंथो जदि एहिगेहि कम्मेहिं वट्टदि सो लोगिगो त्ति भणिदो चावि संजमतवसंजुदो। ___ अर्थ- दीक्षा ग्रहण किया हुआ श्रमण यदि इस लोक संबंधी/सांसारिक क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है (तो) वह लौकिक कहा गया है यद्यपि (वह) आत्मनियंत्रण और तप से युक्त (होता है)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (79) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70. तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं। अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोखं।। तम्हा समं गुणादो समणो समणं श्रमण गुणेहि अहियं अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि अव्यय इसलिए अव्यय एकसमान (गुण) 5/2 गुणों से (समण) 1/1 श्रमण (समण) 2/1-1/1 (गुण) 3/2-5/2 गुणों से अव्यय अथवा अव्यय ज्यादा (अधिवस) विधि 3/1 अक रहे। (त) 7/1 सवि वहाँ पर अव्यय सदैव (इच्छ) व 3/1 सक चाहता है अव्यय (दुक्ख)-(परिमोक्ख) 2/1] दुखों से मुक्ति जदि यदि दुक्खपरिमोक्खं अन्वय- तम्हा जदि समणो दुक्खपरिमोक्खं इच्छदि णिच्वं गुणादो समं वा गुणेहिं अहियं समणं तम्हि अधिवसदु। अर्थ- इसलिए यदि श्रमण दुखों से मुक्ति चाहता है (तो) (वह) सदैव (अपने) गुणों से एकसमान अथवा (अपने) गुणों से ज्यादा (गुणवाला) श्रमण (जहाँ रहता है) वहाँ पर (ही) रहे। 1. जिससे किसी वस्तु या व्यक्ति की तुलना की जाए, उसमें पंचमी होती है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 44) प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 32) पंचमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी तृतीया विभक्ति होती है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 44) संपादक द्वारा अनूदित नोटः (80) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71. जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये। अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो. परं कालं।। पदार्थ (ज) 1/2 सवि अजधागहिदत्था [(अजधागहिद)+(अत्था)] [(अजधा) अ-(गहिद) संकृ- अनुपयुक्त रूप से (अत्थ) 2/2] पदार्थों को स्वीकार करके (एत) 1/2 सवि तच्च त्ति [(तच्चा)+ (इति)] तच्चा (तच्च) 1/2 इति (अ) = इस प्रकार ही इस प्रकार ही णिच्छिदा - (णिच्छिद) भूकृ 1/2 अनि । निर्धारित किये गये समये (समय) 7/1 जिन-सिद्धान्त में अच्वंतफलसमिद्धं [(अच्चंत) वि-(फल)- अत्यन्त (दुखरूप)फल (समिद्ध)भूक 2/177/2 अनि] से भरे हुए (संसार) में भमंति (भम) व 3/2 सक परिभ्रमण करते हैं (त) 1/2 सवि अव्यय (पर) 2/1 वि अनन्त (काल) 2/1 काल तक अन्वय-जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति समये णिच्छिदा तो ते अच्चंतफलसमिद्धं परं कालं भमंति। अर्थ- जो पदार्थों को अनुपयुक्त रूप से स्वीकार करके (कहता है) (कि) ये पदार्थ जिन-सिद्धान्त में इस प्रकार ही निर्धारित किये गये हैं) तो वे अत्यन्त(दुखरूप) फल से भरे हुए(संसार) में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते हैं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) यहाँ परं' द्वितीया विभक्ति में रखा गया है तथा 'कालं' भी द्वितीया विभक्ति में है। (यह प्रयोग उस समय होता है जब निरन्तरता हो समाप्ति नहीं)। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 33) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (81) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72. अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदों पसंतप्या। ___ अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो।। अफले अजधाचारविजुत्तो [(अजधाचार) वि- अशुद्ध आचार से (विजुत्त) भूकृ 1/1 अनि] रहित जधत्थपदणिच्छिदो [(जधत्थ) वि-(पद)- वास्तविक पदार्थ का (णिच्छिद) भूकृ 1/1 अनि] निश्चय कर लिया गया पसंतप्पा [(पसंत)+ (अप्पा)] [(पसंत) वि-(अप्प) 1/1] शान्त आत्मा (अफल) 7/1 वि निरर्थक में अव्यय दीर्घकाल तक अव्यय नहीं जीवदि (जीव) व 3/1 अक जीता/ठहरता है अव्यय इस संसार में (त) 1/1 सवि वह संपुण्णसामण्णो [(संपुण्ण) भूकृ अनि- पूरी कर ली गयी है। (सामण्ण) 1/1] श्रमणता विरं अन्वय- अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा संपुण्णसामण्णो सो इह अफले चिरं ण जीवदि । अर्थ- (जो) अशुद्ध आचार से रहित है (जिसके द्वारा) वास्तविक पदार्थ का निश्चय कर लिया गया (है) (तथा) (जिसकी) आत्मा शान्त (व्याकुलता-रहित) (है) (तथा) (जिसके द्वारा) श्रमणता (श्रमण-साधना) पूरी कर ली गई (है) वह इस निरर्थक संसार में दीर्घकाल तक नहीं जीता/ठहरता है (ठहरेगा)। 1. कोश में 'सामण्ण' शब्द नपुंसकलिंग दिया गया है, किन्त यहाँ 'सामण्ण' शब्द का प्रयोग पुलिंग में किया गया है। (82) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73. सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं। विसयेसु णावसत्ता जे ते शुद्ध त्ति णिहिट्ठा।। सम्म विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं विसयेसु (शा अव्यय सम्यक् प्रकार से [(विदिद) भूकृ जान लिये गये हैं। (पदत्थ) 1/2] पदार्थ (चत्त) भूकृ 1/2 अनि छोड़ दिया (उवहि) 2/1 परिग्रह को [(बहित्थं)+(अज्झत्थं)]. बहित्थं (बहित्थ) 2/1 वि बाहरस्थित (बहिरंग) अज्झत्थं (अज्झत्थ) 2/1 वि मन में स्थित (अंतरंग) (विसय) 7/2 (इन्द्रिय) विषयों में [(ण)+ (अवसत्ता)] ण (अ) = नहीं है अवसत्ता (अवसत्त) 1/2 वि लीन/आसक्त (ज) 1/2 सवि (त) 1/2 सवि [(शुद्धा)+(इति)] शुद्धा (शुद्ध) 1/2 वि शुद्धोपयोगी इति (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक (णिद्दिट्ट) भूकृ 1/2 अनि कहे गये णावसत्ता नहीं है शुद्ध त्ति णिद्दिट्ठा अन्वय- विदिदपदत्था सम्मं बहित्थमज्झत्थं उवहिं चत्ता जे विसयेसु णावसत्ता ते शुद्ध त्ति णिहिट्ठा। अर्थ- (जिनके द्वारा) पदार्थ सम्यक् प्रकार से जान लिये गये हैं), (जिन्होंने) बाहरस्थित (बहिरंग) (तथा) मन में स्थित (अंतरंग) परिग्रह को छोड़ दिया है जो (इन्द्रिय) विषयों में लीन/आसक्त नहीं है वे शुद्धोपयोगी कहे गये (हैं)। 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (83) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74. सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं।' सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स।। सुद्धस्स सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं सुद्धस्स (सुद्ध) 4/1 वि अव्यय (सामण्ण) 1/1 (भण) भूक 1/1 (सुद्ध) 4/1 (दसण) 1/1 (ज्ञान) 1/1 (सुद्ध) 4/1 वि अव्यय (णिव्वाण) 1/1 (त) 1/1 सवि अव्यय (सिद्ध) 1/1 अव्यय (त) 4/1 सवि शुद्धोपयोगी के लिए और श्रमणता कही गई शुद्धोपयोगी के लिए दर्शन ज्ञान शुद्धोपयोगी के लिए तथा मोक्ष णिव्वाणं सो च्चिय . णमो तस्स सिद्ध नमस्कार उनके लिए अन्वय- सुद्धस्स सामण्णं भणियं य सुद्धस्स णाणं दंसणं य सुद्धस्स णिव्वाणं सो चिय सिद्धो तस्स णमो। अर्थ- शुद्धोपयोगी के लिए (पूर्ण) श्रमणता कही गई (है) और शुद्धोपयोगी के लिए ज्ञान -दर्शन (कहा गया है) तथा शुद्धोपयोगी के लिए मोक्ष (भी) (कहा गया है)। वह ही सिद्ध (है) (अतः) उनको नमस्कार! 1. णमो' के योग में चतुर्थी होती है। (84) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75. बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो। जो सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि।। बुज्झदि . (बुज्झ) व 3/1 सक समझता है सासणमेयं [(सासणं)+(एयं)] सासणं (सासण) 2/1-7/1 जिन-शासन में एयं (एय) 2/1 सवि इसको सागारणगारचरियया' [(सागार)+ (अणगार)+ (चरियया)] [(सागार)वि-(अणगार)वि- श्रावक और श्रमण की (चरियया) 2/277/2] चारित्रताओं में (जुत्त) भूकृ 1/1 अनि स्थिर (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि वह पवयणसारं (पवयणसार) 2/1 प्रवचनसार को लहुणा' (लहु) 3/1-7/1 वि अल्प कालेण (काल) 3/1+7/1 काल में पप्पोदि - (पप्पोदि) व 3/1 सक अनि प्राप्त करता है E अन्वय- जो सागारणगारचरियया जुत्तो सासणमेयं बुज्झदि सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि। अर्थ- जो श्रावक और श्रमण की चारित्रताओं में (व्रत आचरण में) स्थिर (है) (जो) जिन-शासन में इस (बात/महत्त्व) को समझता है वह प्रवचनसार को अल्प काल में प्राप्त करता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया/तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (85) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ 1. एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे। पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं।। आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं। आसिज्ज णाणसणचरित्ततववीरियाया।। 3. समणं गणिं गुणटुं कुलरूववयोविसिट्टमिट्ठदरं। समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो।। णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि। इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो।। 5. जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्ध। रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंग।। मुच्छारंभविमुक्कं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं। लिंगं ण परावेखं अपुणब्भवकारणं जेण्हं।। 7. आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेणं तं णमंसित्ता। सोच्चा सवदं किरियं उवट्टिदो होदि सो समणो।। 8. वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च।। (86) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।। 10. लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि। छेदेसूवठ्ठवगा सेसा णिज्जावगा समणा।। 11. पयदम्हि समारद्धे छेदो. समणस्स कायचे?म्हि। जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया।। 12. छेदपउत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि। आसेज्जालोचित्ता उवदिटुं तेण कायव्वं।। 13. अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे। समणो विहरदु णिच्वं परिहरमाणो णिबंधाणि।। 14. चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि। पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो।। 15. भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि।। 16. अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु। समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतत्तिय त्ति मदा।। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (87) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स।। 18. अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो। 19. हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचे?म्हि। . बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया ' सव्वं।। 20. ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिओ।। 21. किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि।। 22. छेदो जेण ण विज्जदि गहणविसगेसु सेवमाणस्स।.. समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता।। 23. अप्पडिकुटुं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं। मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं।। 24. किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहे वि। संग त्ति जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुट्ठिा।। (88) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिट्ट।। 26. इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि। जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो।। 27. जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा।। 28. केवलदेहो समणो देहे वि ममत्तरहिदपरिकम्मा। .. आजुत्तो तं तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्ति।। 29. एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं। चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं॥ 30. बालो वा बुड्डो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरदु सजोगं मूलच्छेदो जधा ण हबदि।। । 31. आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधि। जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो॥ 32. एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु। णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्टा।। प्रवचनसार. (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (89) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणंतो अटे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।। 34. आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि। देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू।। 35. सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं। जाणंति आगमेण हि पेच्छिता ते वि ते समणा।। 36. आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स। णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो।। 37. ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु। सदहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि।। 38. जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण।। 39. परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो। विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि।। 40. पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ। दंसणणाणसमग्गो समणो सी संजदो भणिदो।। (90) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्टकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।। 42. दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्टिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं।। 43. मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज। जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं।। 44. अट्टेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि। समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि।। 45. समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि। तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा।। 46. अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु। विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया।। 47. वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्टाणाणुगमणपडिवत्ती। . समणेसु समावणओ ण णिंदिदा रायचरियम्हि।। 48. दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य।। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (91) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. उवकुणदि जो वि णिच्वं चादव्वण्णस्स समणसंघस्स । कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ।। 50. जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो । ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से।। 51. जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो ।। 52. रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जद आदसत्तीए । । 53. वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुडसमणाणं । लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोवजुदा । । 54. एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ।। 55. रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ।। 56. छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो । ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि । । (92) प्रवचनसार ( खण्ड - 3) चारित्र अधिकार - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57. अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु। जुटुं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु॥ 58. जदि ते विसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु। किह ते तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होति।। 59. उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु। गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स।। 60. असुभोवयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा। णित्थारयति लोगं तेसु पसत्थं लहदि भत्तो।। 61. दिट्ठा पगदं वत्थु अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं। वट्टदु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो।। 62. अब्भुट्टाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कार। अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि।। 63. अब्भुट्टेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया। संजमतवणाणड्डा पणिवदणीया हि समणेहिं।। 64. ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे।। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (93) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. अववददि सासणत्थं समणं दिवा पदोसदो जो हि। किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्टचारित्तो।। 66. गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति। - होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी।। 67. अधिगगुणा सामण्णे वटुंति गुणाधरेहिं किरियासु। जदि ते मिच्छुवजुत्ता हवंति पन्भट्ठचारित्ता।। 68. णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि। लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि।। 69. णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहिं। सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंजुदो चावि।। 70. तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं। अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं।। 71. जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये। अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं।। 72. अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा। अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो।। (94) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73. सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं। विसयेसु णावसत्ता जे ते शुद्ध त्ति णिद्दिठ्ठा।। 74. सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं। सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स।। 75. बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो। जो सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि।। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (95) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-1 संज्ञा-कोश गा.सं. अट्ठ अणुगमण अन्न अका अत्थ अत्थपद संज्ञा शब्द अर्थ लिंग अंजलिकरण हाथ जोड़ना अकारान्त नपुं. 62 अचेल दिगम्बर अवस्था अकारान्त नपुं. 8 . अज्झयण अध्ययन अकारान्त पु., नपुं. 25, 56 पदार्थ अकारान्त पु., नपुं. 33, 44 पीछे-पीछे चलना अकारान्त नपुं. 47 अण्ण अन्न अकारान्त पु. 27 अण्हाण स्नान नहीं करना अकारान्त नपुं. 8 पदार्थ अकारान्त पु., नपुं. 32,35,37,64,71 सिद्धान्त का अकारान्त पु. 68 सार/मर्म अदंतवण दाँतौन नहीं करना अकारान्त नपुं. 8 अधिवास (गुरु के) पास अकारान्त पु. 13 अपुणब्भव मोक्ष अकारान्त पु. 6, 24 अपुणब्भाव मोक्ष अकारान्त पु. अप्प आत्मा अकारान्त पु. 27, 72 स्वयं अप्पाण आत्मा अकारान्त पु. 21, 33 अब्भुट्ठाण सम्मान के लिए अकारान्त नपुं. 47, 61 खड़े होना सम्मान में खड़े होना प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार 56 28 अकाराउ (96) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहंत अवणअ अवेक्खा आगम आद आदि वगैरह आयार आरंभ आलोयणा अरहंत अकारान्त पु. 46 निराकरण करना अकारान्त पु. 47 चाह आकारान्त स्त्री. आगम अकारान्त पु. 32, 33, 34, 35, 36, 37, 39 आत्मा अकारान्त पु. 64 इकारान्त पु. 5 आदि 16, 23 , 39, 46 आचार अकारान्त पु. सांसारिक क्रिया अकारान्त पु. जीव हिंसा आलोचना आकारान्त स्त्री. 11 अकारान्त पु. 15 आवश्यक अकारान्त नपुं. 8 अकारान्त नपुं. 16 अकारान्त पु. अकारान्त पु. 26 आहार-चर्या अकारान्त पु. 31 अकारान्त पु., नपुं. 8, 34, 40 पेट अकारान्त नपुं. 29 भाव अकारान्त पु. 6 जन-शिक्षण अकारान्त पु. उपदेश 48,61 'आवसध आवास आवस्सय आसण बैठना आसय चित आहार आहार इन्द्रिय इंदिय उदर उवजोग उवदेस 48 प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (97) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवधि उवयरण उवयार उवयोग उवासण उवहि उस्सास एगभत्त एसणा ओहि परिग्रह इकारान्त पु., स्त्री.15, 19, 23 शरीरावस्था 31 उपाय/साधन अकारान्त नपुं. 25 उपकार अकारान्त पु. 51 उपयोग अकारान्त पु. सेवा में उपस्थित अकारान्त नपुं. 62 रहना परिग्रह इकारान्त पु., स्त्री. 73 उच्छवास अकारान्त पु. ___ 38 एक बार भोजन अकारान्त नपुं. 8 करना इच्छा आकारान्त स्त्री. 27 अवधि इकारान्त पु., स्त्री.34 सोना अकारान्त नपुं. 41 अकारान्त नपुं. 57 कमल अकारान्त नपुं. 18 अकारान्त पु., नपुं. 20,33,38,43,44 क्रिया 69 पत्नि अकारान्त नपुं. 2 . कषाय अकारान्त पु. ___26,40,57,58,68 शरीर अकारान्त पु. 11, 19, 49 काय (शरीर) कारण अकारान्त नपुं. 6 कंचण कद लाभ कमल कम्म कर्म कलत्त कसाअ काय 50 कारण (98) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल समय किरिया क्रिया कुदेव कुदेव कुल केस कोडि करोड़ क्ख खमण खिदि भूमि खेत्त काल अकारान्त पु. 16, 22, 31, 71,75 55 आकारान्त स्त्री. 7, 11, 61, 65 चर्या आकारान्त स्त्री. 67 अकारान्त पु. 57 अकारान्त पु., नपुं. 3 बाल अकारान्त पु. 5 इकारान्त स्त्री. 38 अंत अकारान्त पु. 20 उपवास अकारान्त नपुं. 15 इकारान्त स्त्री. 8 क्षेत्र अकारान्त पु., नपुं. 22 दुख अकारान्त पु. 50 आचार्य इकारान्त पु. स्वीकार करना अकारान्त नपुं. 22 अपनाना . अकारान्त नपुं. 62 गुण अकारान्त पु., नपुं. 35, 59, 61, 62, 66, 67, 70 माता-पिता उकारान्त पु. 2 7, 10, 25 पूज्य 53 ग्रहण अकारान्त नपुं. 10, 48 गृहस्थ अकारान्त पु. 54 व घरत्थ प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (99) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभ्रमण चंकम चक्खु ज्ञान चरित्त चरिय अका चारित्र सम्यक्चारित्र आचरण चारित्र अवस्था चारित्रता चर्या चरियया चरिया चाग चारित्त चित्त त्याग चारित्र अकारान्त नपुं. 16 उकारान्त पु., नपुं. 34 अकारान्त नपुं. 2 42 अकारान्त नपुं. 47 . . आकारान्त स्त्री. 75 आकारान्त स्त्री. 16,46,48,51,54 अकारान्त पु. 20 अकारान्त नपुं. 67 अकारान्त नपुं. 20 आकारान्त स्त्री. 11, 19 आकारान्त स्त्री. 32 आकारान्त स्त्री. 52 अकारान्त पु. 9, 10, 11, 12, 13, 22 अकारान्त पु. 23, 68 चित्त क्रिया प्रयास Glol भूख संयम-भंग जण मनुष्य व्यक्ति जणण अका जल जल जिण जिणिंद जिणमद उत्पत्ति अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. जिनेन्द्र देव अकारान्त पु. जिनेन्द्र देव अकारान्त पु. जिनसिद्धान्त . अकारान्त नपुं. 12 (100) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 1,9 अकारान्त जोग क्रिया णाण जिणमग्ग जिनमार्ग अकारान्त पु. जिणवर जिनवर अकारान्त पु. जिणवरिंद सर्वज्ञ देव ___24 जीव जीव अकारान्त पु., नपुं. 17, 19 जीविद. जीवन अकारान्त नपुं. 41 अकारान्त पु. 6 झाण ध्यान अकारान्त पु., नपुं. 56 ठाण खड़े होना अकारान्त पु., नपुं. 16 ठिदि खड़े होना इकारान्त स्त्री. 8 णमंसण नमन अकारान्त नपुं. 47 ज्ञान अकारान्त नपुं. 2, 14, 40, 74 सम्यग्ज्ञान 42, 48 णिग्गंथ श्रमण अकारान्त पु. 69 जिंदा आकारान्त स्त्री. 41 णिच्छित्ति निश्चितता इकारान्त स्त्री. 32 णिप्पडिकम्मत्त परिष्कार-रहितता अकारान्त नपुं. 24 णिबंध संबंध/संयोग अकारान्त पु., नपुं. 13 णिमित्त निमित्त अकारान्त नपुं. 53 णियम नियम अकारान्त पु. 56 णिव्वाण मोक्ष अकारान्त नपुं. 74 विचार अकारान्त पु. 24 अकारान्त नपुं. 71 प्यास आकारान्त स्त्री. 52 निंदा तक्क तच्च पदार्थ तण्हा प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (101) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव तप दसण दर्शन आत्मस्मरण सम्यग्दर्शन द्रव्य दान सम्यग्दर्शन दव्व दाण दिट्टि दुक्ख देव देस अकारान्त पु., नपुं. 2, 27, 63, 64, 68, 69 अकारान्त पु., नपुं. 2, 40, 74 14 42, 48 अकारान्त पु., नपुं. 21, 43 . अकारान्त पु., नपुं. 56 इकारान्त स्त्री. 36 अकारान्त पु., नपुं. 1, 41, 70 अकारान्त पु., नपुं. 34 अकारान्त पु. 31 अकारान्त पु., नपुं. 24, 28, 39 अकारान्त पु. 44 अकारान्त पु., नपुं. 50 अकारान्त पु. 35 इकारान्त स्त्री. 47 अकारान्त पु. 62 अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. 73. अकारान्त नपुं. उकारान्त पु. 39: अकारान्त पु. 57 अकारान्त पु., नपुं. 28 दोस धम्म पज्जअ पडिवत्ति पणाम जीवन-पद्धति पर्याय प्रवृत्ति साष्टांग प्रणाम पदार्थ पदार्थ परिमाण परमाणु पद पदत्थ पमाण परमाणु परमत्थ परिकम्म आत्मस्वरूप क्रिया (102) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमोक्ख मुक्ति आगम-ज्ञान पवयण पवयणसार प्रवचनसार पव्वज्जा प्रव्रज्या प्रशंसा पसंसा पाव पाप अकारान्त पु. 1, 70 अकारान्त नपुं. 46 अकारान्त पु., नपुं. 75 आकारान्त स्त्री. 10 आकारान्त स्त्री. 41 अकारान्त पु., नपुं. 58, 59 अकारान्त पु. 2 अकारान्त पु. 57 58, 59 आकारान्त स्त्री. 48 अकारान्त नपुं. पुत्त पुरिस पूजा पोसण पुत्र मनुष्य पुरुष पूजा/भक्ति विकास/पुष्टि पोषण फल बंध फल . बंध बंधुवग्ग बाल 2, 41 अकारान्त पु., नपुं 71 अकारान्त पु. 19 अकारान्त पु. अकारान्त पु. 53 अकारान्त नपुं 55 अकारान्त पु., नपुं. 15 बंधुसमूह बालक बाल बीज भोजन आहार भक्ति भव बीज इकारान्त स्त्री. 46 अकारान्त पु. 38 प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (103) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव भिक्ख भिक्खा भिक्खु अवस्था भिक्षा भिक्षा श्रमण जीव भूमि भोयण अकारान्त पु. 56 अकारान्त नपुं.. 29 आकारान्त स्त्री. 27 उकारान्त पु. 20, 33 अकारान्त पु., नपुं. 34 इकारान्त स्त्री. 55 अकारान्त नपुं. 8 अकारान्त पु., नपुं. 29 उकारान्त पु., नपुं.5 अकारान्त पु. 57 उकारान्त पु. 29 अकारान्त नपुं. 28 अकारान्त पु., नपुं. 41 आकारान्त स्त्री. भोजन मांस दाढी-मूंछ मनुष्य मंस मणुव मधु ममत्त मधु ममत्व मरण मुच्छा मरण ममत्व बुद्धि ममत्व भाव ममत्व मोह/आसक्ति दिशा मूलगुण मूलगुण-भंग l r मूलगुण मूलच्छेद रस अकारान्त नपुं. 14 अकारान्त पु., नपुं. 9, 14 अकारान्त पु. 30 अकारान्त पु., नपुं. 29 अकारान्त पु. 55 अकारान्त पु. 47 रस राग (104) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप शरीर रोग EEEE लोक अकारान्त पु., नपुं. 3 4, 5, 25 अकारान्त पु. 52 निरोध अकारान्त पु. 8 लिंग (भेष) अकारान्त नपुं. 5, 6, 7, 10, 25 कर्मलेप अकारान्त पु. अकारान्त पु. 26 मनुष्य-समूह लोंच अकारान्त पु. मिट्टी का ढेला उकारान्त पु. 41 लोक अकारान्त पु. स्तुति अकारान्त नपुं. 47 वात्सल्य भाव/ आकारान्त स्त्री. 46 अनुराग भाव पदार्थ उकारान्त नपुं. 55 लोच लोटु लोय वंदण वच्छ लदा वत्थु योजना वय . अवस्था महाव्रत अकारान्त पु., नपुं. 8 व्रत आयु अकारान्त पु., नपुं. 3. वचन अकारान्त पु., नपुं. 25 प्रायश्चित विधान इकारान्त पु. 12 विकथा आकारान्त स्त्री. 15 वयण ववहारि विकधा प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (105) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनय अकारान्त पु. आदर पीड़ा विणअ विणय विराधण विवास विसग्ग विसय विसुद्धि : (गुरु से) दूर त्याग अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त पु. 22 अकारान्त पु. 57, 58, 73 इकारान्त स्त्री. 20 विषय विशुद्धता/ स्वच्छता विसेस भेद विहार विहार वीर्य वीरिय वेज्जावच्च संग संघ अकारान्त पु., नपुं. 55 अकारान्त पु. 15, 26, 31 अकारान्त पु., नपुं. 2 अकारान्त नपुं. 53 अकारान्त पु., नपुं. 24 अकारान्त पु. अकारान्त पु. 63, 64 49 वैयावृत्ति आसक्ति संघ संयमाचरण संयम आत्मनियंत्रण वार्तालाप मेल-जोल देखभाल संजम संभासा संसग्ग सक्कार आकारान्त स्त्री. 53 अकारान्त पु. 68 अकारान्त पु. 62 इकारान्त स्त्री. 28 उकारान्त पु. 41 सत्ति शक्ति शत्रु सत्तु सत्थ शास्त्र अकारान्त पु., नपुं. 58 अकार (106) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धान अकारान्त नपु. 37 सद्दहण सम श्रम अकारान्त पु. कष्ट समण श्रमण अकारान्त पु. 31 47, 52 1, 3, 7, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 16, 18, 19, 22, 23, 26, 27, 28, 31, 32, 33, 35, 36, 40, 41, 43, 44, 45, 47, 49, 50, 52, 53, 63, 64, 65, 66, 70 समय अकारान्त पु. आगम जिन-सिद्धान्त साधु समिद समिदि समिति समूह सय सयण सस्स सोना अकारान्त पु. 17 इकारान्त स्त्री. 8 59 अकारान्त पु., नपुं. 38 अकारान्त नपुं. 8, 16 अकारान्त नपुं. 55 अकारान्त पु., नपुं. 38 अकारान्त नपुं. 56 खेती सहस्स हजार साद सुख प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (107) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्ण श्रमणता श्रमण अवस्था सावय सासण श्रावक जिन-शासन श्रमण अकारान्त नपुं. 1, 14, 42, 67, 72, 74 13, 46 अकारान्त पु. 50 अकारान्त नपुं. 75 उकारान्त पु. 34, 52 अकारान्त पु. 1, 34, 74 . इकारान्त स्त्री. 39 अकारान्त पु. 48 अकारान्त नपुं. 25, 36 साहु सिद्ध सिद्ध सिद्धि सिद्धि सिस्स सुत्त . शिष्य सूत्र आगम सिद्धान्त निर्मलता श्रेष्ठ मार्ग सुमग्ग सुख इकारान्त स्त्री. 6 अकारान्त पु. 59 अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. 63 अकारान्त नपुं. 54 आकारान्त स्त्री. 5, 16, 17 सुत्तत्थ सोक्ख सूत्रों के अर्थ सुख हिंसा हिंसा अनियमित संज्ञा तवसा 3/1 तप से 28 (108) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया अधिवस जाय जिय जीव णिव्वा फल भव मर मुज्झ रज्ज विज्ज विहर सिज्झ हव हो tic अर्थ रहना उत्पन्न होना जीना जीना / ठहरना मुक्त होना फलित होना होना मरना मूर्च्छित होना मोहित होना आसक्त होना होना विद्यमान होना रहना मुक्त होना होना tic क्रिया - कोश अकर्मक होना प्रवचनसार ( खण्ड - 3) चारित्र- अधिकार गा.सं. 70 11 17 72 37 57 36, 46 17 43 44 43, 44 22, 46 39 13 37 5, 19, 20, 30, 50, 59, 64, 65, 67, 68 26 4, 7, 9, 10, 36, 45, 58, 66 (109) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश सकर्मक अर्थ गा.सं. 65 क्रिया अणुमण्ण अववद इच्छ 65 स्वीकृति देना निंदा/विरोध करना चाहना स्वीकार करना उपकृत करना रखना करना ___1, 70 15 49 44 उवकुण उवया कुण कुव्व खव करना 50 51 33 38, 44 नाश करना क्षय करना ग्रहण करना छोड़ना चय चर आचरण करना 14, 18 30 35 35 60 जाण णित्थार दुस्स पडिच्छ करना जानना पार उतारना द्वेष करना स्वीकार करना चाहना अंगीकार करना फल उत्पन्न करना 3 __66 1, 52 पडिवज्ज फल बुज्झ Ss समझना 75 (110) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 कहना परिभ्रमण करना 71 प्राप्त करना 39, 54, 56, 60 रहना 22 31 आचरण करना आदर करना प्रवृत्ति करना 61 67, 69 वियाण जानना 33 सद्दह श्रद्धा करना 64 अनियमित क्रिया पप्पोदि 3/1 प्राप्त करना पसाधयदि 3/1 प्राप्त करना 21 75 अनियमित कर्मवाच्य बाँधा जाता है व कर्म 3/1 अनि 43 बज्झदि प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (111) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त-कोश गा.सं. संबंधक कृदन्त कृदन्त शब्द अर्थ अणिगूहिय न छिपाकर संकृ आदाय ग्रहण करके संकृ आलोचित्ता आलोचना करके संकृ आसिज्ज धारण करके संकृ आसेज्ज शरण लेकर संकृ प्राप्त करके गहिद स्वीकार करके संकृ अनि जाणित्ता जानकर संकृ .. णमंसित्ता नमस्कार करके संकृ दिट्ठा देखकर संकृ अनि पणमिय प्रणाम करके संकृ पेच्छित्ता समझकर भविय-भवीय होकर वियाणित्ता जानकर सोच्चा सुनकर संकृ अनि जानकर 52, 61, 65. 22 अक्खाद अणुगहिद भूतकालिक कृदन्त कथित भूकृ अनुगृहीत भूकृ अनि 64 3 (112) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पडिबद्ध अभिजुत्त अविदिद आजुत्त आपिच्छ उज्जद उवजुत्त उवजुद उद्दिट्ठ उप्पाडिद उवट्ठिद गद गुत्त चत्ता छड्डिय जाद जिद जुत्त णिंदिद नहीं बँधा हुआ संलग्न ज्ञानशून्य लगाता / नियुक्त लिया भूक अनि भूकृ अनि भूकृ भूक अनि भूक अनि पूछ लगा हुआ संलग्न भूक अनि उचित भूक अनि प्रतिपादित किया भूक अनि युक्त स्थिर अस्वीकृत भूक अनि लोंच किया हुआ भूकृ तत्पर हुआ बोया गया, रक्षित छोड़ दिया छोड़ दिया बना रखा हुआ जन्म हुआ जीत लिया गया भूक अनि भूक अनि भूकृ अनि भूक अनि भूकृ भूकृ भूकृ भूकृ भूकृ प्रवचनसार ( खण्ड - 3) चारित्र अधिकार अनि अनि 26 46 57 28 2 50 5 45, 60 53 24 5 .7 32, 42 55 38 73 19 4 5 4, 5, 25 40 46, 51 75 47, 53 (113) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिच्छिद 4 32 णिट्टि 25, 73 दत्त पउत्त 12 पणद निर्णय किया भूकृ अनि हुआ निश्चित अवस्था समझ लिया गया निर्धारित किया गया निश्चय कर लिया गया कहा गया भूकृ अनि दिया गया भूकृ अनि युक्त भूकृ अनि साष्टांग प्रणाम भूकृ अनि किया कहा गया भूक अनि जागरूक भूकृ अनि जागरूक हुआ कहा गया भूकृ बँधा हुआ भूकृ अनि कहा गया भूक कहा गया हुआ/बना पण्णत्त 9 . 11, 14 पयद 14 58 58 परूविद प्पडिबद्ध भणिद भणिय भूद 25,40,54,62, 69 74 54 हुआ 55 मद माना गया भूकृ अनि 16, 18, 42 मरा हुआ 19 माना 64 (114) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुरक्त 21 भूकृ अनि संलग्न त्याग दिया गया भूकृ अनि मुक्त रूढ लद्ध विजुत्त विदिद विमुक्क विमोचिद विसिट्ठ विहिअ विहिद संजद लदा हुआ भूकृ अनि प्राप्त किया गया भूकृ अनि रहित भूकृ अनि जान लिया गया भूक मुक्त भूकृ अनि मुक्त किया गया भूक उपयुक्त भूकृ अनि किया हुआ भूकृ अनि स्थिर किया हुआ भूकृ अनि संयमी . भूक अनि युक्त भूकृ अनि नियन्त्रित किया भूकृ अनि गया पूरा कर लिया भूकृ अनि संजुद संवुड संपुण्ण 72 गया समारद्ध प्रारम्भ किया भूक अनि 11 गया समिद 68 नियन्त्रित किया भूकृ गया प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (115) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिद्ध समुट्ठिद 71 42 भरा हुआ भूकृ अनि उचित प्रकार से भूकृ अनि प्रयत्नशील बिना भूकृ अनि हीण 33 कायव्व विधि कृदन्त अब्भुट्टेय खड़े होकर सम्मान विधिक अनि 63 किये जाने योग्य उवासेय सेवा किये जाने विधिकृ अनि 63 योग्य किया जाना विधिकृ चाहिये पणिवदणीय प्रणाम किये जाने विधिकृ योग्य विसेसिदव्व विशेष किया विधिकृ जाना चाहिये वर्तमान कृदन्त अविजाणंत न जानता हुआ वकृ परिहरमाण टालता हुआ वकृ सद्दहमाण श्रद्धा करता हुआ वक सेवमाण उपभोग करता वक हुआ (116) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अगारि अच्वंत अजधाचार अज्झत्थ अणंत अणगार अणासव अणाहार अण्ण अण्णाणि अधर अधिग अर्थ अपयत्त अप्प अप्पग गृहस्थ अत्यन्त अशुद्ध-आचार मन में स्थित (अंतरंग) अनन्त श्रमण विशेषण - कोश कर्मास्रव-रहित निराहारी पर अज्ञान धारण करनेवाला नहीं हीण अपडिकम्म अपत्थणिज्ज अप्रार्थनीय जागरूकता-रहित थोड़ा आत्मक गा.सं. प्रवचनसार (खण्ड- 3) चारित्र -अधिकार 50 71 72 73 66 51,75 45 177 335 अधिकतावा विशिष्ट शारीरिक शृंगार से वियुक्त 5 23 16 23, 31, 51 56 27 43 38,43 66 67 57 62, 66, 67, 68 (117) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 अयदाचार 73 20 23, 36, 37 इट्ठदर अप्पडिकुट्ट अस्वीकृत नहीं अप्पडिपुण्ण पूरा न भरा गया अफल निरर्थक जागरूकता-रहित आचरणवाला अवसत्त लीन/आसक्त अविसुद्ध अविशुद्ध असंजद असंयमी असंजम असंयम असुभ अशुभ अधिक अपेक्षित उवट्ठावग स्थापित करनेवाला उवदिट्ठ उपदिष्ट उवरद रहित एक्क एक समय एयग्ग एकाग्रचित्त स्थिर एहिग इस लोक संबंधी/ सांसारिक इच्छुक काय कायिक केवल मात्र खम सहनशक्ति कामि 18 (118) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिलाण 30 . अशक्त/रोगी रोगी गुणों में समृद्ध संयत गुणड्ड गुत्त चादुव्वण्ण चार प्रकार चित्त छदुमत्थ जधत्थ जिदिंद जुट्ठ जुत्त जेटा Bebant.nl जेह जोण्ह नाना प्रकार का अल्पज्ञानी वास्तविक इन्द्रियों को जीतनेवाला 4 की गई सेवा युक्त 6, 26 सर्वोत्तम जिन जिन-मार्गानुयायी ज्ञानी क्षीण चारित्रवाला ज्ञान में सम्पन्न नाना प्रकार आत्मज्ञानी निश्चित निर्यापक तारनेवाला ण णट्ठचारित्त णाणड्ड णाणा णाणी णिच्छिद णिज्जावग णित्थारग प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (119) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिबद्ध 14 15 णिरवेक्ख णिरावेक्ख णिरुवलेव दायग संबद्ध बँधा हुआ/ममता युक्त अपेक्षा-रहित चाह-रहित अलिप्त देनेवाला धर्मवत्सल रखनेवाला धारण करनेवाला प्राकृतिक परिपूर्ण प्रधान धम्मिग पगद पडिपुण्ण पधाण पब्भट्ट हीन पमत्त प्रमादी पयद जागरूक परम पर 4, 21, 26, 33 उत्कृष्ट अनन्त उत्कृष्ट पर की चाह रखनेवाला दीक्षा ग्रहण किया हुआ 69 शान्त परावेक्ख पव्वइद पसंत (120) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसत्थ 54, 55 . पुव्व प्रशंसनीय सर्वोत्तम से युक्त/उत्पन्न पुब्विया प्राचीन प्पडिच्छग ग्रहण करनेवाला प्पधाण मुख्य प्रधान वृद्ध बहित्थ बाहरस्थित (बहिरंग) भागि भागीदार/भाजन मिच्छुवजुत्त अश्रद्धा से युक्त मात्र रहिद रहित मेत 17, 38 5, 23, 28 के बिना 75 लह लोगिग 68, 69 वधकर 18 अल्प सांसारिक लौकिक हिंसा करनेवाला प्रमुख विपरीत अनेक प्रकार प्रवीण रहित 1 वसह विवरीद विविह e 43, 44 63 विसारद विहूण प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (121) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्ध शुद्ध शुद्ध निरन्तर संयमी संतत्त संजद संपजुत्त संसारि युक्त संसार में परिभ्रमण करनेवाला अपने योग्य समान सजोग सम समग्ग समभाव समभिहद समिद सराग सवद एक सा भाव रखनेवाला 59 श्रम से थका हुआ सावधान सरागी राग-सहित व्रत-सहित गृहस्थ श्रावक जिनशासन में दृढ़तापूर्वक 65 लगे हुए कर्मास्रव-सहित स्थापित सागार सासणत्थ सासव सिद्ध (122) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर के दोष से मुक्त 5 .45, 60 74 45, 53, 60 शुद्धोपयोगी शुभ अभ्यासी अन्य सब बाकी अनियमित विशेषण लेवी 1/1 कर्म से बँधनेवाला 31 . संख्यावाची विशेषण 38, 40, 42 तीन पंच पाँच अनियमित संख्यावाची विशेषण छस्सु छ प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (123) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम-कोश सर्वनाम शब्द अर्थ लिंग गा.सं. 44 त मैं पु., नपुं., स्त्री. 3, 4 यह पु., नपुं. 9, 71 यह स्त्री. 54 यह पु., नपुं. 75 क्या पु., नपुं. जो पु., नपुं. 14, 22, 36, 38, 39, 42, 49,65,66,71,73, 75 जो कोई वह पु., नपुं. ___3, 7, 9, 10, 11, 12, 14, 21, 22, 27, 28, 31, 35, 36, 38, 39, 40, 42,44, 45, 48, 49, 50, 58, 59, 65, 66, 67, 69, 71, 72, 74, 75 वह स्त्री. 16, 30, 31 सब पु., नपुं. 16 सभी 35, 59 समस्त 19, 34, 39 सव्व (124) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय अर्थ अजधा 71 अण अणेसणं अध अव्यय-कोश गा.सं. अनुपयुक्त रूप से नहीं अनिच्छापूर्वक द्वितीयार्थक अव्यय और अब इसलिए निरर्थक प्रयोग ज्यादा अपनी शक्तिपूर्वक 3/1 52 तृतीयार्थक अव्यय इस प्रकार वाक्यार्थद्योतक 16, 18 इसलिए अव अहियं आदसत्तिए इति अतः क्योंकि शब्दस्वरूपद्योतक 58, 69, 73 ऐसा 61, 64 66 पादपूरक इस प्रकार ही प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (125) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3, 4 ____ 19 . इस प्रकार अतः शब्दस्वरूपद्योतक निश्चय ही निश्चय ही इस लोक में इस संसार में 4, 22, 26, 36, 62 Rs. और किंचण किंचि किध किह 21, 33, 36 थोड़ा सा कुछ भी कैसे कैसे पादपूरक वास्तव में और तथा चर्या से द्वितीयार्थक अव्यय तो भी यद्यपि 3, 8, 25, 48 चरणं चावि (126) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीर्घकाल तक चिरं च्चिय जागरूकतापूर्वक द्वितीयार्थक अव्यय यदि 1, 11, 18, 31, 39, 43, 44, 46, 50, 51, 64, 66, 67, 68, 69, 70 23,37 ल 58 जध 4, 5, 25 जधा जस्स-जेण जैसा जिस तरह से चूँकि तृतीयार्थक अव्यय जैसा एक ही साथ जहा जुगवं नहीं 4, 6, 5, 19, 20, 22, 29, 30, 36, 37, 39, 44, 47, 50, 53, 56, 64, 65, 68, 72 73 4, 17, 21, 36, 37 पत्थि नहीं है नहीं है नमस्कार णमो प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (127) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिच्चं णियदं णु 2. तं व तदो तथ तम्हा ता तो दिवा दु (७) धुवं पदोसदो क पुण पुणो (128) सदैव आवश्यक रूप से प्रश्नद्योतक नहीं इसलिए वाक्य-उपन्यास इसलिए इस प्रकार इसलिये उससे तो दिन में ही निश्चित रूप से द्वेष से / पूर्वक 5/1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय भी ही tic परन्तु और ही पादपूरक फिर परन्तु और 13, 14, 18, 49, 70 44 20 33, 44 27 29 32, 61 21 70 54 71 29 42 19 65 3, 25 7, 27 34 41 11 15 30 39 54 प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र -अधिकार Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुणो पुणो बार-बार और पादपूरक तथा 14, 20, 34, 45, 57, 74 25 48, 74 13, 17, 19, 31, 57 18 55 अथवा की तरह जैसे कि पादपूरक अथवा पादपूरक 15, 30, 52, 60, 70 16, 53, 54 30, 39 37 तथा विकल्प बोधक अव्यय पादपूरक 21, 43 21, 43 18, 35 23, 49 28, 37, 39, 45, 49,51, 64,66 वेज्जावच्चत्थं वैयावृत्ति के लिए समं एक समान सम्म सम्यक् प्रकार से सव्वदो पूर्णरूप से 34 प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (129) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्य का उपन्यास 49, 50 e re SS पादपूरक निश्चय ही do 20, 35, 48, 63, 65 37 AA पादपूरक 62, 65 अनियमित अव्यय अणुकंपया अणुकंपापूर्वक 3/1 तृतीयार्थक अव्यय 51 ___nam ववसर छड चाट-अधिकार (130) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-2 छंद छंद के दो भेद माने गए है1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद 1. मात्रिक छंद- मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को ‘मात्रिक छंद' कहते हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैंह्रस्व और दीर्घ। ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती हैं लघु (ल) (1) (ह्रस्व) गुरु (ग) (s) (दीर्घ) (1) संयुक्त वर्गों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा। (2)जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/गुरु माना जायेगा। जैसे- रामे। यहाँ शब्द में 'रा' और 'मे' दीर्घ वर्ण है। । (3) अनुस्वार-युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/गुरु माने जाते हैं। जैसे- 'वंदिऊण' में 'व' हस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (5) माना जायेगा। (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह ह्रस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा। 1. देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (131) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वर्णिक छंद- जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्णों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है यगण - 155 मगण - 555 तगण - ऽऽ। रगण SIS जगण . - ।। भगण - 515 नगण - ।।। सगण - 15 प्रवचनसार में मुख्यतया गाहा छंद का ही प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ गाहा छंद के लक्षण और उदाहरण दिये जा रहे हैं। लक्षण गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, द्वितीय पाद में 18 तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं। (132) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण ऽऽ ।।।। ऽऽ ।।।।।।ऽ ।ऽ । ऽ ।। 5 एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे।। ।। 5 ।। ऽ ऽ ऽ ।। ।। 5 ।।। 5 5 पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं।। ।। ऽ ऽ ऽ ।।ऽ ऽ । ऽ ऽ । ।। । । । अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। ।।।।ऽ । । ऽ ऽ ।।ऽ । । ।।। ऽ ऽ चरदि जदं जदि णिच्वं कमलं व जले णिरुवलेवो।। ।।।।ऽ ।। ऽ ऽ ऽ ऽ ।।ऽ।ऽ।।। ।। ऽ उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। ।।।।ऽ ।। ।। ऽ ऽ ऽ ।।ऽ । ऽऽऽ गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिट्ट।। 5 ।।ऽऽ ।। 5 ।। ।।।।।। 5 5 केवलदेहो समणो देहे वि ममत्तरहिदपरिकम्मा। 55 5 5 ।। ।। ।। ऽ । ऽ ऽ ऽ आजुत्तो तं तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्ति।। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (133) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश प्रवचनसार प्रवचनसार प्रवचनसार : प्रस्तावना व अंग्रेजी अनुवादडॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये हिन्दी अनुवादक-हेमराज पाण्डेय (श्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, चतुर्थ आवृत्ति, 1984) : हिन्दी अनुवादक-पण्डित राजकिशोर जैन (श्री दिगम्बर जैन कुन्दकुन्दपरमागम ट्रस्ट, इन्दौर एवं पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर) : हिन्दी अनुवादकश्री पण्डित परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ । (श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), 1964) पाइय-सद्द-महण्णवो : पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी,1986 ) कुन्दकुन्द-शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन (श्री दिगम्बर जैन साहित्य-संस्कृति संरक्षण समिति, दिल्ली, 1989) प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन (न्यु भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, दिल्ली, 2005) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार 4. 5. 6. (134) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. संस्कृत-हिन्दी कोश : वामन शिवराम आप्टे (कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996) हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज भाग 1-2 (श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, 2006) प्राकृत भाषाओं का : लेखक -डॉ. आर. पिशल व्याकरण हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1958) 10. प्राकृत रचना सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2003) 11. प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2004) 12. प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ, : डॉ. कमलचन्द सोगाणी भाग-1 (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 1999) अपभ्रंश अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (छंद एवं अलंकार) (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) प्राकृत- हिन्दी-व्याकरण : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन (भाग-1, 2) संपादक- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2012, 2013) प्राकृत-व्याकरण : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (संधि- समास- कारक-तद्धित- (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, स्त्रीप्रत्यय-अव्यय) 2008) 14. 15. -* प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (135) Page #143 --------------------------------------------------------------------------  Page #144 -------------------------------------------------------------------------- _