________________
64. ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि।
जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे।।
होता है
श्रमण ऐसा
मदो
माना है
संयम, तप और आगमः (ज्ञान) से युक्त
अव्यय हवदि
(हव) व 3/1 अक समणो त्ति [(समणो)+ (इति)]
समणो (समण) 1/1 इति (अ) = ऐसा
(मद) भूकृ 1/1 अनि संजमतवसुत्तसंपजुत्तो [(संजम)-(तव)-(सुत्त)--
(संपजुत्त) 1/1 वि]
अव्यय जदि सद्दहदि (सद्दह) व 3/1 सक
अव्यय
(अत्थ) 2/2 आदपधाणे [(आद)-(पधाण)
2/2 वि] जिणक्खादे [(जिण)+(अक्खादे)]
[(जिण)-(अक्खा) भूक 2/2]
अव्यय
यदि श्रद्धा करता है नहीं पदार्थों की आत्मप्रधान
अत्थे
जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित
अन्वय- संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि जदि जिणक्खादे आदपधाणे अत्थे ण सद्दहदि समणो त्ति ण हवदि मदो। . अर्थ- (जो) संयम, तप और आगम (ज्ञान) से युक्त (होकर) भी यदि जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित आत्मप्रधान पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता है (तो) (वह) श्रमण नहीं है ऐसा (आगम ने) माना है।
1.
यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है
(74)
प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार