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ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार
संपादक की कलम से डॉ. कमलचन्द सोगाणी
श्रमणता का केन्द्रीय आधार परिग्रह-त्यागः
___ आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के चारित्र-अधिकार में श्रमण-चर्या के विविध आयामों का विशद वर्णन करके मोक्ष-मार्ग का प्रतिपादन किया है। उनकी दृढ़ दृष्टि है कि श्रमणता का केन्द्रीय आधार परिग्रह का त्याग है। वे कहते हैंः परिग्रह से ममत्व भाव तथा श्रमण चर्या में असंयम असंदिग्ध होता है। चित्त की विशुद्धता नहीं रहती है (21,22)। आचार्य परिग्रह त्याग के महत्त्व को दर्शाते हुए कहते हैं: चूँकि परिग्रह की उपस्थिति में कर्मबन्ध किसी भी प्रकार टाला नहीं जा सकता इसलिए श्रमणों के लिए अंतरंग और बाह्य परिग्रह त्याग उपदिष्ट है (19)। आचार्य कुन्दकुन्द ने परिग्रह-त्याग की धारणा को एक गहरा आयाम देते हुए कहा है कि जो श्रमण परिग्रहरूप में मात्र देह रक्खे हुए है वह देह से भी क्रियाओं को ममत्वरहित होकर करता है। वही श्रमण स्वयं की शक्ति को न छिपाकर उस शक्ति को तप में लगाता है (28)। आचार्य के अनुसार श्रमण का जैसा जन्म हुआ है वैसा ही शरीररूपी भेष मोक्ष का साधन कहा गया है (25)। देह में आसक्ति से बचने के लिए देह के परिष्कार को अस्वीकार किया गया है (24)। जिस श्रमण में परमाणु परिमाण भी देहादि पर आसक्ति विद्यमान है तो वह सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता है। देहरूपी परिग्रह को मोक्ष के साधन के रूप में बनाये रखने के लिए आहार दिन में विधिपूर्वक एक बार स्वीकृत है।
प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार