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________________ 3. समणं गणिं गुणटुं कुलरूववयोविसिट्टमिट्टदरं। समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो।। समणं (समण) 2/1 श्रमण गणिं (गणि) 2/1 आचार्य गुणढं (गुणड्ड) 2/1 वि गुणों में समृद्ध कुलरूववयोविसिट्ठ- [(कुलरूववयोविसिट्ठ)+ मिट्ठदरं (इट्ठदरं)] [(कुल)-(रूव)- कुल,रूप और आयु में (वयोविसिट्ठ) भूकृ 2/1 अनि] उपयुक्त इट्ठदरं (इट्ठदर) 2/1 वि अधिक अपेक्षित समणेहि (समण) 3/2 श्रमणा द्वारा (त) 2/1 सवि उसको अव्यय पणदो (पणद) भूकृ 1/1 अनि । साष्टांग प्रणाम किया पडिच्छ (पडिच्छ ) विधि 2/1 सक स्वीकार करें (अम्ह) 2/1 सवि [(च) + (इदि)] च (अ) = और और इदि (अ) = इस प्रकार इस प्रकार अणुगहिदो (अणुगहिद) भूकृ 1/1 अनि अनुगृहीत मुझे चेदि अन्वय- तं समणं गणिं गुण8 कुलरूववयोविसिटुं समणेहि इट्ठदरं पणदो मं पि पडिच्छ चेदि अणुगहिदो। । अर्थ- उस श्रमण को (जो) आचार्य (है), गुणों में समृद्ध (है), कुल, रूप और आयु में उपयुक्त (है) श्रमणों द्वारा अधिक अपेक्षित (है) (उनको) (उसने) (यह कहते हुए) साष्टांग प्रणाम किया (कि) (हे प्रभु आप!) मुझे भी स्वीकार करें। (आचार्य उसको स्वीकार करते हैं) और इस प्रकार (वह) अनुगृहीत (होता है)। प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार (13)
SR No.004160
Book TitlePravachansara Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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