SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 53. वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं। लोगिगजणसंभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा।। वेज्जावच्चणिमित्तं [(वेज्जावच्च)- वैयावृत्ति के निमित्त (णिमित्त) 1/1] गिलाणगुरुबालवुड्ड- [(गिलाण) वि-(गुरु)-(बाल)- रोगी, पूज्य, बाल समणाणं (वुड्ढ) वि-(समण) 6/2] और वृद्ध श्रमणों की लोगिगजणसंभासा [(लोगिग) वि-(जण)- सांसारिक व्यक्तियों से (संभासा) 1/1] वार्तालाप अव्यय नहीं प्रिंदिदा (णिंदिदा) भूकृ 1/1 अस्वीकृत अव्यय पादपूरक सुहोवजुदा [(सुह)+(उवजुदा)] [(सुह) वि-(उवजुदा) शुभ और उचित भूक 1/1 अनि अन्वय- गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं वेज्जावच्चणिमित्तं लोगिगजणसंभासा सुहोवजुदा वा ण णिदिदा। अर्थ- रोगी, पूज्य, बाल (आयु में छोटे), वृद्ध (आयु में बड़े) श्रमणों की वैयावृत्ति के निमित्त सांसारिक व्यक्तियों से शुभ और उचित वार्तालाप (श्रमणों के लिए) अस्वीकृत नहीं (है)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (63)
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy