________________
24. किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहे वि।
संग त्ति जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिा।।
अब
(क) 1/1 सवि क्या किंचण त्ति [(किंचण)+(इति)] किंचण (अ) =
थोड़ा सा इति (अ) = भी तक्कं (तक्क) 1/1
विचार .. अपुणब्भवकामिणोध [(अपुणब्भव)-(कामिणो)+
(अध)] [(अपुणब्भव)-(कामि)6/1वि]मोक्ष के इच्छुक के
अध (अ) = अब . देहे (देह) 7/1
देह के विषय में अव्यय संग त्ति [(संगो)+ (इति)]
संगो (संग) 1/1 आसक्ति
इति (अ) = इसलिए इसलिए जिणवरिंदा (जिणवरिंद) 1/2 सर्वज्ञ देवों ने णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा [(णिप्पडिकम्मत्तं) + (उद्दिट्ठा)]
णिप्पडिकम्मत्तं (णिप्पडिकम्मत्त) परिष्कार-रहितता 2/1 उद्दिट्टा' (उद्दिट्ट) भूकृ 1/2 अनि प्रतिपादित किया
अन्वय- अपुणब्भवकामिणोध किं देहे वि किंचण त्ति तक्कं संग त्ति जिणवरिंदा णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा।
___ अर्थ- मोक्ष के इच्छुक (श्रमण) के क्या देह के विषय में अब भी थोड़ा सा भी विचार (आता है) (तो) (वह) (देह में) आसक्ति है। (चूँकि देह में
आसक्ति संभव है) इसलिए सर्वज्ञ देवों ने (देह की) परिष्कार-रहितता को प्रतिपादित किया (है)।
1.
यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है।
(34)
प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार