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पण्णत्ता
तेसु
पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो
. (पण्णत्त) भूकृ 1/2 अनि कहे गये (त) 7/2 सवि
उनमें - (पमत्त) 1/1 वि प्रमादी
(समण) 1/1 . श्रमण [(छेद)+(उवट्ठावगो)] [(छेद)-(उवट्ठावग) 1/1 वि] संयम-भंग को फिर
स्थापित करनेवाला (हो) व 3/1 अक होता है
होदि
अन्वय- वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।
अर्थ- (पाँच) महाव्रत', (पाँच) समितिः, (पाँच) इन्द्रियनिरोध', लोंच (केशलोंच), (छ) आवश्यक', दिगम्बर अवस्था, स्नान नहीं करना (अस्नान), भूमि पर सोना, दाँतौन नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना और एक बार भोजन करना- ये (अट्ठाईस) मूलगुण श्रमणों के लिए जिनवरों के द्वारा वास्तव में कहे गये (हैं)। उन (मूलगुणों) में (जो) प्रमादी श्रमण (होता है) (उसके लिए) संयम-भंग को फिर स्थापित करनेवाला (निर्यापक श्रमण) होता है।
1. 2. . 3. 4.
पाँच महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। पाँच समिति- ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन। पाँच इन्द्रियनिरोध- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। छ आवश्यक- समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, यसकाऔर कायोत्सर्गी .
प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
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