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________________ विणयं आदर 66. गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति। होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी।। गुणदोधिगस्स [(गुणदो)+(अधिगस्स)] गुणदो' (गुण) 5/1 गुणों के कारण अधिगस्स (अधिग) विशिष्ट से 6/1+3/1 वि (विणय) 2/1 पडिच्छदि (पडिच्छ) व 3/1 सक चाहता है (ज) 1/1 सवि अव्यय होमि (हो) व 1/1 अक समणो त्ति [(समणो)+ (इति)] समणो (समण) 1/1 इति (अ) = पादपूरक होज्ज (हो) व 3/1 अक होता है [(गुण)-(अधर) 1/1 वि] गुणों को धारण करनेवाला नहीं जदि यदि सो (त) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक होता है अणंतसंसारी [(अणंत) वि-(संसारि) __1/1 वि] परिभ्रमण करनेवाला श्रमण गुणाधरो अव्यय वह होदि अनन्त संसार में अन्वय- जो समणो त्ति गुणाधरो होज्जं वि होमि जदि गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो सो अणंतसंसारी होदि। ___ अर्थ- जो (कोई) श्रमण (श्रमणोचित) गुणों को धारण करनेवाला नहीं होता है (तो) भी (यह कहकर कि) 'मैं श्रमण हूँ' यदि (वह) गुणों के कारण विशिष्ट (श्रमण) से आदर चाहता है (तो) वह अनन्त संसार में परिभ्रमण करनेवाला होता है। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘गुणादो' का 'गुणदो' किया गया है। 2. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) यहाँ अनुस्वार का आगम हुआ है। यहाँ पाठ पडिच्छदि होना चाहिये। (76) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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