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________________ 65. अववददि सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि। किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्ठचारित्तो।। अववददि. सासणत्थं (अववद) व 3/1 सक (सासणत्थ) 2/1 वि निंदा/विरोध करता है जिनशासन में दृढ़तापूर्वक लगे हुए श्रमण को समणं दिय पदोसदो देखकर द्वेष से/पूर्वक पादपूरक क्रियाओं को किरियासु णाणुमण्णदि (समण) 2/1 (दिट्ठा) संकृ अनि (पदोस) (अव्यय) पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय (ज) 1/1 सवि अव्यय : (किरिया) 7/2+2/2 [(ण)+(अणुमण्णदि)] ण (अ) = नहीं अणुमण्णदि (अणुमण्ण) व 3/1 सक (हव) व 3/1 अक अव्यय (त) 1/1 सवि : (णठ्ठचारित्त) 1/1 वि नहीं स्वीकृति देता है हवदि . होता है निश्चय ही वह क्षीण चारित्रवाला णठ्ठचारित्तो __ अन्वय- जो सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो अववदर्द हि किरियासु णाणुमण्णदि सो हि णट्ठचारित्तो हवदि।। . अर्थ- जो (कोई श्रमण) जिनशासन में दृढ़तापूर्वक लगे हुए श्रमण को देखकर द्वेष से/पूर्वक निंदा/विरोध करता है (और) (पूर्वोक्त सम्मान में खड़े होना आदि) क्रियाओं को स्वीकृति नहीं देता है (तो) वह निश्चय ही क्षीण चारित्रवाला होता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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