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अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु। विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया।।
अरहंतादिसु
[(अरहत)+(आदिसु)] [(अरहंत)-(आदि) 7/2] (भत्ति) 1/1 (वच्छलदा) 1/1
भत्ती
अरहंतादि में भक्ति वात्सल्य भाव/ अनुराग भाव
वच्छलदा
पवयणाभिजुत्तेसु
विज्जदि जदि सामण्णे
[(पवयण)+(अभिजुत्तेसु)] [(पवयण)-(अभिजुत्त) भूकृ 7/2 अनि] (विज्ज) व 3/1 अक अव्यय (सामण्ण) 7/1 (ता) 1/1 सवि [(सुह) वि-(जुत्ता) भूकृ 1/1अनि] (भव) व 3/1 अक (चरिया) 1/1
आगम-ज्ञान में संलग्न (श्रमणों) में होती है यदि श्रमण अवस्था में वह शुभ-युक्त/शुभोपयोगी
पा
सुहजुत्ता
भवे चरिया
होती है चर्या
अन्वय- जदि सामण्णे अरहंतादिसु भत्ती विज्जदि पवयणाभिजुत्तेसु वच्छलदा सा चरिया सुहजुत्ता भवे।
अर्थ- यदि श्रमण अवस्था में अरहंतादि में भक्ति होती है (और) आगम-ज्ञान में संलग्न (श्रमणों) में/के प्रति वात्सल्य भाव/अनुराग भाव (होता है) (तो) (श्रमण की) वह चर्या शुभ-युक्त/शुभोपयोगी होती है।
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प्रवचनसार (खण्ड-3) चारित्र-अधिकार