SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 72. अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदों पसंतप्या। ___ अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो।। अफले अजधाचारविजुत्तो [(अजधाचार) वि- अशुद्ध आचार से (विजुत्त) भूकृ 1/1 अनि] रहित जधत्थपदणिच्छिदो [(जधत्थ) वि-(पद)- वास्तविक पदार्थ का (णिच्छिद) भूकृ 1/1 अनि] निश्चय कर लिया गया पसंतप्पा [(पसंत)+ (अप्पा)] [(पसंत) वि-(अप्प) 1/1] शान्त आत्मा (अफल) 7/1 वि निरर्थक में अव्यय दीर्घकाल तक अव्यय नहीं जीवदि (जीव) व 3/1 अक जीता/ठहरता है अव्यय इस संसार में (त) 1/1 सवि वह संपुण्णसामण्णो [(संपुण्ण) भूकृ अनि- पूरी कर ली गयी है। (सामण्ण) 1/1] श्रमणता विरं अन्वय- अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा संपुण्णसामण्णो सो इह अफले चिरं ण जीवदि । अर्थ- (जो) अशुद्ध आचार से रहित है (जिसके द्वारा) वास्तविक पदार्थ का निश्चय कर लिया गया (है) (तथा) (जिसकी) आत्मा शान्त (व्याकुलता-रहित) (है) (तथा) (जिसके द्वारा) श्रमणता (श्रमण-साधना) पूरी कर ली गई (है) वह इस निरर्थक संसार में दीर्घकाल तक नहीं जीता/ठहरता है (ठहरेगा)। 1. कोश में 'सामण्ण' शब्द नपुंसकलिंग दिया गया है, किन्त यहाँ 'सामण्ण' शब्द का प्रयोग पुलिंग में किया गया है। (82) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy