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23. अप्पडिकुटुं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । मुच्छादिजणणरहिदं गेहद समणो जदि वि अप्पं ॥
अप्पडिकुटुं
उवधि
अपत्थणिज्जं
असंजदजणेहिं
मुच्छादिजणणरहिदं [(मुच्छा)+(आदि)(जणणरहिदं)]
दु
समणो
दि
वि
do
अप्पं
(अप्पडिकुट्ठ) 2/1 वि
(उवधि) 2/1 (अपत्थणिज्ज) 2/1 वि
[ ( असंजद) वि- ( जण) 3/2]
नोटः
अव्यय
( अप्प ) 2 / 1 वि
अस्वीकृत नहीं को
परिग्रह को
[(मुच्छा) - (आदि) - (जणण) - ममत्व आदि भावों
( रहिद) 2 / 1 वि]
की उत्पत्ति-रहित को
(गेह) विधि 3 / 1 सक
ग्रहण करे
(समण) 1 / 1
श्रमण
अव्यय
संपादक द्वारा अनूदित
प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र -अधिकार
अप्रार्थनीय
असंयमी मनुष्यों
द्वारा
अन्वय- समणो असंजदजणेहिं अपत्थणिज्जं उवधिं अप्पडिकुटुं मुच्छादिजणणरहिदं जदि अप्पं वि गेहदु ।
अर्थ - श्रमण असंयमी मनुष्यों द्वारा अप्रार्थनीय परिग्रह को, ( आगमों द्वारा) अस्वीकृत नहीं को अर्थात् स्वीकृत को (तथा) ममत्व आदि भावों की उत्पत्ति-रहित (मुक्त) (परिग्रह) को जो (बिल्कुल आवश्यकतानुसार ) थोड़ा ही हो (उसको) ग्रहण करे।
जो
ही
थोड़ा
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