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________________ 10. लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि। छेदेसूवठ्ठवगा सेसा णिज्जावगा समणा।। लिंगरगहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि छेदेसूवठ्ठवगा [(लिंग)-(ग्गहणे) 7/1] (श्रमण) लिंग ग्रहण में (त) 6/2 सवि उनके [(गुरू)+ (इति)] गुरू (गुरु) 1/1 गुरु इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार [(पव्वज्जा-पव्वज्ज)- प्रव्रज्या देनेवाले (दायग) 1/1 वि] (दीक्षा देनेवाले) (हो) व 3/1 अक . होता है [(छेदेसु)+(उवठ्ठावगा)] छेदेसु (छेद) 7/2 संयम-भंग होने पर उवठ्ठावगा (उवठ्ठावग) 1/2 वि फिर स्थापित करनेवाले (सेस) 1/2 वि अन्य सब (णिज्जावग) 1/2 वि निर्यापक (समण) 1/2 श्रमण सेसा णिज्जावगा समणा अन्वय- लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि छेदेसूवठ्ठवगा सेसा समणा णिज्जावगा। अर्थ- इस प्रकार (साधकों के लिए) (श्रमण) लिंग (भेष) ग्रहण में उनके गुरु प्रव्रज्या देनेवाले (दीक्षा देनेवाले) (आचार्य) (दीक्षागुरु) होते हैं, (तथा) संयम-भंग होने पर फिर (संयम में) स्थापित करनेवाले अन्य सब श्रमण निर्यापक (होते हैं)। 1. 2. प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 21 यहाँ छन्द की मात्रा के लिए ‘उवठ्ठावग' का ‘उवठ्ठवग' किया गया है। (20) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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