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________________ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं (बंधुवग) 2/1 (विमोच) भूकृ 1/1 [(गुरु)-(कलत्त)-(पुत्त) 3/2] (आसि) संकृ [(णाण)-(दंसण)(चरित्त)-(तव) (वीरियायार) 2/1] बंधुसमूह को मुक्त किया गया माता-पिता, पत्नि और पुत्रों द्वारा धारण करके ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीरियाचार आसिज्ज णाणदंसणचरित्त- तववीरियायारं अन्वय- दुक्खपरिमोक्खं इच्छदि जदि गुरुकलत्तपुत्तेहिं विमोचिदो बंधुवग्गं आपिच्छ णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं आसिज्ज एवं जिणवरवसहे सिद्धे समणे पुणो पुणो पणमिय सामण्णं पडिवज्जदु। अर्थ- (जो) (कोई) दुखों से मुक्ति चाहता है (वह) यदि माता-पिता, पनि और पुत्रों द्वारा मुक्त किया गया (है), (तथा) (यदि) (उसने) बंधुसमूह (भाई-बंधों) को पूछ लिया (है) (तो) (वह) ज्ञानचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीरियाचार को धारण करके और जिनवरों में प्रमुख (अरहंत तीर्थंकरों) को, सिद्धों को और श्रमणों (आचार्य, उपाध्याय और साधु) को बारबार प्रणाम करके श्रमणता को अंगीकार करे। (12) प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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