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________________ 73. सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं। विसयेसु णावसत्ता जे ते शुद्ध त्ति णिहिट्ठा।। सम्म विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं विसयेसु (शा अव्यय सम्यक् प्रकार से [(विदिद) भूकृ जान लिये गये हैं। (पदत्थ) 1/2] पदार्थ (चत्त) भूकृ 1/2 अनि छोड़ दिया (उवहि) 2/1 परिग्रह को [(बहित्थं)+(अज्झत्थं)]. बहित्थं (बहित्थ) 2/1 वि बाहरस्थित (बहिरंग) अज्झत्थं (अज्झत्थ) 2/1 वि मन में स्थित (अंतरंग) (विसय) 7/2 (इन्द्रिय) विषयों में [(ण)+ (अवसत्ता)] ण (अ) = नहीं है अवसत्ता (अवसत्त) 1/2 वि लीन/आसक्त (ज) 1/2 सवि (त) 1/2 सवि [(शुद्धा)+(इति)] शुद्धा (शुद्ध) 1/2 वि शुद्धोपयोगी इति (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक (णिद्दिट्ट) भूकृ 1/2 अनि कहे गये णावसत्ता नहीं है शुद्ध त्ति णिद्दिट्ठा अन्वय- विदिदपदत्था सम्मं बहित्थमज्झत्थं उवहिं चत्ता जे विसयेसु णावसत्ता ते शुद्ध त्ति णिहिट्ठा। अर्थ- (जिनके द्वारा) पदार्थ सम्यक् प्रकार से जान लिये गये हैं), (जिन्होंने) बाहरस्थित (बहिरंग) (तथा) मन में स्थित (अंतरंग) परिग्रह को छोड़ दिया है जो (इन्द्रिय) विषयों में लीन/आसक्त नहीं है वे शुद्धोपयोगी कहे गये (हैं)। 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (83)
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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