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________________ 25. उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं च णिटिं।। उवयरणं (उवयरण) 1/1 (मोक्ष का) उपाय/ साधन जिनमार्ग में जिणमग्गे लिंगं जधजादरूवमिदि (जिणमग्ग) 7/1 (लिंग) 1/1 [(जधजादरूवं)+ (इदि)] [(जध) अ-(जाद) भूकृ(रूव) 1/1 वि] इदि (अ) = (भण) भूकृ 1/1 [(गुरु)-(वयण) 1/1] जैसा जन्म हुआ वैसा ही शरीररूपी शब्दस्वरूपद्योतक कहा गया गुरु के द्वारा कथित वचन भणिदं गुरुवयणं अव्यय भी विणओ सुत्तज्झयणं अव्यय · पादपूरक (विणअ) 1/1 विनय [(सुत्त)+(अज्झयणं)] [(सुत्त)-(अज्झयण) 1/1] सूत्रों का अध्ययन अव्यय और (णिट्ठि) भूकृ 1/1 अनि कहा गया णिद्दिट्ट अन्वय- जिणमग्गे जहजादरूवमिदि लिंग उवयरणं भणिदं गुरुवयणं विणओ च सुत्तज्झयणं पि य णिद्दिडं। ___ अर्थ- (सर्वज्ञ वीतरागदेव-कथित) जिनमार्ग में (श्रमण का) जैसा जन्म हआं वैसा ही शरीररूपी भेष (मोक्ष का) उपाय/साधन कहा गया (है)। गुरु के द्वारा कथित वचन, (उनके प्रति) (नियमबद्ध) विनय और सूत्रों का अध्ययन भी (मोक्ष का उपाय/साधन) कहा गया (है)। नोटः 1. यद्यपि विनअ' पुल्लिंग है किन्तु णिदिदं निकटतम पद के अनुसार हुआ है। संधि-नियम 8.1 (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 8) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (35)
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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